महाराष्ट्र में राजनीतिक नाटक का जिस तरह पटाक्षेप हुआ है उससे यही सिद्ध हुआ है कि इस राज्य में श्री शरद पवार के कद को छू पाना किसी अन्य क्षेत्रीय नेता के बस की बात नहीं है मगर पूरा नाटक भी उन्हीं की पार्टी और उनके ही घर में विद्रोह हो जाने की वजह से हुआ। उनके भतीजे अजित पवार ने जिस तरह रातों-रात खेमा बदल कर 22 नवम्बर की अर्धरात्रि में भाजपा की निराशा को उम्मीद में बदला और अगले दिन भोर भये ही देवेन्द्र फडणवीस ने मुख्यमन्त्री और अजित दादा ने उपमुख्यमन्त्री पद की शपथ ली, उससे यह तो स्पष्ट हो गया था कि राज्य में किसी भी अन्य दल द्वारा सरकार बनाने में असमर्थ रहने का लाभ अजित पवार ने इस तरह उठाया है कि शरद पवार के हाथ से ही उस भाजपा विरोधी सियासी गठजोड़ की बागडोर छूट जाये जिसका ताना-बाना स्वयं शरद पवार ने ही तैयार किया था, परन्तु अजित पवार यहीं अपनी हैसियत भूलने की गलती कर गये और अपने राजनीतिक गुरु व संरक्षक श्री शरद पवार की ‘साख’ का भाव लगा बैठे।
अजित दादा भूल गये थे कि उन्हें राष्ट्रवादी कांग्रेस के नये चुने हुए 54 विधायकों का नेता शरद पवार के एक इशारे ने ही बनाया था। बेशक राजनीति में अक्सर चेला ही गुरु को मात देता रहा है। ऐसे अनगिनत उदाहरण स्वतन्त्र भारत की राजनीति में हैं और सबसे बड़ा उदाहरण कांग्रेस पार्टी की शक्तिशाली प्रधानमन्त्री स्व. इन्दिरा गांधी थीं जिन्होंने 1969 में अपने ही राजनीतिक अभिभावक स्व. कामराज नाडार को पटकी देकर सर्वत्र अपनी लोकप्रियता के झंडे कांग्रेस पार्टी को दो भागों में विभाजित करके गाड़ दिये थे परन्तु संभवतः इससे भी पहले 1966 में हरियाणा राज्य के गठित होने पर इस राज्य के प्रवर्तक रहे प्रथम मुख्यमन्त्री पं. भगवत दयाल शर्मा के शिष्य रहे स्व. बंसीलाल ने ही 1969 में ही अपने गुरु को धत्ता बताते हुए इन्दिरा जी की कांग्रेस में विश्वास जता कर पं. भगवत दयाल शर्मा को दूध में पड़ी मक्खी समझा था।
जबकि हकीकत यह थी कि 1967 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के पराजित होने पर इस राज्य में कांग्रेस से ही बागी हुए स्व. राव वीरेन्द्र सिंह की खिचड़ी संविद सरकार बनी थी जो बमुश्किल 10 महीने चली थी जिसकी वजह से 1968 में हरियाणा में मध्यावधि चुनाव हुए थे जिनमें कांग्रेस पुनः भारी बहुमत से जीती थी और तब स्वयं पंडित जी ने आगे बढ़कर बंसीलाल की ताजपोशी की थी और उन्हें मुख्यमन्त्री बनवाया था। अतः राजनीति में ऐसे खेल होते रहते हैं परन्तु महाराष्ट्र में अजित पवार की बगावत के कोई मायने इसलिए नहीं निकले क्योंकि इस राज्य में शरद पवार का रुतबा राजनीतिज्ञ से ऊपर का माना जाता है जिसकी असल वजह भी उनकी बेमेल विचारधारा से बने गठबन्धनों की सफल राजनीति ही मानी जाती है।
1977 के बाद से 1987 तक उन्होंने महाराष्ट्र की राजनीति में वह प्रयोग तक किया जिसमें तब की जनता पार्टी से लेकर बाद में बनी भाजपा कभी उनके साथ सत्ता में तो कभी विपक्ष में गठजोड़ में रही, परन्तु वर्तमान में महाराष्ट्र में जो राजनीतिक समीकरण विधानसभा चुनावों के बाद उभरे उन्हें समझने में केवल अजित पवार ही गच्चा खा गये हों, ऐसा नहीं माना जाना चाहिए बल्कि सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी भी गफलत में पड़ गई और वह राष्ट्रवादी कांग्रेस के 54 विधायकों के मिजाज का सही आकलन नहीं कर सकी। अजित पवार इस मुगालते में भी रहे कि 80 वर्ष की आयु को पार कर चुके शरद पवार के वह राज्य में अघोषित उत्तराधिकारी हो चुके हैं और उनकी बगावत से शरद पवार की राजनीतिक ऊर्जा उनके पास स्वतः परिवर्तित या स्थानान्तरित हो जायेगी।
बहती हवा को सूंघ कर उसकी रफ्तार की भविष्यवाणी करने में माहिर माने जाने वाले शरद पवार ने अपने भतीजे अजित पवार के बागी हो जाने पर भी सत्ता के पत्ते अपने हाथ में इस तरह रखे कि अजित दादा की जगह दूसरे विधायक जयन्त पाटील को अपनी पार्टी का विधायक दल का नेता बनाने के बावजूद उन्होंने अजित पवार को अपनी पार्टी से नहीं निकाला। जिसकी वजह से अजित पवार की बगावत ढेर हो गई और उनके साथ गये हुए राकांपा विधायक भी वापस अपने पुराने खेमे में आ गये।
शरद पवार का यह दांव भाजपा पर भी बहुत भारी पड़ा जिसकी वजह से इसके मुख्यमन्त्री ने अपना इस्तीफा दे दिया, परन्तु इसके पीछे संवैधानिक नैतिकता और विश्वसनीयता का भी व्यापक मुद्दा जुड़ा हुआ है। हैरतंगेज तो यह रहा कि 23 नवम्बर को राज्यपाल श्री कोश्यारी ने सुबह-सवेरे आनन-फानन में शपथ दिलाये गये मुख्यमन्त्री फडणवीस को विधानसभा में अपना बहुमत साबित करने के लिए 14 दिनों का समय दे दिया। उनका यही फैसला कानून की नजर में संवैधानिक मर्यादा के विरुद्ध साबित हुआ।
यह सच है कि श्री कोश्यारी ने राज्य में सभी विकल्प निरर्थक हो जाने पर ही भाजपा व राकांपा की सरकार इसके स्थायित्व को देखते हुए बनाई क्योंकि केवल दो दलों का आंकड़ा 159 का हो रहा था, परन्तु संविधान मर्यादा की यह मांग स्वाभाविक रूप से बनती थी कि वह श्री फडणवीस को जल्दी से जल्दी बहुमत साबित करने के लिए कहते क्योंकि संविधान के अनुसार ही संसदीय लोकतन्त्र में ऐसी कोई भी सरकार सत्ता में नहीं रह सकती जिसे विधानसभा में पूर्ण व स्पष्ट बहुमत प्राप्त न हो और राज्यपाल की नई सरकार गठित करते समय यह मूलभूत जिम्मेदारी होती है। इसके साथ ही बहुमत का जुगाड़ करने के लिए अन्य तरीकों के इस्तेमाल को रोकने का दायित्व भी राज्यपाल का होता है।
संवैधानिक नैतिकता का दायरा इससे भी आगे जाता है परन्तु यह तो न्यूनतम ‘अहर्ता’ होती है अतः सर्वोच्च न्यायालय में पूरे प्रकरण को लेकर जो चुनौती कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस व शिवसेना ने दी थी उसके फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने इन्हीं मुद्दों पर जोर देते हुए एक दिन बाद यानि 27 नवम्बर को ही फडणवीस सरकार को अपना बहुमत साबित करने का आदेश दिया और इस बारे में अपनाई जाने वाली प्रणाली का भी खाका खींच दिया मगर इससे पहले ही 26 नवम्बर को फडणवीस सरकार ने इस्तीफा देकर स्वीकार कर लिया कि बहुमत साबित करना उसके बूते से बाहर था।
जाहिर है कि संविधान की ही जीत हुई है, लेकिन इससे यह सिद्ध नहीं होता है कि शिवसेना-राकांपा व कांग्रेस का गठबन्धन बहुत मजबूत साबित होगा। बेशक इसके पास संख्यागत बहुमत है परन्तु ‘राजनीतिक एकमत’ नहीं है। यह गठबन्धन बोलचाल की भाषा में ‘वाया भटिंडा’ गठबन्धन है। इसके स्थायित्व की गारंटी केवल राजनीतिक लाभ है क्योंकि वैचारिक स्तर पर यह ‘शंकरजी की बारात’ ही कहलायेगी जिसमें एक तरफ शिवसेना और दूसरी तरफ कांग्रेस पार्टी है। फिर भी संविधान के अनुसार बहुमत की सरकार ही ‘वैध सरकार’ हो सकती है।