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ममता दी का ‘मारक मन्त्र’

तृणमूल कांग्रेस की सर्वेसर्वा और प. बंगाल की मुख्यमन्त्री ममता दीदी ने यह फैसला करके सभी विपक्षी राजनैतिक दलों को चौंका दिया है कि उनके सांसद उपराष्ट्रपति पद के होने वाले चुनावों में भाग नहीं लेंगे।

तृणमूल कांग्रेस की सर्वेसर्वा और प. बंगाल की मुख्यमन्त्री ममता दीदी ने यह फैसला करके सभी विपक्षी राजनैतिक दलों को चौंका दिया है कि उनके सांसद उपराष्ट्रपति पद के होने वाले चुनावों में भाग नहीं लेंगे। इसका मतलब यही होता है कि तृणमूल के 34 सांसद किसी भी प्रत्याशी को वोट नहीं देंगे और वे इन चुनावों का बहिष्कार जैसा करेंगे। स्वतन्त्र भारत में किसी भी जिम्मेदार कहे जाने वाले राजनैतिक दल का यह फैसला पूरी तरह अपनी स्वार्थी राजनीति का भद्दा प्रदर्शन ही कहा जायेगा क्योंकि इससे राजनीति को सीधा व्यापार बनाने की ‘बू’ आती है। ममता दी को जमीन पर संघर्ष करते हुए शिखर तक पहुंचने वाली राजनीतिज्ञ माना जाता है मगर इसका मतलब यह नही है कि राजनीति को पूरी तरह सिद्धान्तविहीन बनाते हुए सिर्फ निजी स्वार्थों को ऊपर रखा जाये। उपराष्ट्रपति का पद कोई साधारण पद नहीं होता है क्योंकि उपराष्ट्रपति ही संसद के उच्च सदन राज्यसभा के सभापति होते हैं और उन पर इस सदन को सुचारू रूप से चलाने की जिम्मेदारी होती है। मगर ममता दी को लगा कि सत्तारूढ़ दल भाजपा ने इस पद के लिए बंगाल के राज्यपाल श्री जगदीप धनखड़ का नामांकन करके उनके रास्ते का कांटा हटा दिया है जिससे उनकी राह प. बंगाल में आसान हो जायेगी, इसलिए उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं कि विपक्षी प्रत्याशी श्रीमती मार्गरेट अल्वा का क्या हश्र होता है। उनके उपराष्ट्रपति पद के चुनाव से हाथ खींच लेने से तो यह चुनाव मात्र औपचारिकता बन कर रह गया है क्योंकि संसद की दलगत संरचना को देखते हुए तो श्री धनखड़ की विजय सुनिश्चित है। इससे ममता दी की कथित ‘विपक्षी एकता’ की कलई  भी खुल गई है। इसका आशय यही निकाला जायेगा कि अभी तक वह इस बारे में जो भी प्रयास कर रही थीं वह मात्र एक आडम्बर और छलावा था और वह एेसा दिखावा केवल अपना दल गत स्वार्थ साधने के लिए कर रही थीं। 
मार्गरेट अल्वा कांग्रेस पार्टी की सदस्य रही हैं और हर मायने में योग्यता में श्री धनखड़ का मुकाबला करने में सक्षम हैं क्योंकि वह भी राज्यपाल रह चुकी हैं मगर ममता दी का यह कह देना कि विपक्षी दलों ने श्रीमती अल्वा का नाम तय करने से पहले उनसे सलाह-मशविरा नहीं किया पूरी तरह तथ्यों के विपरीत है। विपक्षी दलों की इस बारे में प्रत्याशी का नाम तय करने के लिए राष्ट्रवादी कांग्रेस के नेता श्री शरद पवार के नई दिल्ली स्थित निवास पर जो बैठक हुई थी उसका निमन्त्रण तृणमूल कांग्रेस को बाकायदा दिया गया था जिसमें उनकी पार्टी का कोई प्रतिनिधि​ शामिल नहीं हुआ था। परन्तु ममता दी को विपक्षी एकता की पीठ में छुरा घोंपने से क्या हासिल होगा सिवाय इसके कि श्री धनखड़ उपराष्ट्रपति बन जायेंगे। उनके इस पद पर चुने जाने की संभावना तो खींचतान कर तब भी थी जबकि ममता दी के सभी सांसद मार्गरेट अल्वा को ही मत देते। क्योंकि संसद के दोनों सदनों के सदस्यों की संख्या का यदि दल गत आधार पर आंकलन किया जाये तो भाजपा नीत सत्तारूढ़ एनडीए व उसके ‘सुप्त’ सहयोगी दलों के सदस्यों की संख्या समूचे घोषित विपक्षी दलों के सदस्यों से अधिक बैठती है। इसका मतलब यही निकलता है कि ममता दी का मन्तव्य केवल विपक्षी एकता को पलीता लगाना ही था।
 लोकतन्त्र में यह नीयत ठीक नहीं होती है क्योंकि विपक्षी एकता की धनुर्धर बनने की कोशिश कल तक ममता दी स्वयं ही कर रही थीं और विरोधी मोर्चा गठित करने की घोषणाएं करती फिर रही थीं। उनकी इस हरकत से यह आभास होता है कि वह एेसा करके केवल राष्ट्रीय फलक पर अपना नाम चलाना चाहती थीं जबकि उन्होंने स्वयं ही सिद्ध कर दिया है कि वह इसके सर्वथा योग्य नहीं हैं और उनकी निगाह व नीयत और नीति हर तरह से स्वयं को केवल प. बंगाल में ही निर्भय बनाने की है। उपराष्ट्रपति चुनाव को तमाशाइयों की तरह देखने की उनकी घोषणा से स्वयं उनकी ही छवि राजनीति में ‘अवसरवादी’ नेता की बन कर उभर चुकी है। विपक्षी दलों को अब यह सोचने की जरूरत है कि क्षेत्रीय नेताओं को सबसे पहले अपना ‘किला’ बचाने की फिक्र रहती है। उनके सामने लोकतन्त्र को मजबूत करने का लक्ष्य दूसरे पायदान पर रहता है। 
उपराष्ट्रपति चुनाव मे दोनों सदनों के केवल संसद सदस्य ही वोट डालते हैं। यह चुनाव राष्ट्रपति के चुनाव से भिन्न होता है और इस पद की जिम्मेदारी भी भिन्न होती है मगर संविधान के संरक्षण की बराबर की जिम्मेदारी से उप राष्ट्रपति मुक्त नहीं रहते। भारत का लोकतन्त्र सत्ता व विपक्ष के बीच मजबूत सकारात्मक प्रतियोगिता से चलता है। लेकिन ममता दी ने सिद्ध कर दिया है कि उनके लिए सिद्धान्तों का कोई मतलब नहीं है। उन्हें केवल अपनी सत्ता की सुरक्षा से मतलब है। क्या ममता दी भूल सकती हैं कि राष्ट्रपति चुनाव में उन्ही की पसन्द के और उन्ही की पार्टी के नेता यशवन्त सिन्हा को पूरे विपक्ष ने खुले दिल से तब स्वीकार किया था जबकि श्री सिन्हा के प्रति उनके पिछले रिकार्ड को देखते हुए कांग्रेस समेत बहुत से दलों में पूर्वाग्रह भी थे। मगर ममता दी ने तो विपक्ष को ऐसी जगह लाकर छोड़ा है जहां कोई दुश्मन भी नहीं छोड़ता।
‘‘कसम ‘जनाजे’ पे आने की मेरे खाते हैं, जो
हमेशा खाते थे मेरी ‘जान’ की कसम आगे !’’

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