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लोहिया, शरद यादव और चुनाव !

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अब लोकसभा चुनाव सिर पर आ चुके हैं और सभी प्रमुख राजनैतिक दल अपने प्रत्याशियों की घोषणा कर रहे हैं। बिहार में यूपीए और एनडीए दोनों ने ही अपने-अपने प्रत्याशियों की घोषणा कर दी है और लोकतान्त्रिक जनता दल के अध्यक्ष श्री शरद यादव मधेपुरा से विपक्ष के सांझा उम्मीदवार बनाये गये हैं। अकेले उनकी उम्मीदवारी की बात इसलिए सामयिक और तर्कपूर्ण है कि उन्होंने जब से जनता दल (यू) अध्यक्ष पद को लात मारकर अपनी सैद्धान्तिक राजनीति का चयन करते हुए अपनी राज्यसभा सीट की परवाह नहीं की उससे मौजूदा राजनैतिक वातावरण में उन दिनों की याद ताजा होती है जब सत्तर के दशक में लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ आन्दोलन चलाया था। बेशक 1977 में इमरजेंसी लगने के बाद यह आंदोलन मात्र तत्कालीन प्रधानमन्त्री स्व. इं​दिरा गांधी को सत्ता से हटाने के लक्ष्य तक सिमट गया था मगर इसने तब समाजवादी आधार पर ‘जनता पार्टी’ के साये के नीचे सभी विचारों के लोगों को इकट्ठा कर दिया था।

वास्तव में यह गैर कांग्रेसवाद के अलावा और कुछ नहीं था मगर इन सभी दलों में एक बात बहुत तीव्रता के साथ सांझा थी कि भारतीय लोकतन्त्र में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को कुचलने या उसे दबाने अथवा एकल विचार की सियासी निजामत को किसी सूरत में बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। यदि हम बहुत बारीकी के साथ तत्कालीन राजनैतिक परिस्थितियों का विश्लेषण करें तो जयप्रकाश नारायण और आचार्य कृपलानी के बाद नई बनी जनता पार्टी में सबसे ज्यादा कद्दावर नेता स्व. चौधरी चरण सिंह ही थे जिन्होंने समाजवादी चिन्तक व नेता डा. राम मनोहर लोहिया के सिद्धान्तों को जमीन पर उतारते हुए 1977 के लोकसभा चुनावों में जनता पार्टी के साठ प्रतिशत टिकट पिछड़ी ग्रामीण जातियों, दलितों व जनता के बीच संघर्ष करने वाले लोगों को बांटे थे।

चौधरी साहब ने उत्तर भारत के अधिसंख्य राज्यों समेत गुजरात व ओडिशा तक में यह कार्य किया था (कुछ अपवादों को छोड़कर)। चुनाव नतीजे भी अप्रत्याशित रहे थे। दक्षिण भारत के चार राज्यों को छोड़कर पूरे देश में इंदिरा कांग्रेस की पराजय हुई थी मगर इन्हीं राज्यों व कुछ इक्का-दुक्का अन्य राज्यों से इस पार्टी के तब भी 13 प्रत्याशी लोकसभा में पहुंच गये थे। वास्तव में यह डा. लोहिया के गैर कांग्रेसवाद फार्मूले का परिणाम कम और पिछड़ों को ‘सौ में साठ’ हिस्सा देने का उनका सिद्धान्त ज्यादा था। इसी फार्मूले से निकल कर लालू प्रसाद यादव, राम विलास पासवान, नीतीश कुमार, शरद यादव, मुलायम सिंह यादव, सईद मुर्तजा, रशीद मसूद व दलित नेता रामजी लाल सुमन, राम निहोरे राकेश व कुरील जैसे लोग निकल कर आये थे।

जनता पार्टी के टिकट पर कुल 295 प्रत्याशी जीते थे। इनमें साठ प्रतिशत के करीब ग्रामीण परिवेश व कृषक जातियों (दलितों समेत) थे। लिखने का आशय सिर्फ इतना है कि चौधरी चरण सिंह की मृत्यु के बाद यदि उनकी विरासत को वैचारिक स्तर पर थामे रखने की किसी नेता ने हिम्मत और कूव्वत दिखाई तो वह केवल श्री शरद यादव ही हैं क्योंकि जनता दल (यू) की स्थापना करते समय ही साफ कर दिया था कि उनकी पार्टी की राजनीति जातिवाद के आधार पर नहीं पिछड़े के आधार पर होगी और इसमें दलित व मुस्लिम भी शामिल होंगे।

जाहिर तौर पर उन्होंने सत्ता की राजनीति के साथ समझौता न करते हुए नीतीश कुमार का साथ छोड़ा वरना वह भी आज केन्द्र की सरकार में केबिनेट मन्त्री होते। ये तेवर बताते हैं कि राजनीति में सिद्धान्त के क्या मायने होते हैं और अकेला हो जाने के बावजूद अपने रास्ते पर डटे रहने से डर क्यों नहीं लगता है। अतः लालू जी की पार्टी के साथ कांग्रेस व अन्य दलों का साझा प्रत्याशी बनना इस तथ्य का ही परिचायक है कि चुनावी राजनीति में वोटों का गणित आम जनता के भरोसे पर ही निर्भर करता है मगर असल बात यह है कि 1977 में उपजी सम्पूर्ण क्रान्ति अन्ततः सम्पूर्ण भ्रान्ति ही साबित हुई क्योंकि जनता पार्टी में शामिल सभी दल बाद में अपना-अपना रास्ता पकड़कर चलते बने। यह वास्तव में डा. लोहिया के गैर कांग्रेसवाद की पराजय थी और उनके सिद्धान्तों की विजय सिर्फ इस मायने में थी कि बाद में चौधरी साहब ने दलित मजदूर किसान पार्टी बनाकर 1984 का चुनाव लड़ा था और उत्तर भारत में स्व. राजीव गांधी की प्रचंड कांग्रेसी लहर में दूसरे स्थान पर मतों का प्रतिशत पाया था।

उनकी मृत्यु के बाद लोहिया का समाजवाद चारों खाने चित्त होता चला गया और कृषक जातियों को उनके चेलों ने अपने-अपने हिसाब से अपनी-अपनी पार्टियां बनाकर आपस में बांट लिया जिनमें हरियाणा की कई लोकदल पार्टियां भी शामिल हैं। अतः हमारे ही सामने डा. लोहिया के विचार की किस प्रकार धज्जियां उड़ीं, इसे हम सबने देखा है मगर संख्या में कम रहते हुए भी श्री यादव जिस भी पार्टी में रहे उसी में उन्होंने समाजवादी विचारधारा को ऊपर रखने का प्रयास किया। डा. लोहिया भी कभी इस बात की परवाह नहीं करते थे कि उनके साथ कितने लोग हैं। केवल दो जोड़ी धोती-कुर्ते में पूरे देश का भ्रमण करने वाले डा. लोहिया ने जब यह नारा दिया था कि ‘संसोपा ने बांधी गांठ-पिछड़ों को हो सौ में साठ’ तो दक्षिण व वामपंथ की दोनों ही धुर पार्टियों को इस पर एतराज था।

उनका डर था कि इससे समाज में टूट पैदा हो सकती है मगर डा. लोहिया संविधान के महान ज्ञाता थे और वह यह नारा संविधान के दायरे में ही दे रहे थे जिसमें पिछड़े वर्गों को विकास के समान अवसर देने के लिए विशेष प्रयास करने की नसीहत है। इसके साथ ही डा. लोहिया भारतीय समाज की इस हकीकत से पूरी तरह वाकिफ थे कि यहां पिछड़े रहने की पहचान जातियों से जुड़ी हुई है जिसकी वजह से बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर ने अनुसूचित जातियों व जनजातियों को आरक्षण देने का प्रावधान किया था। डा. लोहिया तो इससे भी आगे जाकर मुस्लिम समाज में पेशे के आधार पर निर्धारित जातिसूचक सम्बोधनों से बाकायदा परिचित थे और मांग करते थे कि बाल काटने वाले एक नाई व मकान चिनने वाले एक मिस्त्री की दिहाड़ी का निर्धारण उसके ‘फन’ की अदाकारी के अनुरूप हो।

उन्होंने तो किसानों की उपज के मूल्य का ऐसा नायाब फार्मूला दिया था जिससे औद्योगिक सामग्री व बाजार की ताकतों के बीच स्वाभाविक सन्तुलन कायम रह सके मगर उनका लक्ष्य पिछड़े वर्गों की आने वाली पीढि़यों को कथित संभ्रान्त वर्ग के लोगों के बराबर इस तरह लाने का था कि एक तरफ समाज में असमानता दूर हो और दूसरी तरफ पूरे भारत में राजनैतिक चेतना का संचार हो। इसी वजह से उन्होंने नारा दिया था कि ‘राष्ट्रपति का बेटा हो या चपरासी की हो सन्तान, टाटा या बिड़ला का छौना सबकी शिक्षा एक समान’। है किसी में हिम्मत जो आज छाती ठोककर यह ऐलान कर सके कि विभिन्न प्रकार की लुभावनी स्कीमों और सरकारी खातों में खर्चे की मद में करोड़ों रुपये के आवंटन की शेखियों के बीच ऐसी ठोस योजना को लागू करके उस आरक्षण की आवश्यकता को ही समाप्त कर दिया जायेगा जिसकी मांग अब गांव की हर कृषक जाति कर रही है और दलितों से भी बदतर जीवन जीते मुस्लिम समाज के लोग कर रहे हैं।

अगर हर अमीर-गरीब के बच्चे को एक जैसी और एक समान शिक्षा दी जायेगी तो मेधा (मेरिट) की समस्या ही क्यों पैदा होगी और कोई भी जाति आरक्षण क्यों मांगेगी मगर हम उस प्रणाली का क्या करेंगे जिसमें जन्मजात रूप से आरक्षण होता है ? गजब की परंपराएं हमारे दिमागों में बैठा दी गई हैं कि धार्मिक कहानियों में अगर कोई सबसे गरीब होगा तो वह भी ब्राह्मण ही होगा और वह अनपढ़ होकर भी पूरे समाज के आदर का पात्र होगा जबकि किसी दलित का बेटा आज के समाज में ‘जिलाधीश’ बन जाने के बावजूद पीठ पीछे हिकारत की नजर से ही देखा जायेगा? डा. लोहिया इसी संस्कृति को नेस्तनाबूद कर देना चाहते थे और कहते थे दलित के घर में जाकर उसका खाना खाने से नहीं बल्कि दलितों को अपने घर बुला कर आदर-सत्कार के साथ उनके साथ अपने आलीशान फर्नीचर पर भोजन खाने से भेदभाव मिटेगा और एक-दूसरे के दरवाजे पर बारात लाने और ले जाने से गैर बराबरी समाप्त होगी। इस देश में लोकतन्त्र के मायने तभी स्थापित होंगे जब एक महारानी और एक मेहतरानी एक ही पंगत में बैठकर भोजन करेंगी। अतः इन वचनों पर टिके रहकर यदि शरद यादव संसद में मां को सशक्त करने के लिए बहस कराने की मांग करते रहे हैं तो स्वीकार करना होगा कि डा. लोहिया की विरासत अभी जिन्दा है।

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