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उपचुनावों के नतीजों का सन्देश

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राजस्थान व प. बंगाल में हुए लोकसभा व विधानसभा उपचुनावों में देश में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी की करारी हार से साफ हो गया है कि यह पार्टी अपने कुछ सहयोगी संगठन कहे जाने वाले तत्वों के साथ मिल कर राजनीति को जो मोड़ देना चाहती है उससे आम लोगों का मोह भंग हो रहा है और मतदाता उन मूल मुद्दों की परवाह करना चाहते हैं जिनसे भारत का लोकतन्त्र निर्देशित व शासित होता है। इस सन्दर्भ में राजस्थान के दो लोकसभा व एक विधानसभा उपचुनावों में मतदाताओं का जनादेश बहुत ही खरा है जिसे गौर से पढ़ा जाना चाहिए। लोकतन्त्र में लोगों का धर्म कोई हो सकता है और किसी भी राज्य में किसी भी धर्म को मानने वालों का बहुमत हो सकता है परन्तु उनके वोट से बनी सरकार का केवल एक ही धर्म होता है जिसे संविधान कहते हैं और उसका पालन करना सरकार के हर अंग का मजहब होता है।

हमारे लोकतन्त्र का छोटे से छोटा पुर्जा भी केवल संविधान के शिकंजे में ही कसा होता है अतः इसकी अवहेलना करके जब भी कोई सरकार अपनी चुनावी राजनीति की बिसात पर शासन को ढालने की कोशिश करती है तो भारत के प्रबुद्ध मतदाता उसके विजयरथ के घोड़ों की रास पकड़ कर उनका मुंह दूसरी तरफ मोड़ देते हैं। सत्ता में आने के लिए राजनीतिक पार्टियां जो चौसर बिछाती हैं उसमें धर्म के आधार पर लोगों को गोलबन्द करने का भ्रम भी अक्सर भर दिया जाता है परन्तु यह सिर्फ वोट बैंक की राजनीति होती है जिसका जनता के ही उन मूल मुद्दों और अधिकारों से कोई सम्बन्ध नहीं होता जो लोकतन्त्र के तहत संविधान उन्हें देता है। राजस्थान में पिछले चार सालों से जिस तरह की राजनीति राज्य की भाजपा सरकार कर रही है उसमें गाैरक्षा से लेकर चित्तौड़ की रानी रही पद्मावती जैसे विषयों पर लोगों को भरमाने की कोशिश सरकारी स्तर पर जिस तरह हुई उससे यही सन्देश गया कि राजस्थान आज भी 18वीं सदी के राजे–रजवाड़ों के राज में रह रहा है। समाज में खुलेआम हिंसा का बाजार गर्म करके कानून को अपने हाथ में लेने वाले लोगों के प्रति शासन की सहानुभूति इस तक पैदा हुई कि प. बंगाल के एक बेगुनाह नागरिक की बेरहमी से हत्या करके उसे लव जिहाद का नाम देने वाले गुनहगार के हक में सत्तारूढ़ पार्टी के ही कुछ विधायक आगे आ गये। संविधान की शपथ लेकर उसके हरफों को एक–एक करके बेइज्जत करने वाले लोगों ने समझा कि हुकूमत में बैठते ही वे कानून से ऊपर हो जाते हैं और संविधान को मनमुताबिक घुमा सकते हैं।

अजमेर और अलवर लोकसभा चुनाव क्षेत्र के मतदाताओं ने एेसे लोगों को ही जवाब दिया है कि यह लोकतन्त्र उनके हुक्म से चलेगा और संविधान की हुक्म उदूली करने वाले लोगों को कानून का हुक्म ही बजाना होगा। अतः लोगों ने कांग्रेस पार्टी के हक में अपना जनादेश देना उचित समझा। यह भी कम दिलचस्प नहीं है कि भाजपा उस अलवर में हारी है जहां के स्व. बरकतुल्ला खां थे। वह अभी तक इस राज्य के एकमात्र मुस्लिम मुख्यमन्त्री हुए हैं जो पक्के कांग्रेसी थे और एेसे मुख्यमन्त्री हुए जिन्होंने इस राज्य की राजपूती शान की विरासत को चार चांद लगाने का काम किया। इसके साथ ही अजमेर एेसा इलाका है जहां ख्वाजा की दरगाह में दुनिया भर के लोग अकीदत पेश करने जाते हैं और साथ ही लगे पुष्कर जी में भी लाखों लोग स्नान करके स्वयं को धन्य समझते हैं। अमन और शान्ति पसन्द मगर वीर राजस्थानियों को यदि कुछ तत्व आपसी रंजिश में रंग देने की कोशिश कर रहे थे और मौजूदा सरकार सोच रही थी कि उसकी सियासत को पहलू खां का कत्ल करने वाले लोग चमकाये रखेंगे तो यह शेखचिल्ली का सपना ही था क्योंकि राजस्थान का पूरा प्रशासनिक तन्त्र जड़ों में भरे हुए भ्रष्टाचार के जहर से लगातार लोगों को तकलीफ दे रहा है। यह कितना सुखद संयोग है कि उपचुनावों के परिणाम उसी दिन 1 फरवरी को आये जब संसद में वित्तमन्त्री श्री अरुण जैतली ने बजट पेश किया जिसमें उन्होंने देश के गरीबों के लिए स्वास्थ्य सुरक्षा स्कीम की घोषणा की। यह योजना राज्य सरकारों की शिरकत के बिना पूरी नहीं हो सकती। क्योंकि गरीबों की निशानदेही का काम राज्य सरकारों का ही होता है। मौजूदा सरकार के जेरे साया राजस्थान की जर्जर स्वास्थ्य प्रणाली में सरकारी अस्पतालों के बाहर खुले में ही महिलाएं बच्चों को जन्म देने के लिए बाध्य हो रही हैं। अतः भाजपा के कथित सहयोगी संगठनों के कारकुनों को 600 साल पहले की पद्मावती के बजाये आज की राजस्थानी महिला के सम्मान के बारे में सोचना चाहिए।

जहां तक प. बंगाल के चुनाव नतीजों का सवाल है वहां ममता दीदी के नेतृत्व को चुनौती देने या उनकी आंखों में आंखें डालकर सियासत करने का माद्दा भाजपा में नहीं है क्योंकि ममता दी बंगाल की क्रान्तिकारी व जुझारू राजनीतिक संस्कृति की उपज हैं जिसका अब गरीबों को उनके जायज हक दिलाने के लिए सत्ता को चुनौती देने से शुरू होता है। यह पूरा राज्य जब धार्मिक होता है तो हिन्दू–मुसलमान का भेद भुलाकर होता है और जब लोगों के अधिकारों के लिए खड़ा होता है तो मजहब को घरों में बन्द करके होता है। यही वजह है कि 2014 में यहां के उलूबेरिया लोकसभा क्षेत्र से जहां स्व. सुल्तान अहमद दो लाख वोटों से जीते थे वहीं तृणमूल कांग्रेस प्रत्याशी के तौर पर उनकी पत्नी उपचुनाव चार लाख वोटों से जीतीं। वक्त तो दीवार पर इबारत लिख रहा है हम उसे पढ़ने में क्यों गफलत कर रहे हैं ?

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