मोदी मंत्रिमंडल के आज हुए विस्तार से यह संदेश गया है कि सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा अपने बूते पर आगामी लोकसभा चुनाव जीतने की रणनीति बना रही है। नए मंत्रियों में किसी भी सहयोगी दल के प्रतिनिधि को शामिल न करके पार्टी ने संकेत दिया है कि देश से साझा सरकारों की मजबूरी का दौर समाप्त हो रहा है और एकनिष्ठ पार्टी व नेता का नया दौर शुरू हो चुका है मगर यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि स्वयं भारतीय जनता पार्टी के भीतर ही राजनीतिक प्रतिभा का अकाल होने का संदेश भी इस विस्तार से चला गया है। आज शामिल किए गए नौ मंत्रियों में से तीन मंत्री पूर्व नौकरशाह हैं। इसके साथ ही निर्मला सीतारमण को रक्षा मंत्री बनाकर प्रधानमंत्री ने पुरानी परंपरा को तोड़ा है कि किसी पुरुष को ही राष्ट्रीय सुरक्षा का दायित्व दिया जाना चाहिए परन्तु जब देश की प्रधानमंत्री भी महिला हो सकती है तो रक्षामंत्री क्यों नहीं? मगर यह मंत्रालय वर्तमान समय में बहुत संजीदा है क्योंकि सेना के राजनीतिकरण के प्रयास परोक्ष रूप से हो रहे हैं। बेशक यह प्रधानमंत्री का विशेषाधिकार होता है कि वह जिसे भी चाहें अपने मंत्रिमंडल में शामिल कर सकते हैं और संसदीय नियमों के तहत बाहर से शामिल किए गए किसी भी व्यक्ति को छह महीने के भीतर संसद का सदस्य बनवा सकते हैं मगर राजनीतिक लोकतंत्रीय पद्धति में आम जनता अपने एक वोट के अधिकार से जिन लोगों को चुनकर भेजती है, उनसे ही वह बेहतर प्रशासन की उम्मीद करती है।
उनसे बाहर के किसी व्यक्ति को जब लोकतंत्र में चुने हुए प्रतिनिधियों की जिम्मेदारी दी जाती है तो लोगों के मन में सवाल उठ सकता है कि कमी कहां है- संसदीय प्रणाली में या उनकी जनादेश देने की बुद्धिमत्ता में? मगर नौकरशाहों को मंत्री बनाने की यह पहली घटना नहीं है। 1991 में स्व. पी.पी. नरसिम्हा राव ने तो देश का सबसे महत्वपूर्ण वित्त मंत्रालय ही जीवन भर नौकरशाह रहे डा. मनमोहन सिंह के हवाले कर दिया था और बाद में कांग्रेस ने उन्हें प्रधानमंत्री तक बनाया और वह पूरे दस वर्ष तक इस पद की शोभा बढ़ाते रहे मगर इसका खामियाजा कांग्रेस को किस बुरी तरह से भुगतना पड़ा उसकी गवाही मौजूदा दौर दे रहा है। लोकतंत्र का अर्थ ही लोक प्रतिनिधियों का शासन होता है जिनके समक्ष पूरी नौकरशाही नतमस्तक रहती है क्योंकि केवल लोकप्रतिनिधि ही जनता के दर्द से वाकिफ रहकर सरकार की नीतियों का निर्धारण इस तरह करते हैं कि लोगों का जीवन स्तर सुधरे और उनकी न केवल माली हालत में सुधार हो बल्कि सामाजिक तौर पर भी उनका नजरिया प्रगतिशील बने जिससे समूचा राष्ट्र प्रगति की तरफ बढ़े। सरकार कोई प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी नहीं होती कि वह मुनाफे के फलसफे पर चले। उसका फलसफा केवल लोककल्याण रहता है जिसके मार्ग में सबसे बड़ी रुकावट नौकरशाही ही स्वतंत्र भारत में रही है अत: यह मानना कि नौकरशाहों की प्रशासन क्षमता बेहतर होती है, लोकतंत्र को नकारने की ही तजवीज मानी जा सकती है, ऐसा नहीं माना जा सकता कि भारतीय जनता पार्टी के जिन 282 लोकसभा सांसदों को लोगों ने चुनकर संसद में भेजा है वे अयोग्य हैं।
जनता की नजरों में ये उनका प्रतिनिधित्व करते हुए स्वच्छ प्रशासन देने की योग्यता रखते हैं मगर उनके ऊपर जब भी नौकरशाहों को बिठाया गया है तो यही संदेश गया है कि राजनीतिज्ञों में प्रतिभा की कमी है। ऐसा ही संदेश 1991 में भी गया था और जनता ने मान लिया था कि डा. मनमोहन सिंह से बड़ा ईमानदार व्यक्ति पूरी राजनीति में कोई दूसरा नहीं है जबकि यह कोरा भ्रम साबित हुआ और उन्हीं के नेतृत्व में उसकी ही सरकार में कई घोटाले सामने आए। हमारी संसदीय प्रणाली में सरकार का फैसला सामूहिक इसीलिए होता है कि प्रत्येक मंत्री अपने मंत्रालय का कार्य उस जनता के प्रति जवाबदेही के तहत करता है जिसने उसे चुना है। लोकतंत्र में यह जिम्मेदारी ही सबसे बड़ी होती है। जनता का विश्वास भी तभी जीता जा सकता है जब लोकप्रतिनिधि सच्चे प्रशासक बनकर दिखाएं और वे उस नौकरशाही के भरोसे न रहें जिसका कार्य उनके द्वारा बनाई गई नीतियों का ईमानदारी के साथ पालन करना होता है परन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं है कि हम नौकरशाहों की प्रतिभा को नजरंदाज करके लोकतंत्र की गाड़ी खींच सकते हैं। नौकरशाही लोकतंत्र का प्रमुख हिस्सा है मगर वह कभी भी चुने हुए प्रतिनिधियों का स्थान नहीं ले सकती। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि उस पर पूर्व सरकारों के उन कामों को अंजाम देने की जिम्मेदारी रही होती है जिनके खिलाफ लोग अपना जनादेश देकर दूसरी राजनीतिक पार्टी को जनादेश देते हैं।
राष्ट्रसंघ में जब मनमोहन सरकार के कार्यकाल के दौरान तत्कालीन विदेश मंत्री एस.एम. कृष्णा ने भारत की जगह किसी दूसरे देश का लिखित बयान पढऩा शुरू कर दिया था तो उनके पीछे आज मंत्रिमंडल में शामिल किए गए हरदीप सिंह पुरी ही स्थाई प्रतिनिधि के रूप में बैठे हुए थे। इसी प्रकार जब मनमोहन सरकार में भगवा आतंकवाद का विचार उभरा था तो तब आर.के. सिंह ही गृह सचिव के रूप में इसकी वकालत कर रहे थे। अब वह मोदी सरकार में मंत्री बन गये हैं हालांकि वह लोकसभा के सदस्य हैं। ऐसा ही मुम्बई के पूर्व पुलिस कमिश्नर सत्यपाल ङ्क्षसह के बारे में है हालांकि वह भी लोकसभा के सदस्य हैं। तर्क दिया जा सकता है कि ऐसा तो दलबदलू राजनीतिज्ञ भी करते हैं तो नौकरशाहों के करने से क्या फर्क पड़ जाता है? एस.एम. कृष्णा आज खुद भाजपा में शामिल हो चुके हैं मगर फर्क केवल यह है कि नौकरशाह अपनी जिम्मेदारी कानून पर डालता है और राजनीतिज्ञ अपने राजनीतिक फलसफे पर। अन्तत: यह राजनीतिक फलसफा ही होता है जो राजनीतिज्ञों को संसद में पहुंचाता है।