अमेरिका का सिएटल जाति के आधार पर भेदभाव पर प्रतिबंध लगाने वाला पहला शहर बन गया है। सिएटल सिटी काउंसिल ने एक ऐसे अध्यादेश को मंजूरी दी है िजससे अब नस्ल, धर्म, और लैंगिक पहचान के साथ-साथ जाति के आधार पर भी किसी तरह के भेदभाव को प्रतिबंधित कर दिया गया है। यह प्रस्ताव काउंसिल की एक सदस्य क्षमा सावंत ने पेश किया था जिस पर बहस भी हुई और मतदान के बाद इस प्रस्ताव को स्वीकार भी कर लिया गया। इसके साथ ही जातिगत श्रेणियों के आधार पर वंचित जाति समूहों को एक संरक्षित वर्ग के रूप में रेखांकित भी किया गया है। सिएटल एक टेक हब है जहां बहुत सारी नामी-गिरामी टेक कंपनियां हैं और दक्षिण एशियाई जनसंख्या भी काफी है। दक्षिण एशियाई मूल के लगभग 2 लाख लोग वहां रहते हैं। इनमें से अनेक लोगों ने अपने व्यवसाय भी स्थापित कर लिए। आम भारतीय के लिए यह खबर बहुत अनोखी है कि क्या अमेरिका में भी जातीय आधारित व्यवस्था और भेदभाव होता है। अमेरिका में नस्लभेद और रंगभेद के आधार पर भेदभाव होता आया है। लम्बे समय तक अश्वेत गोरों के गुलाम रहे। अमेरिका में अश्वेतों से भेदभाव, उनकी हत्याएं मारपीट की घटनाएं आज भी होती हैं और नस्लभेद के चलते अमेरिका के कई शहर बार-बार सुलग उठते हैं। यद्यपि अमेरिका में नस्लीय भेदभाव को लेकर काफी सख्त कानून हैं लेकिन अपवाद स्वरूप दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं होती रहती हैं। अब सवाल यह है कि भारत में जातिवाद सदियों से गहरी जड़ें जमाए हुए हैं। लाख कोशिशें करने के बावजूद भारत में जातिवाद समाप्त नहीं हुआ। हर कोई इस बात को जानना चाहता है कि अमेरिका के सिएटल में जातिवाद के नाम पर भेदभाव कैसे पहुंच गया। जाति आधारित उत्पीड़न और भेदभाव की ऐसी अनेक कहानियां अमेरिकी समाज में मौजूद हैं जिसमें उत्पीड़न करने वाले कोई और नहीं बल्कि भारतीय मूल के उच्च जाति के लोग हैं। जैसे-जैसे अमेरिका में भारतीयों की आबादी बढ़ती गई उनमें आपसी स्पर्धा और ईर्ष्या भी बढ़ती गई। बड़े-बड़े पदों पर भारतीय विराजमान हैं। धीरे-धीरे जातिवाद का जहर वहां भी फैलने लगा।
कैलिफोर्निया, फ्लोरिडा और सिएटल जैसी जगहें जहां दक्षिण एशियाई लोग बहुतायत में हैं, यह सवाल विशेष रूप से प्रासंगिक है। कुछ वक्त पहले कैलिफोर्निया की ही एक कंपनी सिस्को सिस्टम्स में काम करने वाले एक दलित ने आरोप लगाया था कि उसकी जाति के कारण कंपनी में उसके साथ भेदभाव किया जा रहा है। कैलिफोर्निया स्टेट कोर्ट में अब इस मामले की सुनवाई होने वाली है। सिएटल के नए नियम के बारे में बात करते हुए अमेरिकी मीडिया लिखता है कि आज भारतीय अमेरिका के सबसे तेजी से बढ़ते हुए अप्रवासी समूह है। उनकी संख्या बढ़ने के साथ अमेरिकी समाज में भी इस तरह का भेदभाव, उत्पीड़न, हिंसा और पूर्वाग्रह बढ़ सकता है जो आने वाले समय में अमेरिकी समाज के लिए खतरा हो सकता है।
जहां अप्रवासी भारतीय और दक्षिण एशियाई लोग पहले से ही अल्पसंख्यक हैं वहां दलित लोग अल्पसंख्यकों के बीच भी अल्पसंख्यक हैं। सिएटल में अध्यादेश कोई रातों-रात नहीं आया। इसकी मांग लम्बे समय से की जा रही थी। इकवेलिटी लेन नामक संस्था ने सोशल सर्वे किए। सोशल सर्वे में बड़ी संख्या में जातिगत भेदभाव का शिकार लोगों की शिकायतें दर्ज की गई। यह पाया गया कि नौकरियों और शिक्षा में जातिगत भेदभाव हो रहा है। होटलों, अस्पतालों और अन्य सार्वजनिक संस्थानों पर भी ऐसा हो रहा है। इसके बाद सिएटल सिटी काउंसिल इस नतीजे पर पहुंची कि यह एक गंभीर समस्या है जो समाज के लिए घातक सिद्ध हो सकती है। इसमें कोई संदेह नहीं कि जाति व्यवस्था की शुरुआत प्राचीन भारत में हुई है। आज भी भारत में सभी धर्मों में जातीय विभाजन मौजूद है। अमेरिकी मीडिया इन दिनों भारत के हिन्दू समाज जातिगत आधारित भेदभाव की कहानियां प्रकाशित कर रहा है। इसे लेकर भारतीयों को भी मंथन करने की जरूरत है। बाबा साहब बी.आर. अम्बेडकर ने भारतीय संविधान की रचना की थी जिसमें जाति आधारित भेदभाव और उत्पीड़न को समाप्त करने के लिए अनेक कदम उठाए गए थे लेकिन भारतीय अभी तक जातिवादी मानसिकता से अलग नहीं हो पाए।
सिएटल सिटी काउंसिल में जातिवाद भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाने वाली क्षमा सावंत भी भारतीय मूल की हैं और स्वयं उच्च जाति की हैं। वह एक शिक्षक और अर्थशास्त्री के साथ-साथ सामाजिक कार्यकर्ता है। जातिगत भेदभाव के खिलाफ उन्होंने श्रमिकों, दबे-कुचले और बेजुबानों की आवाज बनने का संकल्प लिया। क्षमा सावंत का भारत में बचपन हमेशा अपने आसपास अत्याधिक गरीबी और असमानता देखने में बीता। अर्थशास्त्र का अध्ययन करने के लिए जब वह अमेरिका आई तो यहां मौजूद असमानता और गरीबी देखकर वह हैरान रह गई। उन्होंने कई आंदोलनों में भाग लिया और वह लगभग 16 सालों से डेमोक्रेट को हराकर सिएटल में चुनी जाने वाली पहली समाजवादी बनीं। सिएटल में जातिगत भेदभाव विरोधी अधिनियम के पारित हो जाने से क्या भारतीयों को कोई सबक या संदेश मिलेगा? प्रख्यात समाजवादी चिन्तक राममनोहर लोहिया ने हमेशा जाति तोड़ो का नारा दिया। हैरानी की बात तो यह है कि भारतीय सात समुंदर पार जाकर भी जातिवादी मानसिकता से अपना पिंड नहीं छुड़ा पाए। अगर सिएटल शहर जातिवाद की जड़ें काटने के लिए कानून बना सकता है तो भारतीयों के सामने दीवारें क्यों हैं। इसके लिए भारतीय राजनीतिक दल भी काफी हद तक जिम्मेदार हैं जो आज तक जातिगत राजनीति से अलग नहीं हो पाये।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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