इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अन्तरजातीय व अन्तधार्मिक विवाहों के सम्बन्ध में क्रान्तिकारी फैसला देकर देश की नई पीढ़ी के सामाजिक रूढि़यों को तोड़ने का मार्ग प्रशस्त करते हुए विवाह को निजी स्वतन्त्रता का दायरा मानते हुए जीवन साथी को चुनने के मौलिक अधिकार में किसी भी प्रकार के अवरोध को गैर कानूनी करार दिया है और कहा है कि भारत के विशेष विवाह अधिनियम ( स्पेशल मैरिज एक्ट-1954) के तहत प्रणय सूत्र में बन्धने वाले किन्हीं भी दो वयस्क व्यक्तियों को एक महीना पूर्व इसकी सार्वजनिक सूचना देना जरूरी नहीं है। यह नियम अनिवार्य नहीं है क्योंकि ऐसा करने से नागरिक के निजी जीवन जीने के मौलिक अधिकार का हनन कुछ अन्य लोगों के हस्तक्षेप की वजह से हो सकता है। विद्वान न्यायाधीश श्री विवेक चौधरी ने अपने फैसले में कहा है कि विवाह कानून की धारा 5 के अनुसार किन्हीं भी दो धर्मों के अनुयायी दो वयस्क अपनी इच्छानुसार इस नियम के तहत विवाह कर सकते हैं। अपने इस फैसले की जानकारी उन्हें एक माह पूर्व सार्वजनिक करने का भी विधान है। उसकी यह सूचना विवाह अधिकारी के दफ्तर के बाहर लगे नोटिस बोर्ड पर लगा दी जाती है। मगर इसी कानून की दफा 6 और 7 के साथ दफा 46 को पढ़ने पर साफ है कि यह कार्य इस तरह होना चाहिए जिससे विवाह करने वाले युगल के मौलिक अधिकारों का संरक्षण काबिज रहे और उनका हनन न हो सके। अतः आज के बदले हुए सामाजिक हालात में एक महीने पहले नोटिस देना मौलिक अधिकारों में अतिक्रमण होगा क्योंकि निजता का अधिकार भी सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मौलिक अधिकार करार दिया जा चुका है और अपनी इच्छा का जीवन साथी चुनना इसी दायरे में आता है जिसमें न तो कोई सरकार या गैर सरकारी संगठन अथवा लोग अवरोध पैदा कर सकते हैं।
विद्वान न्यायाधीश ने इसके साथ यह भी स्पष्ट किया कि यदि विवाह करने वाले दोनों व्यक्तियों में से कोई एक अपने फैसले को दूसरे साथी की विस्तृत जानकारी पाने की इच्छा से सार्वजनिक करना चाहता है तो वह ऐसा करने के लिए स्वतन्त्र होगा। उच्चतम न्यायालय का फैसला ऐसे समय में आया है जब कुछ सामाजिक ठेकेदार अन्तरधार्मिक शादीशुदा जोड़ों के खिलाफ भी अभियान छेड़े हुए हैं और उन्हें डराने-धमकाने से भी बाज नहीं आ रहे हैं। ये जोड़े वर्षोंं से आराम से जी रहे हैं और इनके जीवन में अलग-अलग धर्म होने से कभी कोई कड़वाहट नहीं आयी लेकिन पिछले एक वर्ष के दौरान ही भारत के कई राज्यों में ‘लव जेहाद’ नाम पर ऐसे कानून बने हैं जिनमें अन्तरधार्मिक जोड़े के विवाहों को धर्म परिवर्तन से जोड़ा जा रहा है।
उत्तर प्रदेश में बने नये कानून के अनुसार अन्तरधार्मिक जोड़ों को दो माह पहले अपने फैसले की सूचना जिला मैजिस्ट्रेट के कार्यालय में देनी होगी जिससे पुलिस पूरी छानबीन करके यह पता लगा सके कि विवाह का उद्देश्य धर्म परिवर्तन तो नहीं है। हालांकि महत्वपूर्ण यह है कि भारत में स्पेशल मैरिज एक्ट सबसे पहले अंग्रेजी राज में 1872 में बना था जिसमें समय-समय पर परिवर्तन और संशोधन होते रहे मगर 1954 में इसमें स्थायी परिवर्तन हुए। इसके बावजूद इस कानून में अंग्रेजी राज के कुछ संरक्षणवादी तत्व बने रह गये। न्यायाधीश चौधरी ने इसी सन्दर्भ में एक महीने पहले नोटिस जारी करने की प्रथा का संज्ञान लेते हुए स्पष्ट किया कि नोटिस देने की यह प्रथा पूरी तरह मौलिक अधिकारों का हनन है जो धर्मनिरपेक्ष संविधान के तहत अन्तरधार्मिक विवाहों में रोड़ा अटकाने का काम करती है। उच्च न्यायालय ने यह फैसला साफिया सुल्ताना की याचिका पर सुनाया है जिन्होंने हिन्दू रीति से अभिषेक कुमार पांडेय से विवाह करने के लिए अपना धर्म परिवर्तन करके हिन्दू धर्म अपना लिया था और अपना नाम सिमरन रख लिया था। सिमरन ने अपने पिता के खिलाफ शिकायत दर्ज की थी कि उन्होंने उसके विवाह को स्वीकार नहीं किया और उसे अपनी कैद में रखा। न्यायालय ने सिमरन व उसके पिता के बयानों से नतीजा निकाला कि सिमरन और अभिषेक ने अपनी मर्जी से शादी की। मगर न्यायालय को इससे यह भी पता चला कि सिमरन और अभिषेक दिली तौर पर स्पेशल मैरिज एक्ट के अनुसार ही विवाह करना चाहते थे मगर पहले नोटिस जारी करने की मजबूरी की वजह से वे ऐसा नहीं कर सके। जिसकी वजह से उन्हें धर्म परिवर्तन करके शादी करना ज्यादा सुविधाजनक लगा। न्यायालय ने यह भी पाया कि जब किसी भी धर्म के विवाह नियमों (पर्सनल लाॅ) के तहत एक महीने पहले विवाह करने की सूचना देना लाजिमी नहीं है तो धर्मनिरपेक्ष कानून के तहत बने स्पेशल मैरिज एक्ट के अन्तर्गत यह शर्त क्यों लागू हो ? जबकि देश में अधिसंख्य विवाह धार्मिक रीति-रिवाज के अनुसार ही होते हैं। जिनमें किसी की असहमति की कोई गुंजाइश नहीं होती जबकि विशेष विवाह अधिनियम में किन्हीं दो व्यक्तियों के विवाह करने पर आमजनों की असहमति आमन्त्रित की जाती है। अतः ऐसा नियम विवाह सूत्र में बन्धने वाले दोनों व्यक्तियों के मौलिक अधिकारों के हनन के समकक्ष ही रख कर देखा जाना चाहिए। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के इस फैसले से साफ हो गया है कि उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा बनाया गया नया धर्म परिवर्तन कानून संविधान की परीक्षा शायद ही उत्तीर्ण कर सके।