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किम जोंग का ट्रम्प ‘कार्ड’

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द्वितीय विश्व युद्ध की विभीषिका के परिणामस्वरूप जापान के नियन्त्रण से छूटे संयुक्त कोरिया के लोग जिस तरह बाद में शीत युद्ध के चक्रव्यूह में फंसे उससे इस देश का दो भागों दक्षिण व उत्तर कोरिया में बंटवारा हो गया और अमरीका, रूस व चीन के प्रभाव क्षेत्रों में ये दोनों देश चले गये। उत्तरी कोरिया कामरेड किम-इल-सुंग के नेतृत्व में चीन व रूस की मदद से साम्यवादी समाज शासन व्यवस्था का गढ़ बन गया और द. कोरिया में अमरीकी प्रभाव से पूंजीमूलक बाजार व्यवस्था का प्रसार होता चला गया परन्तु सबसे बड़ी हैरानी की बात यह रही कि द्वितीय विश्व युद्ध में अमरीका व रूस एक पाले में खड़े होने के बावजूद संयुक्त कोरिया का वजूद कायम नहीं रख सके और जापान की पराजय के बाद ये दोनों मुल्क अपना-अपना क्षेत्रीय दबदबा कायम करने में उलझ गये। आज के कोरियाई देशों में हम जो कुछ भी देख रहे हैं उसकी जड़ें 70 साल पहले के घटनाक्रम में समाई हुई हैं।

सिंगापुर में आज अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प व उत्तर कोरिया के चेयरमैन किम-जोंग-उन के बीच हुई वार्ता विश्व इतिहास की एेसी महत्वपूर्ण घटना है जिसका प्रभाव सम्पूर्ण एशियाई महाद्वीप पर पड़े बिना नहीं रह सकता। यदि गौर से देखा जाये तो इन दोनों देशों के बीच शुरू हुए शान्ति प्रयासों का प्रभाव अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस तरह पड़ सकता है कि हिन्द महासागर व प्रशान्त महासागर के इलाकों में चीन व अमरीका के बीच सामरिक प्रतिस्पर्धा के घटने को प्रोत्साहन मिले। उत्तरी कोरिया के जरिये चीन व अमरीका जिस तरह अघोषित युद्ध का हौवा खड़ा करते रहते थे, उसमें अब नरमी आएगी। अपनी सुरक्षा के नाम पर उत्तरी कोरिया जिस तरह परमाणु अस्त्रों के उत्पादन पर जोर दे रहा था और अमरीका उसे लगातार परिणाम भुगतने की धमकियां जारी करता रहता था, उसमें अब गुणात्मक परिवर्तन आना लाजिमी होगा क्योंकि उत्तरी कोरिया दुनिया की बदलती फिजां के बावजूद अपने ही बनाये हुए संसार में अन्य देशों से निरपेक्ष रहते हुए स्वयं ही अपनी पीठ थपथपाने में लगा रहता था मगर यह नहीं माना जा सकता कि उत्तरी कोरिया के निर्माता ‘कामरेड किम–इल-सुंग’ के पोते चेयरमैन ‘किम-जोंग-उन’ को बाहर की दुनिया की खबर ही न हो। इसके लिए पड़ौसी चीन से उनके गहरे सम्बन्ध दिशा-सूचक की भूमिका निभाने के लिए काफी थे।

कम्युनिस्ट चीन ने जिस तरह बदलती दुनिया के साथ कदम ताल करने की नीतियां बनाईं उससे इस देश में नागरिक स्वतन्त्रता व निजी सम्मान की बयार आर्थिक दबावों की वजह से बही। इस बदलाव को उत्तरी कोरिया के लोगों द्वारा महसूस किया जाना स्वाभाविक प्रक्रिया थी। चेयरमैन किम-जोंग-उन केवल युद्धाेन्माद के वातावरण में अपने देश के नागरिकों को झोंककर बाहर की दुनिया की हकीकत से बेखबर नहीं रख सकते थे। अतः अमरीका के साथ बातचीत का रास्ता अपनाने की सलाह चीन से न मिली हो, एेसा नहीं कहा जा सकता। उत्तरी कोरिया के समानान्तर दक्षिण कोरिया में आर्थिक, राजनैतिक व सामाजिक व्यवस्था से उपजे प्रतिफलों का संज्ञान चेयरमैन किम-जोंग के देश के लोग न लें, एेसा भी संभव नहीं था। दूसरी तरफ अमरीका दक्षिण कोरिया में अपने सैनिक अड्डे बनाकर इस देश के लोगों की सुरक्षा की गारंटी देने का दम्भ भरे, उसमें भी क्षेत्रीय सुरक्षा सुनिश्चित नहीं थी लेकिन इसके जवाब में उत्तरी कोरिया उन विध्वंसक परमाणु अस्त्रों का खौफ पैदा करना चाहता था जिनसे पूरी दुनिया में ही भूचाल पैदा हो सकता था लेकिन एेसा करते समय उत्तरी कोरिया अपने देश के लोगों के विकास व उनकी प्रगति को लगातार अवरुद्ध कर रहा था और अपनी राष्ट्रीय आय का अधिकांश हिस्सा अस्त्र-शस्त्रों और सेना पर ही खर्च करता रहा।

कम्युनिस्ट तानाशाही में चलने वाले इस देश की जर्जर अर्थव्यवस्था को यदि चीन से मदद न मिलती होती तो इसका पूरा तन्त्र कभी का बैठ जाता। इसे भरपूर मदद देने के पीछे चीन की अपनी विवशता रही क्योंकि इसके बूते पर ही वह दक्षिण एशिया के हिन्द महासागर व प्रशान्त सागरीय देशों में अमरीकी दबदबे को सन्तुलित कर सकता था। अतः यह बेवजह नहीं है कि सत्तर के दशक में स्व. इंदिरा गांधी ने पूरे हिन्द महासागर क्षेत्र को ‘अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति क्षेत्र’ घोषित करने की क्यों मांग की थी। उस समय इसका सबसे कड़ा विरोध अमरीका ने ही किया था। 1974 में जब इन्दिरा जी के नेतृत्व में भारत ने पोखरण में पहला परमाणु परीक्षण किया तो उसका सन्देश भी यही था कि हिन्द महासागर क्षेत्र को सैनिक प्रतियोगिता का अड्डा किसी कीमत पर नहीं बनाया जा सकता क्योंकि 1971 के बंगलादेश युद्ध में अमरीका ने अपना सातवां परमाणु अस्त्रों से लैस जंगी जहाजी बेड़ा बंगाल की खाड़ी में लाकर तैनात कर दिया था।

परमाणु अस्त्रों के उत्पादन को लेकर आजकल जो कोहराम मचा हुआ है और पाकिस्तान जैसा नाजायज मुल्क तक उसे अपने हाथ में लेकर बैठा हुआ है, उसका समाधान भी भारत ने पूरी संजीदगी के साथ 1986 में सुझाया था कि दुनिया के सभी देशों को अपने-अपने परमाणु अस्त्र समुद्र में डुबो देने चाहिएं और उसके बाद परमाणु अप्रसार सन्धि से पूरी दुनिया को बांध दिया जाना चाहिए। यह प्रस्ताव स्व. राजीव गांधी ने राष्ट्र संघ में रखा था। इसका एकमात्र लक्ष्य दुनिया में बराबरी का वातावरण पैदा करना था परन्तु आज की दुनिया का वातावरण आर्थिक भूमंडलीकरण के बावजूद सामरिक ताकत के साये में पनाह लेना चाहता है। अतः हमें उत्तर कोरिया व अमरीका के बीच शुरू हुए वार्ता के दौर को इसी कसौटी पर कस कर देखना होगा। यदि एेसा न होता तो चेयरमैन किम-जोंग-उन डोनाल्ड ट्रम्प से वार्ता शुरू करने से पहले अपने देश के परमाणु परीक्षण स्थलों को नष्ट करने की नुमाइश क्यों करते? उत्तरी कोरिया के विरुद्ध अमरीका स्वयं और उसके मित्र देश क्यों आर्थिक प्रतिबन्ध लगाते? यहां तक कि उसके साथ राजनयिक दौत्य सम्बन्ध भी कुछ गिने-चुने देशों के ही हैं। हालांकि भारत ने उसके साथ अपने सम्बन्ध कभी नहीं तोड़े और साफ किया कि हम प्रत्येक देश के लोगों की उस इच्छा का सम्मान करते हैं कि अपनी मनपसन्द की सरकार बनाने या चुनने का उनका ही विशिष्ट अधिकार होता है। यह हमारी ताकत का नमूना है, कमजोरी का नहीं। कामरेड किम-इल-सुन के समय से ही उत्तर कोरिया के साथ भारत के सम्बन्ध मधुर रहे हैं। अतः उत्तर कोरिया व अमरीका के बीच मधुर सम्बन्धाें की शुरूआत का लाभ एशिया के सभी देशों को होगा लेकिन मानना होगा कि राष्ट्रपति ट्रम्प के साथ अपनी पहली मुलाकात में ही चेयरमैन किम-जोंग ने अपने कठिन वार्ताकार होने का परिचय दे दिया है।

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