आखिर लॉकलाउन 3-0 का ऐलान हो ही गया। तीसरे चरण का लॉकडाउन समय की जरूरत भी थी और विवशता भी। गृह मंत्रालय ने तो विस्तृत गाइड लाइन्स जारी कर दी है। कोरोना वायरस को हराने के लिए तीन रंगों से लड़ा जाएगा- रैड, आरेंज और ग्रीन। वैसे तो जिन्दगी में हर रंग महत्वपूर्ण है। रैड, आरेंज और ग्रीन जोनों में राहतें भी दी गई हैं।
जीवन अपने आप में सतत् चलने वाली गतिविधि ही है, जब तक मनुष्य की गतिविधियां जारी रहती हैं जीवन सक्रिय रहता है। इसलिए जहान में आर्थिक गतिविधियां शुरू होनी ही चाहिएं। अधिकांश राज्यों के मुख्यमंत्री लॉकडाउन बढ़ाने के पक्ष में थे। राजस्थान और पंजाब की कांग्रेस सरकारें पहले ही लॉकलाउन बढ़ा चुकी हैं। लॉकडाउन के तीसरे चरण में अब राज्य सरकारों की जिम्मेदारी काफी बढ़ गई है। केन्द्र सरकार ने प्रवासी मजदूरों को अपने-अपने घरों में वापस पहुंचाने के लिए विशेष ट्रेनें चलाने की स्वीकृति भी दे दी है। तेलंगाना से रांची तक मजदूरों की ट्रेनें चलाई भी गई हैं। अब राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है कि प्रवासी मजदूरों को अपने घरों तक पहुंचाने के दौरान लॉकडाउन के नियमों का पालन हो। हर मजदूर की थर्मल स्क्रीनिंग हो और संक्रमित लोगों को एकांतवास में रखा जाए। एक मई को मजदूर दिवस था। इस दिवस पर देशभर में सड़कों पर पैदल अपने घरों को जाते मजदूरों, रोटी-पानी के लिए बिलखते मजदूरों की तस्वीरें दिखाई थीं। किसानों की अपनी चिंता है, मजदूरों के बिना किसान क्या करेगा? अब जबकि हर जोन में राहत दी गई है तो हमें यह भी देखना होगा कि राहत का फायदा हर आदमी को मिले। राहतों के नाम पर जो भ्रम पैदा किया जा रहा है, वह भी दूर होना चाहिए। राजधानी की कालोनियों में देखा जा रहा है कि रैजिडेंट वैलफेयर एसोसिएशनें समाचार पत्र वितरकों को अखबार बांटने से रोक रही हैं, सब्जी वालों के लिए गेट बंद कर दिए जाते हैं, उनसे दुर्व्यवहार किया जाता है। अगर हॉकर, सब्जी विक्रेता और डिलीवरी ब्वाय सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए अपनी रोजी-रोटी के लिए काम कर रहा है तो उसके कामकाज को रोकना भी अपराध के समान है। अब जबकि वैज्ञानिकों ने इस बात की पुष्टि कर दी है कि समाचारपत्रों से कोरोना नहीं फैलता तो फिर किसी को भी हॉकरों से रोजगार छीनने का अधिकार नहीं है। हॉकर भी अखबार बेचकर ही अपने परिवार का पेट पालता है। समाज को उस गरीब वर्ग की चिंता होनी चाहिए, जिसके बिना उनका जीवन दूभर हो जाता है। आजकल गृहणियां भी काफी परेशान हैं। काम वाली का आना बंद है, सुबह से लेकर शाम तक बर्तन, कपड़े, झाडू-पोछा खुद करना पड़ता है। हर कोई स्थिति सामान्य होने का इंतजार कर रहा है लेकिन हैरानी इस बात की होती है कि लॉकडाउन के दौरान श्रमिक वर्ग को नजरंदाज किया गया।
मानव सभ्यता का स्वभाव है कि खुद को उपस्थित चुनौतियों के अनुरूप ढाल कर मनुष्य ने जिजीिवषा का परिचय दिया है। कोरोना काल का एक सकारात्मक बदलाव यह भी है कि देश में पुलिस मित्र और संकटमोचक नजर आई जो अब तक डराने वालों के रूप में देखी जाती थी। कोरोना युद्ध में नागरिक दायित्वबोध तो नजर आया लेकिन समाज के एक वर्ग में गरीबों के प्रति दायित्वबोध में कमी भी देखी गई है। अर्थ व्यवस्था केवल पूंजीपतियों के सहारे नहीं चलती बल्कि अर्थ व्यवस्था की गति मजदूरों, किसानों, नौकरीपेशा लोगों की क्रय शक्ति से तेज होती है। गरीब, मजदूर और किसानों की जेब में पैसा आएगा तभी वह बाजार में खरीददारी करने आएंगे। अगर इन्हें नजरंदाज किया गया तो अर्थ व्यवस्था सुस्त ही रहेगी। बेहतर यही होगा कि राज्य सरकारें और समाज इस वर्ग का ध्यान रखें और इन्हें इनके पसीने का पूरा मेहनताना मिले।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि सब जानते हैं कि तालाबंदी का मकसद क्या है। इसके बावजूद मंडियों में भीड़ सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जियां उड़ाती देखी जा रही है। सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या राहतें मिलते ही लोगों का व्यवहार नियंत्रण में रहता है। हो सकता है कि शराब के ठेके खुलते ही वहां लोगों की भीड़ लग जाए। लोगों का व्यवहार उनके विवेक पर निर्भर करता है। लोेगों काे समझना चाहिए कि अगर उन्होंने बंदिशों को जीवन की व्यावहारिकता में नहीं अपनाया तो कोराेना का विस्फोट हो सकता है। लोग यह भी जान लें कि उन्हें बार-बार हाथ धोने, चेहरे पर मास्क पहनने आैर स्वच्छता तथा सोशल डिस्टेंसिंग को आदत बनाना होगा। साथ ही गुटखा, तम्बाकू मुंह में रखकर उसको कहीं भी उगल देने, पार्कों में गंदगी फैलाने, सार्वजनिक स्थानों पर छींकने पर मुंह न ढकने की अपनी आदतों को बदलना ही होगा। कोरोना वायरस का खतरा लम्बे समय तक रहेगा। इसलिए हमें सैनेटाइजर और मास्क के साथ जीना सीखना होगा। यह सब तब सार्थक होगा जब लोग प्रधानमंत्री द्वारा आगाह करने या आदेश या परामर्श देने के बिना ही स्वेच्छा से अपनी आदतों को बदलें। रोजमर्रा की जिन्दगी में बंदिशों को अपनाना बहुत जरूरी है।