मणिपुर को मणियों की भूमि कहा जाता है। यह राज्य समृद्ध घाटियों की धरा है जो सुंदर पहाडियों और झीलों से घिरी हुई है। मणिपुर 1891 में ब्रिटिश राज्य के अंतर्गत एक रियासत थी। वर्ष 1947 में मणिपुर संविधान अधिनियम के अंतर्गत महाराजा को कार्यकारी प्रमुख बनाते हुए एक लोकतांत्रिक सरकार स्थापित की गई। 21 जनवरी 1972 को भारत में एकीकरण के साथ यह क्षेत्र पूर्ण राज्य बन गया। प्राकृतिक सौंदर्य के लिए पहचाना जाने वाला मणिपुर एक संवेदनशील सीमांत राज्य भी है। सामरिक दृष्टिकोण से भी इस राज्य का अपना महत्व है। राज्य में बड़े पैमाने पर हिंसा से न केवल राज्य सरकार चिंतित है बल्कि केंद्र सरकार के लिए भी बड़ी परेशानी का सबब है। गृहमंत्री अमित शाह राज्य के मुख्यमंत्री एन.वीरेन सिंह से संपर्क बनाए हुए हैं और स्थिति पर नजर रखे हुए हैं। मणिपुर में गत बुधवार से ही जमकर हिंसा हुई। हालात इतने गंभीर हुए कि आठ जिलों में कर्फ्यू लगा दिया गया। देखते ही देखते धर्मस्थलों, घरों, वाहनों और सरकारी सम्पत्ति को आग के हवाले कर दिया गया। दस हजार के करीब लोगों को हिंसा प्रभावित इलाकों से निकालकर राहत शिविरों में भेजा गया। मणिपुर के हालात को देखते हुए वहां जाने वाली कई ट्रेनें रद्द कर दी गईं। इंटरनेट सेवाएं ठप्प हैं। अब सवाल यह है कि मणिपुर आखिरकार जला क्यों? हालत इतनी तेजी से क्यों बिगड़े कि दंगाइयों को देखते ही गोली मारने के आदेश देने पड़े।
मणिपुर के धूं-धूं जलने के पीछे आदिवासियों और गैर आदिवासियों के बीच वर्चस्व की जंग है। यह जंग सालों पुरानी है। जो राख में दबी चिंगारियों के आग की लपटों में बदल गई। आदिवासी और गैर आदिवासी लोग आपस में क्यों लड़े। इसके पीछे भी दोनों के अपने-अपने तर्क हैं। मणिपुर के तीन प्रमुख समुदाय हैं मैतेई, नागा और कुकी। आदिवासी समुदाय नागा और कुकी हैं जबकि मैतेई गैर अदिवासी समुदाय है। मणिपुर में आदिवासी समुदायों के लिए कुछ प्रावधान भी किए हैं, इसके तहत राज्य के आदिवासी लोग पहाड़ी इलाकों और घाटी में दोनों ही जगह बिना रोक-टोक बस सकते हैं, जबकि गैर-आदिवासी समुदाय को सिर्फ घाटी में रहने की ही अनुमति है। राज्य में 90% पहाड़ी इलाका और बाकी बचा 10% घाटी है। संख्याबल के हिसाब से बात की जाए, तो मणिपुर में 53% से ज्यादा आबादी मैतेई समुदाय की है, जबकि नागा और कुकी समुदाय की आबादी 40 फीसदी के आसपास है, तो एक तरह से इसे वर्चस्व की लड़ाई भी कहा जा सकता है।
मैतेई समुदाय पिछले करीब 10 सालों से अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिए जाने की मांग कर रहा है। इसी कड़ी में मैतेई ट्राइब यूनियन ने मणिपुर हाईकोर्ट का रुख किया और अदालत के सामने मांग रखी कि वो राज्य सरकार को उनकी मांग पर विचार करने का निर्देश दे और इसके लिए राज्य केंद्रीय जनजातीय मामलों के मंत्रालय को एक सिफारिश भी भेजे। इस मामले की सुनवाई के बाद ही पिछले महीने अदालत ने अपना फैसला मैतेई समुदाय के पक्ष में सुनाया और राज्य सरकार से केंद्र को सिफारिश भेजने और उनकी मांग पर विचार करने को कहा। कोर्ट ने राज्य सरकार से कहा कि वो 4 महीने के भीतर केंद्र को सिफारिश भेजे।
कोर्ट के इस फैसले के विरोध में ऑल ट्राइबल स्टूडैंट यूनियन ऑफ मणिपुर ने आदिवासी एकता मार्च निकाला और इस दौरान हिंसा भड़क उठी। दोनों ही पक्ष अपने-अपने पक्ष में तर्क देते हैं। मैतेई समुदाय का कहना है कि 1949 में भारत के साथ रियासत के विलय से पहले मैतेई समुदाय को आदिवासी समुदाय के रूप में मान्यता दी गई थी लेकिन विलय के बाद इसने अपनी आदिवासी पहचान खो दी। समुदाय का कहना है कि वह एसटी का दर्जा सिर्फ नौकरियों और शिक्षा संस्थानों में आरक्षण के लिए नहीं मांग रहा बल्कि यह पैतृक सम्पत्ति, संस्कृति और पहचान का मसला है। वहीं दूसरी ओर आदिवासी समुदाय का कहना है कि मैतेई समुदाय जनसंख्या में ज्यादा है और राजनीित में इस समुदाय का प्रभुत्व है क्योंकि राज्य में 60 में 40 विधानसभा सीटें घाटी में हैं। आदिवासियों को डर है कि मैतेई समुदाय आदिवासी समुदाय को मिलने वाली नौकरियों और अन्य लाभ छीन सकता है। मैतेई घाटी में रहते हैं और वे बहुसंख्यक हैं लेकिन जिनकी आबादी कम है उनके अधिकारों की भी रक्षा होनी चाहिए। पहाड़ी जिलों के आदिवासियों के अधिकार नहीं छीने जाने चाहिए।
एक बड़ी चिंता यह भी है कि पहाड़ी जिलों में 40 फीसदी आबादी इसाई है। मणिपुर के पहाड़ी जिलों को ग्रेटर नागालैंड में शामिल करने की मांग काफी पहले से हो रही है। मैतेई समुदाय के दबदबे से बचने के लिए मणिपुर के पहाड़ी जिलों के अधिकांश लोग ग्रेटर नागालैंड में शामिल होने के इच्छुक हैं। आदिवासी समूहों को लगता है कि अगर मैतेई समुदाय को जनजाति का दर्जा मिला तो वे पहाड़ों पर भी जमीन खरीदना शुरू कर देंगे इससे आदिवासी हाशिए पर चले जाएंगे। मणिपुर में अवैध घुसपैठ की समस्या तो कई सालों से बनी हुई है। राज्य की भाजपा सरकार को चाहिए कि वह जन भावनाओं का सम्मान करते हुए सभी समुदायों को विश्वास में ले और किसी के अधिकार छीनने की आकांक्षाओं को समाप्त किया जाए। पूर्वोत्तर भारत के जनजातीय समुदाय अपनी अलग संस्कृति और पहचान बनाए रखने के मामले में काफी संवेदनशील है। इसलिए कई बार पूर्वोत्तर भारत के राज्य जल उठते हैं। राज्य सरकार को बहुत ही सावधानी से काम करना होगा।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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