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महाराष्ट्र में जनादेश का अपमान हुआ

सियासत संभावनाओं का खेल होती है। सत्ता का मोह दोस्त को दुश्मन बना देता है और दुश्मनों को दोस्त बना देता है। महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना का गठबंधन मुख्यमंत्री पद को लेकर संघर्ष के चलते टूट गया।

सियासत संभावनाओं का खेल होती है। सत्ता का मोह दोस्त को दुश्मन बना देता है और दुश्मनों को दोस्त बना देता है। महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना का गठबंधन मुख्यमंत्री पद को लेकर संघर्ष के चलते टूट गया। हिंदुत्व की विचारधारा पर समान रुख होने के चलते 1989 में दोनों राजनीतिक दल एक साथ आए। 
शिवसेना के संस्थापक बाला साहेब ठाकरे ने 1989 में भाजपा के साथ गठबंधन किया था। इस गठबंधन के लिए उस समय के भाजपा के दिग्गज नेता रहे स्वर्गीय  प्रमोद महाजन ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। दोनों राजनीतिक दलों को इस बात का अहसास रहा कि हिंदुत्व की विचारधारा के चलते वह एक-दूसरे का विकल्प नहीं बन सकते। वह एक-दूसरे के पूरक हो सकते हैं। 
अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण अडवानी के संबंध भी बाला साहेब ठाकरे के साथ काफी मधुर रहे। दोनों दलों ने 1989 और 1990 का महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव मिलकर लड़ा और अपनी-अपनी सीटों में बढ़ौतरी कर ली। गठबंधन के बावजूद कई मौके ऐसे आए जब भाजपा और शिवसेना में अनबन नजर आई। 1995 के महारष्ट्र विधानसभा चुनाव में कांग्रेस भले ही सबसे बड़े दल के रूप में उभरी लेकिन सरकार बनाई शिवसेना और भाजपा ने। जब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए की सरकार बनी तब भी शिवसेना कोटे से दो कैबिनेट और एक राज्य मंत्री रहे। 1999 के बाद महाराष्ट्र में शिवसेना और भाजपा विपक्ष में भी रहे और यूपीए शासन में भी शिवसेना भाजपा के साथ खड़ी रही। 
2014 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में भाजपा-शिवसेना में बात नहीं बन पाई और दोनों ने अलग-अलग चुनाव लड़ा। चुनाव के बाद शिवसेना फिर भाजपा सरकार में शामिल हो गई। राज्य सरकार में भी मंत्री पद लेे लिए और केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार में भी लेकिन पूरे शासनकाल में शिवसेना नोटबंदी, जीएसटी और अन्य कई मुद्दों पर भाजपा सरकार की आलोचना करती रही और उसने राज्य में देवेंद्र फड़णवीस सरकार की नाक में दम किये रखा। 
यद्यपि दोनों दलों ने इस बार भी महाराष्ट्र विधानसभा गठबंधन बना कर लड़ा। इस बार सबसे बड़ा फेरबदल यह हुआ कि यद्यपि भाजपा ने शिवसेना को कम सीटें दी लेकिन ठाकरे परिवार के किसी सदस्य ने पहली बार चुनावी सियासत में भाग लिया। शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे के बेटे आदित्य ठाकरे ने वर्ली विधानसभा सीट से चुनाव जीतकर सियासत में एंट्री मारी। तब से ही शिवसेना ने अपना मुख्यमंत्री होने का दावा जताना शुरू कर दिया। 50-50 फार्मूले पर रार के चलते भाजपा ने अंततः महाराष्ट्र में सरकार बनाने के लिए अपने कदम वापस खींच लिये और उधर सत्ता पाने की लालसा में शिवसेना ने दिग्गज मराठा क्षत्रप शरद पवार और कांग्रेस से पींगे बढ़ा ली। 
शिवसेना के संजय राउत का यह बयान अपने आप में बहुत कुछ कहता है कि विचारधारा अलग-अलग हो सकती है लेकिन महाराष्ट्र में कांग्रेस दुश्मन नहीं है। शिवसेना प्रमुख रहे बाला साहेब ठाकरे अपने कार्टूनों से इंदिरा गांधी को खूब निशाना बनाया करते थे। इसके बाद भी शिवसेना ने कांग्रेस से हाथ मिलाया था। 1995 में बाला साहेब ठाकरे ने इंदिरा गांधी द्वारा लगाई गई इमरजैंसी का समर्थन करके सबको मौका दिया था। 
बुजुर्ग राजनीतिक जानते हैं​ कि कांग्रेस ने ही कम्युनिस्टों के खिलाफ लड़ने के लिए शिवसेना को खड़ा होने में मदद की थी। 1980 में शिवसेना ने कांग्रेस का लोकसभा में समर्थन किया था। तब बाला साहेब ने कांग्रेस के मुकाबले शिवसेना का कोई प्रत्याशी खड़ा नहीं किया था। दो कांग्रेस उम्मीदवारों श्रीमती प्रतिभा पाटिल और प्रणव मुखर्जी का राष्ट्रपति चुनाव में समर्थन ​भी किया था। महाराष्ट्र में सरकार किसी की भी बने या मामला अधर में लटका रहे लेकिन एक बात स्पष्ट है कि लोकतंत्र के साथ बड़ा धोखा हुआ है। 
राकांपा और कांग्रेस गठबंधन ने मिलकर भाजपा-शिवसेना गठबंधन के खिलाफ चुनाव लड़ा है। राकांपा और कांग्रेस दोनों ने ही शिवसेना को जमकर कोसा है। जनादेश भाजपा-शिवसेना गठबंधन के पक्ष में आया ​था लेकिन मुख्यमंत्री पद और मलाईदार मंत्रालयों के चक्कर में जनादेश का अपमान कर दिया गया। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में जनादेश की क्या हालत राजनीतिक दलों ने कर दी है, महाराष्ट्र की जनता भी ठगी हुई महसूस कर रही है। कुछ लोग जरूर कहते हैं कि भाजपा अगर अपनी धुर विरोधी पीडीपी की महबूबा मुफ्ती से गठबंधन सरकार बना सकती है तो महाराष्ट्र में भी धुर विरोधी इकट्ठे हो जाएं  कोई आश्चर्य नहीं। सत्ता में बहुत-बहुत खेल होते हैं लेकिन जनादेश को ठेंगा दिखा दिया गया। 

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