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करतारपुर और डा. मनमोहन सिंह

करतारपुर साहिब उप-मार्ग के उद्घाटन समारोह में पूर्व प्रधानमन्त्री डा. मनमोहन सिंह को निमंत्रित करने की घोषणा करके पाकिस्तान ने भारत की आन्तरिक उन्मुक्त लोकतान्त्रिक प्रणाली में सीधे हस्तक्षेप करने की कुटिल चाल चली है जिसका कड़ा विरोध कांग्रेस पार्टी की तरफ से होना प्रायः निश्चित माना जा रहा है।

करतारपुर साहिब उप-मार्ग के उद्घाटन समारोह में पूर्व प्रधानमन्त्री डा. मनमोहन सिंह को निमंत्रित करने की घोषणा करके पाकिस्तान ने भारत की आन्तरिक उन्मुक्त लोकतान्त्रिक प्रणाली में सीधे हस्तक्षेप करने की कुटिल चाल चली है जिसका कड़ा विरोध कांग्रेस पार्टी की तरफ से होना प्रायः निश्चित माना जा रहा है। 
डा. मनमोहन सिंह भारत के लगातार दस वर्षों तक प्रधानमन्त्री रहे हैं और अपने पूरे कार्यकाल में उन्होंने पाकिस्तान के साथ मधुर सम्बन्ध बनाने के गंभीर प्रयास भी किये हैं। पाकिस्तान के साथ सम्बन्धों की इबारत लिखते हुए वह कांग्रेस पार्टी के नेता नहीं थे बल्कि भारत के करोड़ों लोगों द्वारा चुनी गई सरकार के प्रमुख थे और वह ‘भारतवर्ष’ की सरकार थी और इसका प्रमुख समस्त देशवासियों का प्रतिनिधित्व करता था। 
प्रत्येक विदेशी के लिए यह सरकार केवल और केवल ‘भारत की सरकार’ थी, मनमोहन या सोनिया गांधी की सरकार नहीं। इस सरकार के ये नाम हम भारतवासियों के लिए इस देश की सीमा के भीतर ‘राजनैतिक लोकतान्त्रिक प्रशासनिक व्यवस्था’ के तहत थे। अतः पाकिस्तान के ‘बेनंग-ओ-नाम’ हुक्मरानों को बदगुमानी छोड़कर हिन्दोस्तान की मुल्क परस्ती की उस ‘पाक-साफ’ सियासत के जमीनी उसूलों का जायजा लेना चाहिए जिसमें भारत के साथ दुश्मनी करने वाले को हर सियासी पार्टी का सियातदां अपना ‘दुश्मन’ मानता है। 
बेशक कांग्रेस पार्टी के साथ आज की हुकूमत पर काबिज भारतीय जनता पार्टी के भारी मतभेद हो सकते हैं और दोनों पार्टियां एक-दूसरे को हराने के लिए रात-दिन एक भी कर सकती हैं मगर यह लड़ाई सिर्फ हिन्दुस्तान की सरहदों तक ही महफूज है। इसकी सरहदों के बाहर जाते ही हर राजनैतिक नेता केवल हिन्दोस्तानी है और हुकूमत पर काबिज जिस पार्टी की भी सरकार है उसकी विदेश नीति का वह विदेश की धरती पर खड़े होकर हिमायत करने को अपना फर्ज समझता है।  पं. नेहरू से लेकर आज तक हमारी घरेलू  राजनीति का यही उसूल रहा है। 
बेशक भारत के भीतर मुख्तलिफ सियासी पार्टियों की पाकिस्तान के बारे में नीतियां मुख्तलिफ रही हों मगर उनका लेना-देना सिर्फ भारतीय नागरिकों से होता है, किसी पाकिस्तानी से उसका कोई लेना-देना कभी नहीं रहा। इन नीतियों की आलोचना या समर्थन हम भारत के भीतर करने के लिए आजाद होते हैं, मगर परदेस में हमारी जुबां अपने मुल्क की सरकार की भाषा ही बोलती है क्योंकि उसकी पार्टी को इसी देश के लोगों ने अपना बहुमत देकर सत्ता सौंपी होती है लेकिन ये दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतन्त्र की ये बारीकियां पाकिस्तान के ‘अधकचरे’ सियासतदानों की समझ से बाहर हैं क्योंकि उनका लोकतन्त्र ‘फौजी बैसाखियों’ पर टिका हुआ है इसलिए पाकिस्तान के विदेश मन्त्री शाह महमूद कुरैशी को इस हकीकत का इल्म सपने में भी नहीं हो सकता कि डा. मनमोहन सिंह जैसी ‘बाइज्जत-बावकार’ शख्सियत उनकी पेशकश को ‘मुत्तकाबिल’ समझ कर अपने ‘अजीम’ होने का सबूत देगी। पाकिस्तानी विदेश मन्त्री को कौन समझाये कि डा. सिंह सिख बाद में हैं और भारतीय पहले। 
कुरैशी ने सिखों के प्रतिनिधि होने के नाम पर डा. सिंह को न्यौता भेजने की हिमाकत की है मगर वह भूल गये कि जिस जमीन पर उनका मुल्क तामीर हुआ है वह कभी महाराजा रणजीत सिंह की ही सल्तनत का हिस्सा था और उसकी राजधानी लाहौर थी जिसका परचम कश्मीर से लेकर काबुल तक फहरता था। 
सिख गुरुओं की वाणी से आज के पाकिस्तान की सरजमीन का चप्पा-चप्पा बावस्ता रहा है, इसकी फिजाओं में आज भी सिख गुरुओं की ‘अव्वल अल्लाह नूर उपाया कुदरत के सब बन्दे-एक नूर से सब जग उपज्या कोऊ भले कोऊ मन्दे’ सन्त कबीर की इस रचना को गुरुग्रन्थ साहिब में समाहित करके सिख गुरुओं ने समूचे विश्व को एक कुटुम्ब के रूप में देखने की ही दृष्टि दी थी मगर कुरैशी जैसा ‘तंगदिल’ सियासतदां आधुनिक भारत की उस ‘पुरखुलूस’ सियासी पहचान को कभी नहीं पढ़ सकता जिसमंे 1971 में कांग्रेस की इन्दिरा गांधी द्वारा पाकिस्तान के दो टुकड़े करने पर विरोधी पार्टी जनसंघ (भाजपा) के नेता स्व. अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें ‘देवी दुर्गा’ का अवतार तक बताया था और 1974 में उन्हीं इंदिरा गांधी के शासन के विरुद्ध विद्रोह के बिगुल में स्व. जय प्रकाश नारायण का साथ दिया था। भारत के भीतर ‘विरोध’ हमारा अधिकार है और भारत के बाहर ‘समर्थन’ हमारा कर्त्तव्य है। 
कुरैशी और इमरान खान बहुत बड़ी गलतफहमी में हैं कि कांग्रेस के नेता भारतीय राजनीति के मानकों के तहत जिस मोदी सरकार का नीतिगत विरोध करते हैं उनका उपयोग विश्व मंचों पर किया जा सकता है। बेशक ऐसे मामलों में कांग्रेस नेताओं को बहुत सावधानी और गंभीरता के साथ शब्दों का चयन करना चाहिए मगर इसका मतलब यह कदापि नहीं लगाया जा सकता कि इस पार्टी के नेताओं की राष्ट्रभक्ति पर सन्देह किया जा सकता है। 
घरेलू स्तर पर उनकी जमकर आलोचना हो सकती है और इसका हक प्रत्येक राजनैतिक दल को है मगर कोई भी दूसरा देश इसका इस्तेमाल नहीं कर सकता। कश्मीर से अनुच्छेद 370 को समाप्त किये जाने के मुद्दे पर कांग्रेस पार्टी के भाजपा से मतभेद हैं मगर इनका पाकिस्तान से दूर-दूर तक का कोई लेना-देना नहीं है क्योंकि जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय कांग्रेस के शासनकाल में ही हुआ था। मतभेद इसकी आन्तरिक शासन प्रणाली को लेकर भाजपा के अपने जन्मकाल से ही रहे हैं मगर इसका उल्लेख तो पाकिस्तान ने कभी करने की जुर्रत नहीं की। इस पार्टी के जन्मदाता डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने तो अपने जीवन का बलिदान ही कश्मीर से अनुच्छेद 370 को समाप्त करने की गरज से ही दिया था। जाहिर है यह हमारा आंतरिक मामला तब भी था और आज भी है जब 370 को हटा दिया गया है। 
अतः भाजपा और कांग्रेस के बीच घरेलू राजनीति में व्याप्त इस मतभेद का फायदा उठाने की इजाजत डा. मनमोहन सिंह जैसा दानिशमन्द सियासी शाहकार कभी नहीं दे सकता और कुरैशी की पेशकश को वह खाक की नजर ही करेगा। कुरैशी ने समझ लिया होगा कि भारत में ‘नवजोत सिंह सिद्धू’ ही होते हैं जिनके लिए सियासत मौज-मस्ती से ज्यादा कुछ नहीं होती मगर यहां मनमोहन सिंह भी होते हैं जिनके एक हाथ में बंसी और दूसरे में सुदर्शन चक्र भी होता है। कुरैशी को याद रखना चाहिए कि यह वही डा. मनमोहन सिंह हैं जिन्हें दस साल तक वजीरे आजम रहने के बावजूद पाकिस्तान के बेदर्द-कमजर्फ सियासतदानों ने पाक में ही अपना जन्म स्थान तक देखने की इजाजत नहीं दी थी और आज चले हैं उन्हें न्यौता देने!
कब सुनता है कहानी मेरी, और फिर जबानी मेरी 
मुत्तकाबिल है मुकाबिल मेरे , रुक गया देख र-वानी मेरी 

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