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बिहार-बंगाल की हिंसा से सबक

हम भारत के लोगों को सबसे पहले यह समझना होगा कि साम्प्रदायिकता उस धरती की तासीर में ही नहीं है जिस ‘धरती’ को हम “भारत” कहते हैं।

हम भारत के लोगों को सबसे पहले यह समझना होगा कि साम्प्रदायिकता उस धरती की तासीर में ही नहीं है जिस ‘धरती’ को हम “भारत” कहते हैं। इसकी मूल वजह यह है कि यह देश आदिकाल से किसी एक मत या पंथ को मानने वालों का नहीं रहा है। यहां ईश्वरवादी व अनीश्वरवादी मजहब साथ-साथ चलते रहे हैं और भिन्न-भिन्न पूजा पद्धतियों का अनुसरण करते रहे हैं, यहां तक कि किसी भी मजहब को न मानने वाले लोग भी समाज में घुले-मिले रहे हैं। बहुत पुरानी बात नहीं है जब केरल के मशहूर चित्रकार राजा रवि वर्मा ने हिन्दू देवी-देवताओं के चित्र शास्त्रों में वर्णित उनके रूप-स्वरूप के अनुसार बनाने शुरू किये और उनकी प्रिंटिग प्रैस से छपी हुई अनुकृतियां घर-घर पहुंची। यह केवल 19वीं शताब्दी की ही घटना है। रामलीलाओं का प्रचलन गोस्वामी तुलसीदास ने केवल सात सौ साल पहले ही मुगल शासनकाल में शुरू किया। वह समय अकबर बादशाह के शासन का था, उस समय हमें किसी साम्प्रदायिक दंगे की घटना के प्रमाण नहीं मिलते हैं परन्तु 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता युद्ध के बाद जिस तरह अंग्रेजी शासनकाल के दौरान हिन्दू व मुसलमानों के बीच खाई पैदा करके अंग्रेजी सत्ता को मजबूत करने की शतरंज बिछाई गई उसने अन्ततः 1947 में भारत के दो टुकड़े ही कर डाले। 
हम भारतीयों को सबक सीखने के लिए यह इतिहास ही काफी है। क्या कभी इस मुद्दे पर विचार करने की जहमत किसी राजनेता ने उठाई है कि भारत में जो भी साम्प्रदायिक दंगे होते हैं उनमें जान की हानि के अलावा ‘माल’ की कितनी हानि होती है? अर्थव्यवस्था का कितना नुक्सान होता है? इस नुक्सान का सीधा असर सरकारी राजस्व पर नहीं बल्कि आम जनता पर पड़ता है। मजहबी जुनून में हम अपना ही बेतहाशा नुक्सान कर डालते हैं और इसका दोष हिन्दू मुसलमानों पर व मुसलमान हिन्दुओं पर डालना शुरू कर देते हैं। यहीं से वोटों की राजनीति रंग जमाने लगाती है और हम खुद ही अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार कर अपने जख्मों की नुमाइश करने लगते हैं। हम भूल जाते हैं कि यह देश उस गांधी का देश है जिसने हिन्दू-मुस्लिम भाईचारा कायम रखने के लिए अपने प्राणों का बलिदान कर दिया था। बेशक मजहब के नाम पर तामीर किया गया पाकिस्तान भारतीय संस्कृति और इसमें समाहित भाईचारे के विचार पर एक नासूर की तरह है मगर पाकिस्तान की बदहाली हमारी आंखों के सामने हैं जहां मुसलमान ही मुसलमानों से अलग-अलग फिरकों के नाम पर लड़ रहे हैं। इसका सीधा मतलब यही निकलता है कि एक ही मजहब के विचार पर बने देश के भीतर भी सामाजिक भाईचारे को स्थापित नहीं किया जा सकता जब तक कि उस समाज की तासीर सर्वेभवन्तु सुखिनः न हो।
 भारत की इस तासीर के खिलाफ जाकर जिन्ना लड़ा और उसने भारत के दो टुकड़े अंग्रेजों की मदद से करा लिये मगर उसी पाकिस्तान के एक इलाके के लोगों ने 1971 में उसके फलसफे को कब्र में गाड़ दिया और अलग बांग्लादेश बना लिया। अतः मजहब का एक होना किसी भी देश की मजबूती का सबूत नहीं हो सकता। मजबूती वहां के लोगों की संस्कृति से आती है और विभिन्न क्षेत्रीय पहचानों में बिखरी भारत की संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वहां की जमीन के त्यौहारों को सभी वर्गों के लोग मिलजुल कर मनाते हैं। 
आज बिहार व प. बंगाल में रामनवमी के अवसर पर हुए दंगों की वजह से जिस तरह राजनीति का बाजार गर्म है उसे देख कर लगता है कि मजहब में राजनीति घुस चुकी है जिसकी तरफ पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्तियों ने ध्यान खींचने की कोशिश की थी। क्या कभी सोचा गया है कि बिहार में छठ पूजा के अवसर पर दंगे क्यों नहीं हो पाते अथवा प. बंगाल में दुर्गा पूजा के अवसर पर बवाल क्यों नहीं होता? इसका कारण यही है कि ये पर्व हर बिहारी या बंगाली की अस्मिता से जुड़े हुए हैं। ये लोक उत्सव हैं। तर्क दिया जा सकता है कि रामनवमी का त्यौहार भी भगवान राम के उत्सव का प्रतीक है तो फिर इस अवसर पर दंगे क्यों होते हैं? क्या चैतन्य महाप्रभु के समय में बंगाल में हिन्दू शासन था जो वह सड़कों पर श्री कृष्ण भजन करते हुए घूमते रहते थे। उनका विरोध कोई नहीं करता था। मैंने पहले भी लिखा था कि राम नाम के शब्द का अर्थ ही जब हमारे वेद-उपनिषदों में केवल प्रेम, प्यार, आन्नद, हर्ष आदि है तो उन्हें सैनिक या योद्धा के रूप में निरूपित करने का क्या तात्पर्य है। राम की उपासन केवल साकार रूप में ही करने वाले लोग भारत में नहीं रहते हैं बल्कि उनके निराकार स्वरूप की आराधना करने वाले कबीरपंथियों से लेकर सिख मतावलम्बी भी रहते हैं। वह राम प्रेम हैं, आनन्द है जो समूचे ब्रह्मांड को जीवन देने वाला है। इसीलिए राम को घट-घट वासी कहा गया क्योंकि परिवार से लेकर समाज व राष्ट्र और संसार में जहां-जहां भी प्रेम है वहीं राम है। गांधी तो अपने जीवन में कभी किसी मन्दिर में नहीं गये तब भी अन्तिम समय में उनके होठों पर राम नाम ही था। पराई पीर को समझने का नाम राम है जो अहिंसा का उद्गम है और भारतीय संस्कृति में अहिंसा से बड़ा धर्म कोई और नहीं है।

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