हार-जीत में फंसी ममता दी - Latest News In Hindi, Breaking News In Hindi, ताजा ख़बरें, Daily News In Hindi

लोकसभा चुनाव 2024

पहला चरण - 19 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

102 सीट

दूसरा चरण - 26 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

89 सीट

तीसरा चरण - 7 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

94 सीट

चौथा चरण - 13 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

96 सीट

पांचवां चरण - 20 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

49 सीट

छठा चरण - 25 मई

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

सातवां चरण - 1 जून

Days
Hours
Minutes
Seconds

57 सीट

दूसरा चरण - 26 अप्रैल

Days
Hours
Minutes
Seconds

89 सीट

हार-जीत में फंसी ममता दी

प.बंगाल में अपनी पार्टी तृणमूल कांग्रेस को एतिहासिक विजय दिलाने के साथ ही इस पार्टी की सर्वोच्च नेता व मुख्यमन्त्री सुश्री ममता बनर्जी ‘नन्दीग्राम’ से अपनी सीट हार गई हैं।

प.बंगाल में अपनी पार्टी तृणमूल कांग्रेस को एतिहासिक विजय दिलाने के साथ ही इस पार्टी की सर्वोच्च नेता व मुख्यमन्त्री सुश्री ममता बनर्जी ‘नन्दीग्राम’ से अपनी सीट हार गई हैं। चुनावी राजनीति का यह अन्तर्विरोधी चरम बिन्दू है। इसका अर्थ यह भी है कि ममता दी पूरे राज्य में अजेय होने के बावजूद अपने ही घर में असुरक्षित रहीं परन्तु दूसरा अर्थ यह भी है कि उन्हें नन्दीग्राम की जनता पर अति विश्वास था और भरोसा था कि चुनावों से कुछ समय पहले तक ही उनके सहायक समझे जाने वाले प्रतिद्वन्द्वी शुभेन्दु अधिकारी के प्रति इस क्षेत्र की जनता उनके राज्यव्यापी पराक्रम और तेज को देखते हुए स्वतः ही उनके प्रताप को कम नहीं होने देगी। मगर ऐसा नहीं हो सका और वह मात्र 1736 वोटों से पिछड़ गईं। इस हार के कारणों का बाद में विस्तृत विश्लेषण किया जा सकता है और चुनाव आयोग की भूमिका पर ममता दी ने जो प्रश्न चिन्ह लगाये हैं उनकी समीक्षा तार्किक आधार पर की जा सकती है परन्तु वर्तमान हकीकत यह है कि ममता दी की जिस फौज ने पूरे प. बंगाल में विजय का डंका बजाया है उसका सेनापति अपनी ‘वर्दी’ नहीं संभाल सका। मगर एेसा भी नहीं है कि प.बंगाल में कोई मुख्यमन्त्री पहली बार अपनी चुनावी सीट हारा है। सबसे पहले 1967 में स्व. प्रफुल्ल चन्द्र सेन पद पर रहते हुए कांग्रेसी मुख्यमन्त्री के रूप में कोलकोता की ही ‘आरामबाग’ सीट से अपने ही पुराने मन्त्रिमंडलीय सहयोगी स्व. अजय मुखर्जी से मात्र 876 वोटों से हार गये थे। स्व. अजय मुखर्जी ने तब चुनावों से कुछ समय पहले ही कांग्रेस छोड़कर अपनी अलग ‘बांग्ला कांग्रेस’ बनाई थी। श्री सेन महान स्वतन्त्रता सेनानी थे जिन्हें ‘आरामबाग का गांधी’ कहा जाता था। इसी प्रकार 2011 के विधानसभा चुनावों में जब ममता दी ने राज्य से वामपंथियों का 34 साल पुराना शासन उखाड़ा तो तत्कालीन मार्क्सवादी मुख्यमन्त्री श्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ‘जादवपुर’ चुनाव क्षेत्र में राज्य के पूर्व मुख्य सचिव मनीष गुप्ता से 16 हजार मतों से चुनाव हार गये थे। श्री गुप्ता को तृणणूल कांग्रेस के टिकट पर ममता दी ने ही उतारा था परन्तु इन दोनों हारे हुए मुख्यमन्त्रियों के साथ उनकी पार्टियां भी चुनाव हार गई थीं। 1967 में स्व. सेन के हारने के साथ ही कांग्रेस पार्टी पूरे राज्य में आवश्यक बहुमत पाने में सफल नहीं रही थी जिसकी वजह से श्री अजय मुखर्जी के नेतृत्व में साझा या संविद सरकार बनी थी। इसी प्रकार 2011 में श्री भट्टाचार्य की पार्टी भी चुनाव बुरी तरह हार गई थी। मगर ममता दी के मामले में ऐसा नहीं हैं। उनकी पार्टी ने अपनी विजय के पुराने रिकार्ड (211 विधायक) को भी तोड़ते हुए इन चुनावों में 215 स्थान प्राप्त किये हैं। अतः निश्चित है कि राज्य में पुनः तृणमूल कांग्रेस पार्टी की ही सरकार बनेगी। इन समीकरणों के बीच उनके पुनः मुख्यमन्त्री बनने पर भी कोई सवालिया निशान नहीं है क्योंकि छह महीने तक वह पुनः किसी अन्य स्थान से चुनाव लड़कर इस पद पर बने रह सकती हैं। राज्य विधानसभा में कुल 294 स्थान हैं जिनमें से केवल 292 पर ही चुनाव हुए हैं लेकिन एक सवाल इससे बड़ा पैदा हो रहा है कि इन विधानसभा चुनाव परिणामों का राष्ट्रीय राजनीति पर क्या असर पड़ेगा? जाहिर है कि प. बंगाल के चुनाव विपक्षी भारतीय जनता पार्टी ने अपने राष्ट्रीय नेताओं के बूते पर लड़े थे अतः ममता दी की जीत की प्रतिध्वनि इसी स्तर पर अवश्य सुनाई पड़ेगी। फिलहाल पूरी तरह लावारिस पड़े हुए विपक्ष को ममता दी के रूप में एक ऐसा ध्रुव नजर आ रहा है जिसके चारों तरफ इकट्टा होकर वे अपनी खोई हुई ताकत प्राप्त करने की कोशिश जरूर करेंगे। मगर इसका दारोमदार ममता दी पर ही निर्भर करता है कि वह राष्ट्रीय राजनीति को दिशा देना पसन्द करेंगी अथवा स्वयं को प. बंगाल के दायरे में ही रखेंगी परन्तु उनके तेवरों को देखकर ऐसा नहीं लगता है क्योंकि राज्य के चुनाव परिणामों के साथ ही उन्होंने अन्य 12 विपक्षी दलों के साथ केन्द्र से मांग की है कि देश के सभी 139 करोड़ लोगों को मुफ्त कोरोना वैक्सीन लगाई जाये। वस्तुतः यह जीवन्त लोकतन्त्र की ही निशानी है जिसमें विपक्ष और सत्तारूढ़ दल मिलकर काम करते हैं। यह भारत की लोकतान्त्रिक व्यवस्था की खूबसूरती है कि जो पार्टी राज्य में सत्ता पर आसीन होती है वह केन्द्र में लोकसभा में विपक्षी दलों की बेंचों पर बैठी मिलती है। यह प्रजातन्त्र का वह स्वरूप है जिसके आधार पर लोगों को लगातार सशक्त बनाया जाता है और लोकहित के लिए ही राज्य व केन्द्र सरकारें समर्पित होती हैं। यहां पर विभिन्न राज्यों में हुए इक्का- दुक्का उपचुनावों का जिक्र करना भी सामयिक होगा। राजस्थान में तीन विधानसभा क्षेत्रों में उपचुनाव हुए जिनमें से दो पर कांग्रेस विजयी रही और एक पर भाजपा जीती। मध्य प्रदेश में एक दमोह सीट पर विधानसभा चुनाव हुआ जहां कांग्रेस प्रत्याशी श्री अजय टंडन विजयी रहे। आन्ध्र प्रदेश में तिरुपति लोकसभा सीट पर हुए उपचुनाव में राज्य की सत्तारूढ़ वाई.सी.आर. कांग्रेस के प्रत्याशी डा. गुरुमूर्ति भारी बहुमत से विजयी हुए और उन्होंने विपक्षी तेलगू देशम के प्रत्याशी को पछाड़ा। तेलंगाना की नागार्जुनसागर विधानसभा सीट पर सत्तारूढ़ तेलंगाना राष्ट्रीय समिति का प्रत्याशी जीता। मगर महाराष्ट्र के शोलापुर जिले की पंढरपुर सीट पर भाजपा का प्रत्याशी सत्तारूढ़ राष्ट्रवादी कांग्रेस के प्रत्याशी पर भारी पड़ा। इन उपचुनावों का एक मतलब निकाला जा सकता है कि इन क्षेत्रों के मतदाताओं के दिमाग में पांच अन्य राज्यों में चल रहे चुनावों का कोई असर नहीं था। यह मतदाताओं के लगातार सुविज्ञ होने का द्योतक भी माना जायेगा। मगर समग्रता में पांच राज्यों के चुनाव परिणामों से इतना जरूर कहा जा सकता है कि प. बंगाल से एक चिंगारी उठी है जिसकी चमक से पूरा राजनैतिक माहौल हतप्रभ है। इसके साथ ममता दी के अपना चुनाव हारने का मन्तव्य यही निकलता है कि लोकतन्त्र में ठीक संविधान के उपबन्धों के निर्देशों के तहत ही ‘निरापद’ कोई भी नहीं है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

15 − 6 =

पंजाब केसरी एक हिंदी भाषा का समाचार पत्र है जो भारत में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली के कई केंद्रों से प्रकाशित होता है।