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बाजारवाद और मजबूत भारत ?

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बिना शक स्वतन्त्र भारत के ताजा इतिहास का वह दौर अब पचास साल से ज्यादा पुराना हो चुका है जब स्वतन्त्र पार्टी के नेता स्व. मीनू मसानी ने 1967 के आम चुनाव के दौरान यह हुंकार लगाई थी कि ‘‘नेहरू का समाजवाद दम तोड़ रहा है।’’ उस समय भारत में बेरोजगारी इसकी जनसंख्या 66 करोड़ के लगभग को देखते हुए उफान पर थी और कृषि क्षेत्र में विकास की दर दो प्रतिशत से थोड़ी ज्यादा थी, आम लोगों में अजीब सी कसमसाहट थी, उत्तर भारत व दक्षिण भारत के बीच की दूरी हिन्दी भाषा को लेकर थोड़ी बढ़ी सी लग रही थी। भारत के हर प्रदेश में सत्ता पर बैठी हुई कांग्रेस पार्टी की नीतियों के प्रति जनता में उदासीनता का भाव जागने लगा था और लोगों को लग रहा था कि संभवतः दूसरे राजनीतिक दलों की नीतियों के तहत उनका विकास तेजी के साथ हो सकता है अतः लोकसभा चुनावाें में कांग्रेस को मामूली बहुमत प्राप्त हुआ और नौ राज्यों में इसकी सत्ता समाप्त हो गई। इसके बाद 1990 तक यह देश कमोबेश नेहरू के रास्ते पर ही चलकर अपनी राह ढूंढता रहा क्योंकि 1970 के आते–आते स्व. इंदिरा गांधी ने उन्हीं समाजवादी नीतियों को आक्रामक रूप से लागू किया जिन्हें नेहरूवादी नीतियां कहा जाता था परन्तु 1990 के आते–आते देश के राजनीतिक तेवर बदल गए और इस कदर बदले कि लोग ‘समाजवाद’ के स्थान पर ‘बाजारवाद’ की बात करने लगे और सोचने लगे कि जिस पूंजीवाद के विरोध में भारत की राजनीति अभी तक घूमती रही है, वह व्यावहारिक रूप से तार्किक न होकर दार्शनिक ज्यादा थी क्योंकि इसमें उन्मुक्त व्यापार करने की प्रणाली पर जगह–जगह बेडि़यां पड़ी हुई थीं।

इंस्पैक्टर और लाइसैंस राज के चलते भारत के लोगों की उन अपेक्षाओं को दबाकर रखा गया था जो उन्हें आधुनिक जीवन जीने के ​लिए उकसा रही थीं। अतः डा. मनमोहन सिंह को वित्त मन्त्री बनाकर 1991 में प्रधानमन्त्री पी.वी. नरसिम्हा राव ने खुलकर नेहरू की नीतियों को तिलांजलि दे दी और पूंजीमूलक या बाजारमूलक अर्थव्यवस्था का रास्ता खोलकर भारत के लोगों को विकास का सपना दिखाया। इस सपने ने जब जमीन पर उतरना शुरू किया तो भारत में लाइसैंस व इंस्पैक्टर राज के खात्मे की घोषणा की गई और कहा गया कि जब पूंजीपतियों को मनचाही फैक्टरी खोलने और मनचाहा उत्पाद बनाने की छूट मिलेगी तो नौकरियों की बाढ़ आ जाएगी। बाजार में प्रतियोगिता की वजह से उच्च गुणवत्ता का माल सस्ते में मिलेगा, जो व्यक्ति अपनी जरूरत के लिए टेलीफाेन से लेकर वाहन खरीदने का इच्छुक होगा उसे सरकारी दफ्तरों के चक्कर नहीं काटने पड़ेंगे। राशन की दुकानों के आगे लम्बी–लम्बी लाइनें खत्म हो जाएंगी। भारत में विदेशी कम्पनियां आकर अपनी फैक्टरियां खोलेंगी उनमें रोजगार भारतीयों को ही मिलेगा। जितना उत्पादन बढ़ता जायेगा उतना ही भारत मालदार होता जायेगा। गरीबी कम होती जायेगी और गरीब का बच्चा भी उस विकास का हकदार बनेगा जिस पर अभी अमीरों का हक रहा है। बिना शक पिछले लगभग 36 साल से यही हो रहा है, भारत में एक से बढ़कर एक नई कार के माडल सड़कों पर दौड़ रहे हैं। बैंकों ने ऋण देने के लिए अपने खजाने खोले हुए हैं।

मध्यम वर्ग का व्यक्ति अपने भौतिक सुखों के सपने साकार कर रहा है। वह जितना कमाता है उससे ज्यादा का खर्च अपने पल्ले बांध कर जीवन जीने का अभ्यस्त हो चुका है। शहरों में ऊंची अट्टालिकाओं का इस प्रकार जाल खड़ा होता जा रहा है जैसे ततैयों का छत्ता हो। सरकार ने आधारभूत ढांचागत सुविधाएं खड़ी करने का नया पीपीपी (पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप) माडल निकाल लिया है। हमारी विकास दर बढ़कर एक बार तो नौ प्रतिशत से भी ऊपर हो गई थी। इस व्यवस्था के चलते भारत का पूंजी बाजार (शेयर बाजार) छलांगें लगाने लगा। आम मध्यम वर्ग का व्यक्ति शेयरों में निवेश करने लगा मगर इतना सब कर देने के बावजूद हमें जो 36 वर्ष बाद आज मिला है वह लगातार बढ़ती हुई बेरोजगारी आैर महंगाई मगर भारत की अर्थव्यवस्था की रीढ़ समझी जाने वाली कृषि को इस नई व्यवस्था ने इस कदर लावारिस बनाकर छोड़ डाला कि हर साल किसान हजारों की संख्या में आत्महत्या करने लगे। औद्योगिक उत्पादों के मूल्य और कृषि उत्पादों के मूल्य का अन्तर लगातार बढ़ता चला गया और सुदूर गांवों में रहने वाले खेती पर निर्भर लोग शहरों में आकर मजदूरी करने को लाचार होने लगे। इसने सामाजिक विषमता को पहले से ज्यादा बढ़ा डाला बेशक गांवों में भी आज मोटरसाइकिलों ने दोपहिया साइकिलों की जगह ले ली है मगर इन्हें चलाने के लिए बढ़ते आर्थिक बोझ से भारत के आम आदमी की घरेलू बचत सिकुड़ती जा रही है।

बाजारमूलक बैंकिंग व्यवस्था ने छोटी–छोटी घरेलू बचतों को चाट लिया है। इन्हीं घरेलू बचतों की वजह से भारत ने शुरू के पचास साल तक अपना विकास इस प्रकार किया कि प्रतिवर्ष साढ़े तीन प्रतिशत वृद्धि दर के बावजूद इसने स्वयं को दुनिया का सबसे बड़ा मध्यम वर्ग का उपभोक्ता बाजार बना डाला मगर अब ये बचतें शेयर बाजार की तरफ भी रुख कर रही हैं जिनका लाभ चन्द कम्पनियों को पहुंच रहा है जिनका देश के विकास से कोई लेना–देना नहीं है। कम्पनी विकास कभी भी भारत विकास का पर्याय नहीं बन सकता। सवाल किसी भी सिद्धान्त या वाद का नहीं है बल्कि भारत के आम आदमी को मजबूत बनाने का है। निश्चित रूप से यह मजबूती बाजार की उन शक्तियों की गुलाम नहीं हो सकती जिनका अन्तिम लक्ष्य अधिक से अधिक मुनाफा कमाना होता है अतः जिस तरह मीनू मसानी की नजर में 1967 में समाजवाद दम तोड़ता लग रहा था ठीक वैसे ही आज ‘बाजारवाद’ दम तोड़ने की मुद्रा में आता जा रहा है अतः इसके आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक परिणामों से हम अलग नहीं रह सकते हैं।

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