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केरल स्थानीय निकाय चुनाव

केरल राज्य स्वतन्त्र भारत में दो बातों के लिए शुरू से ही मशहूर रहा है । वे हैं प्रकृति और प्रवृत्ति। यहां की सागर तट की सुन्दर व मनोरम छटाएं सामान्य जन में प्रकृति के प्रति आसक्ति जागृत करती हैं

केरल राज्य स्वतन्त्र भारत में दो बातों के लिए शुरू से ही मशहूर रहा है । वे हैं प्रकृति और प्रवृत्ति। यहां की सागर तट की सुन्दर व मनोरम छटाएं सामान्य जन में प्रकृति के प्रति आसक्ति जागृत करती हैं और समुद्र की उल्टी लहरों से बनी झीलनुमा घाटियां ( बैक वाटर्स) इसे भारत का ‘वीनस’ घोषित करती हैं परन्तु इसके समानान्तर इसकी सामाजिक संरचना भी किसी समुद्र की गहराइयों का अहसास कराती है जिसमें विभिन्न धर्मावलम्बी खुले व उद्दात्त विचारों के साथ जीवन जीते हैं। हिन्दू संस्कृति की कई महान परंपराओं का जनक यह राज्य अन्य धर्मों के फलने-फूलने में भी अपनी सामाजिक सहनशीलता की अनोखी दास्तान प्रस्तुत करता रहा है। मसलन इसी राज्य में इस्लाम धर्म के अनुयायियों की इसके उद्गम काल की मस्जिद विद्यमान है और ईसाई धर्म के यूरोप में भी फैलने से पहले का गिरजाघर मौजूद है। इसके कोच्चिं शहर में यहूदियों का पूजा स्थल ‘सिनेगाग’ मौजूद है।  
इसी प्रकार राजनीतिक मोर्चे पर यह देश आजाद भारत की बहुदलीय लोकतान्त्रिक संस्कृति का पहला हस्ताक्षर होने का गौरव रखता है। जिस समय 1956 में राज्यों का पुनर्गठन करते समय  त्रावनकोर और कोच्चिं रियासतों व कारगढ़ ताल्लुका का विलय करके केरल राज्य का गठन किया गया तो पूरे देश में कांग्रेस पार्टी का एकछत्र राज था, परन्तु 1957 के आम चुनावों में इस राज्य की जनता ने इसके विरोध में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को चुना और इसकी सरकार बनाई। इस राज्य का इतिहास पढ़ने पर स्पष्ट हो जाता है कि तत्कालीन प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू को भारत के किसी राज्य में कम्युनिस्टों की सरकार नहीं भाई और उन्होंने इसे भंग कराने के लिए अन्य राजनीतिक दलों जैसे प्रजा सोशलिस्ट पार्टी आदि का सहयोग किया और 1959 में अपनी पुत्री इंदिरा गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बना कर यह कार्य किया। उस समय राज्य के मुख्यमन्त्री स्व. ई.एम.एस. नम्बूदरीपाद थे। तभी से इस राज्य में कांग्रेस व कम्युनिस्ट एक दूसरे के कट्टर विरोधी चले आ रहे हैं मगर 1967 के आते-आते भारतीय जनसंघ (भाजपा) के उत्तर भारत में प्रभावी तौर पर उभरने पर इसके शीर्षस्थ नेता स्व. दीनदयाल उपाध्याय की नजर से यह राजनीतिक वास्तविकता छिपी नहीं रही और उनकी अध्यक्षता में इस वर्ष जनसंघ का वार्षिक सम्मेलन किया गया। उस समय जनसंघ का चुनाव निशान दीपक होता था और इस सम्मेलन के दौरान पूरे कालीकट शहर को दीपकों से जगमगा दिया गया था, परन्तु इसके बाद जनसंघ के वे प्रयास नहीं दिखाई दिये जिसकी रूपरेखा श्री उपाध्याय ने तैयार की थी। 
हालांकि इसके बाद वर्तमान समय में 2014 में केन्द्र में भाजपा की सरकार आने के बाद इस पार्टी ने युद्ध स्तर पर अपनी विचारधारा फैलाने के लिए काम किया जिसमें उसे आंशिक सफलता तिरुवनन्तपुरम जैसे शहरी इलाके में प्राप्त भी हुई मगर सत्ता की खींचतान मुख्यतः वाम पंथी दलों और कांग्रेस के बीच ही होती रही। हाल ही में हुए स्थानीय निकाय चुनावों में मार्क्सवादी पार्टी के नेतृत्व में चल रहे वामपंथी मोर्चे को ही शानदार विजय मिली है और कांग्रेस नीत मोर्चा दूसरे नम्बर पर रहा है। भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए गठबन्धन को छिट-पुट सफलता ही प्राप्त हो सकी है। भाजपा को उम्मीद थी कि जिस तरह वह कांग्रेस पार्टी का अन्य राज्यों में स्थान लेने में सफल हो रही है उसकी पुनरावृत्ति केरल में भी हो सकती है लेकिन उसकी यह धारणा सफल नहीं हुई। इसकी मूल वजह यह है कि केरल में मार्क्सवादी पार्टी को सामान्यतः हिन्दू  समाज के बहुसंख्यक वर्ग का समर्थन प्राप्त होता है जबकि कांग्रेस नीत गठबन्धन को ईसाई व मुस्लिम तथा अन्य अल्पसंख्यक वर्गों का समर्थन मिलता है।
 वैचारिक रूप से यहां का समाज बहुत प्रबुद्ध और प्रवीण माना जाता है। मार्क्सवादी पार्टी के बड़े नेता अधिकतर ब्राह्मण समुदाय से ही आते हैं जो सामाजिक बराबरी और न्याय को राजनीति के केन्द्र में लाकर विमर्श तय करते हैं।  धर्म इस राज्य के लोगों के लिए नितान्त निजी मामला है जिसका सामाजिक व आर्थिक व्यवहार से कोई लेना-देना नहीं है। इसके साथ ही इस राज्य के लोगों को उनकी भाषा मलयालम बहुत कस कर जोड़े हुए है। भाषायी समानता की सांस्कृतिक एकता उन्हें धार्मिक पहचान के अलगाव से निरपेक्ष रखती है। हालांकि यह तथ्य प. बंगाल के बारे में भी सही उतरता है किन्तु वहां भाजपा को 2019 के लोकसभा चुनावों में अच्छी सफलता मिली है। इसकी वजह केरल की राजनीति का कमोबेश भ्रष्टाचार रहित रहना है। हालांकि हाल ही में जिस प्रकार केरल के मार्क्सवादी मुख्यमन्त्री पी. विजयन पर स्वर्ण तस्करी मामले के छींटे पड़े हैं उसका प्रयोग विरोधी दलों ने इन नगर पालिका चुनावों में करने की कोशिश की है मगर मतदाताओं ने इन आरोपों को ज्यादा अहमियत नहीं दी है। इसका कारण भी यहां के मतदाताओं की तीक्ष्ण राजनीतिक बुद्धि है क्योंकि वे किसी आरोप की तह तक जाने में यकीन रखते हैं। यही वजह है कि जब कांग्रेस के स्व. नेता व मुख्यमन्त्री श्री के. करुणाकरण पर पाम आयल आयात में घोटाला करने के आरोप लगे थे तो आम जनता ने उनका शासन उखाड़ फैंका था। केरल के पालिका चुनावों से यही सन्देश जाता है कि भाजपा को इस राज्य में सफलता प्राप्त करने के लिए इस राज्य की राजनीतिक संस्कृति के अनुरूप ही अपनी चाल-ढाल में परिवर्तन करना होगा। कुछ ऐसे क्षेत्रों में भाजपा का ग्राफ जरूर बढ़ा है जहां अयप्पा स्वामी मन्दिर में प्रवेश को लेकर विवाद पैदा हुआ था परन्तु यह मामूली ही कहा जायेगा क्योंकि इसके पीछे स्थानीय कारण भी रहे हैं।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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