केरल में केन्द्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी ने राज्य में राजनैतिक हिंसा के खिलाफ मुहिम छेड़ दी है। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री अमित शाह स्वयं इस मुहिम की कमान संभाले हुए हैं। दक्षिण के इस मालाबार तटवर्ती इलाके में जनसंघ या भाजपा का यह पहला जोर दार प्रयास नहीं है। इससे पूर्व कुछ माह पहले ही पार्टी की तरफ से संघ के कार्यकर्ता की हत्या किये जाने के विरुद्ध भाजपा व संघ की ओर से अभियान चलाया गया था। स्वतन्त्रता दिवस के अवसर पर स्वयं संघ प्रमुख श्री मोहन भागवत ने केरल के एक विद्यालय में जाकर तिरंगा झंडा फहरा कर माक्र्सवादियों को चुनौती दी थी और वित्तमन्त्री श्री अरुण जेतली ने संघ के मारे गये कार्यकर्ताओं के घर जाकर सांत्वना दी थी परन्तु माक्र्सवादी पार्टी की तरफ से कहा गया था कि भाजपा केरल में अपनी राजनैतिक पैठ बनाने के लिए यह इकतरफा अभियान चला रही है जबकि राजनैतिक हिंसा में उसके कार्यकर्ताओं की भी बड़ी संख्या में मृत्यु हुई है।
इससे यह स्पष्ट है कि राज्य में राजनैतिक हिंसा का माहौल है और बजाये तर्क-बुद्धि के हाथ की ताकत से काम लिये जाने की संस्कृति पनप रही है। लोकतन्त्र में राजनीति के इस चेहरे के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता। विचारों की लड़ाई का निपटारा कभी भी हथियारों से नहीं किया जा सकता। राज्य में निश्चित रूप से साम्यवादियों का दबदबा स्वतन्त्रता के बाद से ही काबिज रहा है जिसे पं. जवाहर लाल नेहरू जैसी शख्सियत भी दबा नहीं सकी थी लेकिन इसके साथ ही संघ भी इस राज्य में अपना कार्य बदस्तूर करता रहा है और अपनी विचारधारा से नागरिकों को परिचित कराता रहा है। उसकी विचारधारा किसी भी रूप में हिंसा की पोषक नहीं रही है जबकि कम्युनिस्टों का स्वतन्त्रता से पूर्व विश्वास हिंसा पर जरूर रहा है मगर आजादी के बाद इन्होंने भारतीय संविधान में अपनी पूरी निष्ठा व्यक्त करते हुए चुनावी लोकतन्त्र में हिस्सा लेने का फैसला किया अत: स्वाभाविक तौर पर केरल में हिंसक राजनीति के पनपने के शक में माक्र्सवादी पार्टी आ जाती है जिसका निवारण वर्तमान वामपंथी पार्टी के मुख्यमन्त्री श्री पी. विजयन को करना चाहिए। लोकतन्त्र में संविधान के दायरे में किसी भी राजनैतिक विचारधारा को सीमित नहीं किया जा सकता है अत: संघ से रंजिश पाल लेना किसी भी स्तर पर उचित नहीं कहा जा सकता। ऐसा भी नहीं है कि संघ की उपस्थिति इस राज्य में हाल-फिलहाल में ही प्रकट हुई हो।
1967 में भारतीय जनसंघ का अधिवेशन कालीकट में करके स्व. दीन दयाल उपाध्याय ने अपनी पार्टी को धुर दक्षिण के राज्यों में फैलाने का प्रयास किया था। उससे पहले राज्य की माक्र्सवादी पार्टी की स्व ई नम्बूदिरिपाद की सरकार के रहते राज्य के मल्लापुरम इलाके को जिले का स्तर देने के मुद्दे पर भी संघ और माक्र्सवादियों में जमकर बहसबाजी हुई थी और प्रदर्शनों का दौर भी चला था। इस मुस्लिम बहुल इलाके को जिले का स्तर प्रदान करने का संघ ने पुरजोर विरोध किया था। अत: संघ व वामपंथियों के बीच लागडांट का इतिहास बहुत पुराना है मगर निर्मम हत्याओं का दौर चलना वास्तव में केरल जैसे देश के सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे राज्य में आश्चर्यजनक है। राज्य की वामपंथी मोर्चे व कांग्रेस की संयुक्त मोर्चे के बीच बंटी राजनीति में यह आरोप भी लगते रहे हैं कि वोटों के लाभ के लिए परोक्ष रूप से कांग्रेस पार्टी संघ का समर्थन तक करने से नहीं हिचकती। इसकी वजह यह है कि केरल में माक्र्सवादी पार्टी हिन्दू समुदाय की पार्टी मानी जाती है जबकि कांग्रेस व अन्य पार्टियां राज्य के विभिन्न अल्पसंख्यकों की पार्टियां हैं। इसके बावजूद केरल राज्य की सांस्कृतिक छाया इस भेद को उभरने नहीं देती है महाराजा बलि की भूमि माने जाने वाले इस राज्य में जब उनके वार्षिक आगमन का पर्व ‘ओणम’ मनाया जाता है तो मजहब की पहचान ‘मलयाली’ पहचान में दुबक जाती है। हालांकि राजनैतिक रूप से बंटवारा समुदाय गत होने के बावजूद राज्य में हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे को चुनौती देने की हिम्मत किसी पार्टी में नहीं है।
इसकी असली वजह राज्य के सामान्य मतदाताओं का राजनैतिक दर्शन व सिद्धान्तों के मूल तत्व को समझना रहा है, जातिवाद से केरल का दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं है और भाषाई एकता इसे कस कर बांधे रखती है। तर्कों की कसौटी पर राजनीति को कसना यहां के लोगों का जन्मजात स्वभाव होता है। इसका नुक्सान भी केरल को उठाना पड़ा है क्योंकि यहां की कम्युनिस्ट कार्य संस्कृति की वजह से उद्योग जगत इससे दूर रहा। इस कमी को 80 के दशक में कांग्रेस के नेता स्व. के. करुणाकरण ने अपने राज्य को पर्यटन के मानचित्र पर प्रभावी रूप से लाकर दूर करने की कोशिश की और इसके बाद जाकर यह कहीं पर्यटन का आकर्षक केन्द्र बन पाया हालांकि पं. नेहरू ने इसके समुद्री तटों व बैक वाटर्स की नैसर्गिक व अद्भुत प्राकृतिक सुन्दरता को देखते हुए 50 के दशक में ही इसे ‘वेनिस आफ इंडिया’ के नाम से नवाजा था मगर इसका वाणिज्यिक रूपान्तरण 80 के दशक से ही हो पाया। इससे राज्य की वामपंथी सरकार अगर सत्ता में आने पर राजनैतिक हिंसा पर लगाम नहीं लगा पाती है तो केरल के लिए इससे बड़ा दुर्भाग्य नहीं हो सकता। बेशक भाजपा का इस राज्य में पहले से प्रभाव बढ़ा है मगर इससे घबरा कर माक्र्सवादी यदि हिंसा को औजार बनाते हैं तो वे अपनी कमजोरी का ही इजहार करते हैं। दार्शनिकों और राजनीतिक चिन्तकों के इस राज्य में हिंसा की अवधारणा ही सोच से परे है।