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प्रवासी मजदूरों की किस्मत!

लाॅकडाऊन-चार के तहत एक ओर पूरे देश में ‘नियन्त्रित’ चहल-पहल लौट रही है और बाजार रौनकजदा हो रहे हैं वहीं दूसरी तरफ अपनी मेहनत से शहरों को रौशन करने वाले मजदूरों में अपने गांवों की तरफ जाने की भागमभाग मची हुई है।

लाॅकडाऊन-चार के तहत एक ओर पूरे देश में ‘नियन्त्रित’ चहल-पहल लौट रही है और बाजार रौनकजदा हो रहे हैं वहीं दूसरी तरफ अपनी मेहनत से शहरों को रौशन करने वाले मजदूरों में अपने गांवों की तरफ जाने की भागमभाग मची हुई है। इससे सिद्ध होता है कि शहरों या मजदूरों के कार्य क्षेत्रों में जिन्दगी तब तक सहमी हुई मुस्कराहट में ही जीती रहेगी जब तक कि गांवों से वापस मजदूर आकर पुनः उसमें उमंगें पैदा नहीं करते मगर क्या कयामत बरपा हो रही है कि मजदूरों के गांवों की ओर पलायन पर ही जम कर सियासत हो रही है। इसका मतलब यह भी निकलता है कि लाॅकडाऊन की दहशत से हम अपनी दिशा भूल रहे हैं।
हालत ऐसी हो गई है जैसे किसी रेलवे स्टेशन पर खड़ी किसी रेलगाड़ी के पास एक नेत्रहीन व्यक्ति किसी दूसरे अंधे यात्री से पूछता है कि ‘भइया यह ट्रेन कहां जायेगी।’ भारत की संसद में 1963 में जब पहली बार समाजवादी चिन्तक डा. राम मनोहर लोहिया चुन कर आये तो उन्होंने योजना आयोग के इस दावे को खोखला साबित कर दिया था कि भारत के औसत आदमी की रोजाना की आमदनी 15 आने (94 पैसे) है।
डा. लोहिया ने सिद्ध किया था कि औसत आदमी की आमदनी साढे़ तीन आने या चार आने (25 पैसे) से अधिक नहीं है। मजदूरों के विपरीत गांवों की ओर पलायन को देखते हुए कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय स्तर पर इनकी औसत आमदनी 120 रुपए रोजाना से अधिक नहीं है, बड़े-बड़े शहरों में यह आमदनी बेशक 300 रुपए के आसपास हो सकती है परन्तु पूरे भारत का औसत कार्य दिवसों के हिसाब से निकालने पर इतना ही औसत आयेगा।
ये आंकड़े कई प्रतिष्ठित संस्थान दे चुके हैं। अतः समझा जा सकता है कि लगातार दो महीने तक बिना किसी काम धंधे के शहरों में लाॅकडाऊन में फंसने वाले मजदूरों की स्थिति क्या होगी? अतः लाॅकडाऊन के दूसरे चरण के बाद ही गांवों की ओर वापस जाने की उनकी ललक को आसानी से समझा जा सकता है परन्तु लाॅकडाऊन के चौथे चरण की शुरूआत पर भी उनका गांवों की तरफ जाना बताता है कि वे उम्मीद छोड़ चुके हैं कि इस चरण के 14 दिनों को भी वे आधा-अधूरा काम मिलने के बावजूद झेल सकते हैं।
सबसे अधिक चिन्ता की बात यही है कि मजदूरों का विश्वास अर्थव्यवस्था के जल्दी ही सुचारू होने पर डगमगा गया है। पूरे देश की सरकारों को अब यही करना है कि अर्थव्यवस्था के पहिये को इस प्रकार चलाये जिससे शहरों व कार्यस्थलों पर कामगरों की कमी महसूस होने लगे और इनकी मांग इस तरह बढ़े कि मजदूरी भी फौरी तौर पर बढ़ जाये तभी बाजार मूलक अर्थव्यवस्था मजदूरों को गांवों से पुनः शहरों की तरफ लौटने को बाध्य कर सकती है मगर इसके लिए जरूरी है कि गांवों में कोरोना के पांव न पड़ने पायें, लेकिन जिस तरह एक राज्य से दूसरे अपने मूल राज्य में मजदूर पलायन कर रहे हैं उसे देखते हुए उनके मूल राज्यों में चिकित्सा तन्त्र का मजबूत होना प्राथमिक शर्त होगी।
संभवतः इन्हीं सब आकस्मिकताओं को देखते हुए राष्ट्रीय आपदा अधिनियम-2005 में प्रावधान किया गया था कि जब किसी महामारी जैसी आपदा से निपटने के लिए दैनिक जीवन की सभी गतिविधियां लाॅकडाऊन (प्रतिबन्धित) की जाएंगी तो उसके समानान्तर एक राष्ट्रीय योजना भी घोषित की जायेगी जिससे आपदा का मुकाबला भी किया जा सके और सामान्य जन-जीवन को पुनः पटरी पर लाने में ज्यादा कठिनाई भी न हो।
यदि कोई ऐसा खाका आज हमारे सामने होता तो किसी भी क्षेत्र में किसी तरह की गफलत का माहौल न बन पाता, परन्तु कोरोना का संकट इस तरह आया कि आज देश में एक लाख से ज्यादा लोग इससे प्रभावित हो चुके हैं परन्तु सबसे बड़ा सन्तोष का विषय यह है कि इनमें से 35 हजार लोग भले-चंगे होकर अपने घर भी जा चुके हैं।
अतः कोरोना पर विजय पाने का संकल्प हमारी इस सफलता से और मजबूत होता है मगर संशय अब ग्रामीण मोर्चे पर ज्यादा बढ़ता नजर आता है जहां मजदूर पलायन कर रहे हैं। कोरोना के दुष्ट चरित्र को देखते हुए, यह एक आदमी से दूसरे आदमी में जिस तरह फैलता है उससे राज्य सरकारों की परेशानियां बढ़ सकती हैं विशेषकर उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, प. बंगाल, झारखंड, छत्तीसगढ़ आदि की क्योंकि सर्वाधिक प्रवासी मजदूर इन्हीं राज्यों के हैं।
अतः राज्य सरकारों को आर्थिक मदद की आवश्यकता होगी। अतः वाजिब सवाल बनता है कि इन राज्य सरकारों को ऐसे संकट के समय अकेला नहीं छोड़ा जा सकता क्योंकि इन पर दोहरा भार है। लाॅकडाऊन के कारण इनकी अर्थव्यवस्था चौपट हो चुकी है और इसके ऊपर इन्हें मजदूरों की भारी संख्या की देखभाल करनी है। कोरोना वायरस को दूर रखने का पूरा ढांचा इन्हें खड़ा करना है और चिकित्सा तन्त्र को तहसील स्तर पर मजबूत करना है।
राज्यों को मिलने वाली ‘ओवर ड्राफ्ट’ अर्थात वादा ऋण चुकाने की सीमा वित्त मन्त्रालय ने 14 दिन से बढ़ा कर 21 दिन कर दी है और अपने राज्य की जीडीपी का पांच प्रतिशत से अधिक तक ऋण उगाहने की अनुमति भी दे दी है मगर इससे आर्थिक देनदारियों का भार राज्य के लिए असहनीय हो सकता है। अतः केन्द्र को इन छह राज्यों की विशेष मदद करने की आवश्यकता है।
ऐसा करने की कोई जरूरत न पड़ती और मजदूरों का पलायन भी रुका रहता यदि लाॅकडाऊन के प्रथम चरण में ही प्रत्येक गरीब परिवार के जन-धन खाते में पांच से छह हजार रुपए की धनराशि जमा करा दी जाती। हालांकि उत्तर प्रदेश की सरकार ने इस मामले में बहुत फुर्ती दिखाई और गरीबों के खाते में धन जमा कराया। शायद यही कारण है कि सबसे पहले इस राज्य के मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ ने ही प्रवासी मजदूरों का स्वागत किया और उनके पलायन को भी सुगम बनाने की कोशिश की। हालांकि अब मामला कुछ सियासती अन्दाज में आता जा रहा है।

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