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कर्नाटक : जल्दी खत्म हो नाटक

उत्तराखंड में इसका मुजाहिरा कुछ साल पहले हुआ था जब वहां की रावत सरकार को बहाल किया गया था लेकिन कर्नाटक की कहानी थोड़ी अलग है।

लोकसभा चुनावों में भाजपा की शानदार जीत होने के बाद पूरे देश में जो राजनैतिक माहौल बन रहा है उससे ज्यादा हैरतजदा होने की जरूरत इसलिए नहीं है क्योंकि पूर्व में भी ऐसे ‘कलाबाज करतब’ होते रहे हैं जिनमें रातोंरात पूरी पार्टी का ही नहीं बल्कि सरकारों तक का ‘झंडा’ बदल गया है। 1980 में जब स्व. इन्दिरा गांधी की कांग्रेस ने पंचमेल खिचड़ी से बनी जनता पार्टी को लोकसभा के चुनावों में करारी शिकस्त दी थी तो हरियाणा की ‘जनता पार्टी’ की स्व. भजन लाल की पूरी की पूरी सरकार ही रातोंरात ‘कांग्रेस पार्टी’ की सरकार में तब्दील हो गई थी और उससे पहले 1977 में सिक्किम की पूरी सरकार का रंग जनता पार्टी के झंडे में बदल गया था। 
अतः गोवा में जिन दस कांग्रेसी विधायकों ने भाजपा में जाने का फैसला किया है वह बदलती सियासी फिजां की बहार लूटने के अलावा और कुछ नहीं है किन्तु इसे कर्नाटक की राजनीति से जोड़ कर देखा जाना इसलिए जरूरी है क्योंकि गोवा में भी सत्तारूढ़ भाजपा को मामूली बहुमत प्राप्त है इसने विधानसभा चुनावों के बाद क्षेत्रीय दल की मदद लेकर ही राज्य की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस के स्थान पर सरकार गठित करने में सफलता प्राप्त की थी परन्तु कर्नाटक में भाजपा विधानसभा के भीतर सबसे बड़ी पार्टी है। 
पिछले वर्ष के चुनावों के बाद 224 सदस्यीय विधानसभा में इसके 104 विधायक जीते थे परन्तु केवल छह दिन सरकार में ही इसलिए रह पाई थी कि विधानसभा में यह अपना बहुमत साबित नहीं कर पाई थी परन्तु इसी साल हुए लोकसभा चुनावों में जिस प्रकार राज्य की कुल 28 सीटों में से भाजपा 25 सीटें जीतने में सफल रही उसका असर प्रादेशिक राजनीति पर पड़ना स्वाभाविक था। राज्य की एच.डी. कुमारस्वामी सरकार जनता दल (सै ) व कांग्रेस की मिलीजुली सरकार है जिसकी वजह से इस गठबन्धन में बदलती राजनैतिक परिस्थितियों के चलते ऐसे विधायकों के लिए स्वर्ण अवसर था जिनकी व्यक्तिगत आकांक्षाएं इस सरकार में पूरी नहीं हो पा रही थी। जाहिर है कि विपक्ष में बैठी भाजपा इसका लाभ उठाने से नहीं चूकना चाहती थी। 
अतः कांग्रेस व जद(सै) के बागी विधायक जो कुछ भी कर रहे हैं उसके पीछे भाजपा का परोक्ष हाथ बताने में सत्तारूढ़ गठबन्धन के नेताओं को सुविधा हो रही है और वे बागी विधायकों को मनाने की कोशिश कर रहे हैं। राजनैतिक आधार पर चलने वाली लोकतान्त्रिक पद्धति में इसे असामान्य इसलिए नहीं कहा जा सकता है क्योंकि  सियासी जमीन बदलने का फायदा सभी राजनैतिक पार्टियां किसी न किसी समय उठाती रही हैं। इसकी वजह यह है कि राजनीति से अब नैतिकता का सम्बन्ध पूरी तरह समाप्त हो चुका है। नैतिकता को घर बैठाने का काम भी सभी दलों ने बड़े आराम से किया है। अतः कर्नाटक की लड़ाई न तो कांग्रेस या भाजपा अथवा जनता दल ( सै) के बीच की लड़ाई है बल्कि यह सिद्धान्त विहीन सत्ता की ऐसी लड़ाई है जिसमे अपने-पराये सभी मिलकर कुर्सी छीनने और कुर्सी पाने की जुगत लगा रहे हैं।
 
विधानसभा का कार्यकाल अभी पांच वर्ष बाकी है और सदन से इस्तीफा देने वाले विधायकों की कतार लग गई है जाहिर है ऐसे विधायक कांग्रेस पार्टी या जद (सै) में अपना भविष्य उज्ज्वल नहीं देख रहे हैं। उनके इस्तीफा देने से कुमारस्वामी सरकार अल्पमत में आ चुकी है मगर वह इस्तीफा  देने को तैयार नहीं हैं क्योंकि सत्ता से बाहर होते ही उन्हें अपना भविष्य अंधकारमय दिखाई पड़ रहा है। जिसकी वजह से विधानसभा अध्यक्ष की मार्फत वह पेंच निकाला गया है कि इस्तीफों की मंजूरी में ही पेंच लगा दिये जायें। ऐसा भी पहली बार नहीं हो रहा है कि अध्यक्ष के फैसले पर न्यायिक प्रक्रिया को सावधान किया जाये। उत्तराखंड में इसका मुजाहिरा कुछ साल पहले हुआ था जब वहां की रावत सरकार को बहाल किया गया था लेकिन कर्नाटक की कहानी थोड़ी अलग है। 
अध्यक्ष दूध में पड़ी मक्खी को देखने के बावजूद दूध को शुद्ध मानने की गलती कर रहे हैं। उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं हो सकता कि विधायक इस्तीफा  क्यों दे रहे हैं बल्कि मतलब इस बात से हो सकता है कि उनका इस्तीफा संवैधानिक प्रक्रिया के अनुसार सही है अथवा नहीं। इसमें खामी पाये जाने पर वह एतराज जरूर कर सकते हैं। इसी वजह से बागी विधायकों ने सर्वोच्च न्यायालय की शरण ली जिसने मुम्बई में बैठे बागी विधायकों को अध्यक्ष से मिलने का हुक्म दिया। मगर एक बात तो शीशे की तरह साफ है कि कांग्रेस के और दो विधायकों के इस्तीफा देने के बाद कुमारस्वामी सरकार का बहुमत बिना शंका के समाप्त हो चुका है, ऐसा होते ही राज्यपाल को हरकत में आने का अधिकार संविधान ही देता है और वह अपने विवेक का इस्तेमाल करते हुए यथोचित विकल्प को लागू कर सकते हैं। 
ये दो विकल्प दूसरी स्थायी व बहुमत रखने वाली सरकार का पदारोहण अथवा राष्ट्रपति शासन की अनुशंसा है। राष्ट्रपति शासन इसलिए संभव नहीं है क्योंकि विधायकों ने दल-बदल नहीं किया है बल्कि अपनी सदस्यता से इस्तीफा दिया है जो उनका मौलिक अधिकार है। अतः सदन के भीतर भ्रम की स्थिति बनने का कोई सवाल पैदा नहीं होता है। सदन की सदस्य संख्या घटने पर बहुमत का फैसला इसकी शक्ति के अनुसार ही होगा। अतः राज्यपाल को अल्पमत में आयी कुमारस्वामी सरकार से अपना बहुमत साबित करने का निर्देश देने का अधिकार है अथवा प्रतिद्वंद्वी पार्टी के दावे के अनुसार उसके समर्थक विधायकों की संख्या जानने का अधिकार है परन्तु यह प्रक्रिया अध्यक्ष द्वारा इस्तीफों पर अन्तिम फैसला लिये जाने के बाद ही शुरू हो सकती है।

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