देश के जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं उनमें उत्तर पूर्व का ‘मिजोरम’ राज्य भी है जिसकी चर्चा उत्तर भारत की राजनीति की आपाधापी में नाममात्र को हो रही है मगर भारतीय लोकतन्त्र के चुनावी तन्त्र में अपनी जगह बना बैठी विभिन्न विसंगतियों को जिस तरह इस छोटे से पहाड़ी राज्य की जनता ने अपने बीच पैठ बनाने से रोका है वह समूचे भारत की जनता के लिए एेसा अनुकरणीय उदाहरण है जो इस राज्य को अनूठा साबित करने के साथ ही राजनीति को नई दिशा देता है और राजनीतिज्ञों को सदा जनता का सेवक बने रहने का रास्ता दिखाता है। यहां जो भी चुनाव होते हैं वे जाहिर तौर पर चुनाव आयोग की निगरानी में ही होते हैं मगर इसकी भी निगरानी करने के लिए स्वयं मिजो जनता ‘खुदाई खिदमतगारों’ की तरह काम इस तरह करती है कि चुनाव में मतदाताओं को लुभाने के लिए कोई भी राजनैतिक दल गलत तरीकों का इस्तेमाल नहीं कर सकता और न ही मुफ्त भेंट देने का वादा कर सकता है।
यहां की मिजो जनता की मिजो पीपुल्स फोरम (मिजो नागरिक मंच, गैर सरकारी संस्था) चुनावों की निगरानी के लिए खुद अपने स्वयं सेवकों के माध्यम से राजनैतिक दलों को आगाह करती है कि यदि उन्होंने किसी भी प्रकार के अवैध तरीकों का इस्तेमाल मतदाताओं को रिझाने के लिए करने की कोशिश की तो उन्हें अवांछनीय तत्वों की श्रेणी में डाल दिया जायेगा। इस मंच के सदस्य मिजोरम के युवक-युवती हैं और प्रत्येक ईसाई युवक इसमें शामिल होना अपने लिए सम्मान समझता है परन्तु नागरिक मंच राज्य ईसाई चर्चों के निर्देशन में काम करता है क्योंकि यहां 90 प्रतिशत के लगभग जनसंख्या ईसाई है। चर्चों की राजनीति में कोई भूमिका नहीं है मगर वे प्रत्येक नागरिक को हिदायत देते हैं कि चुनाव पूरी तरह सादगी और बिना किसी लालच में आये होने चािहएं और इसके लिये भारत के संविधान के अनुसार चुनाव आयोग के निर्देशों के अनुसार पालन होना चाहिए। धार्मिक संस्थानों की लोकतन्त्र में निरपेक्ष भूमिका का यह खूबसूरत उदाहरण भी है। अतः मिजो नागरिक मंच चुनाव लड़ने वाले प्रत्येक राजनैतिक दल के साथ एक आशय पत्र (मेमोरंेडम आफ अंडरस्टैंडिंग) पर समझौता कराता है कि वह चुनाव आयोग के निर्देशों का पालन करते हुए चुनाव उसकी नियमावली के अनुसार लड़ेगा और मतदाताओं को रिझाने के लिए मदिरा व धन आदि का उपयोग नहीं करेगा।
उसका चुनाव प्रचार पूरी तरह सादगी से भरा होगा और वह केवल नीतियों की बात करेगा। अतः पूरे चुनावी दौर में मिजो मंच के सदस्य स्वयं ही चुनाव प्रचार से लेकर प्रत्याशियों के तौर-तरीकों पर निगरानी रखते हैं और जरा भी गड़बड़ी पाये जाने पर आशय पत्र के अनुसार प्रत्याशी को अवांछित राजनैतिक व्यक्ति बता कर उसे सजा देने का अधिकार भी रखते हैं। एक प्रकार से चुनाव आयोग की आचार संहिता को लागू करने का बीड़ा स्वयं ही यहां की जनता उठाती है। अतः यह बेवजह नहीं है कि मिजोरम विधानसभा में विपक्ष कभी भी अध्यक्ष के आसन के निकट आकर नारेबाजी या शोर-शराबा नहीं करता। उसे सरकार का जो भी विरोध करना होता वह संसदीय नियमों के तहत ही मर्यादा में रहकर करता है। गौर से देखा जाये तो मिजोरम का प्रजातन्त्र हमें उस शक्ति का आभास कराता है जिसे ‘लोगों की सरकार लोगों के द्वारा और लोगों के लिए’ कहा जाता है। इस प्रणाली मे अन्तिम मालिक लोग अर्थात आम जनता ही होती है और उनके अधिकारों की रक्षा करने का दायित्व उन लोगों का होता है जो चुने जाते हैं। इन चुने हुए लोगों का कर्तव्य होता है कि वे अपनी विजय के लिए किसी भी अवैध तरीके का इस्तेमाल न करें क्योंकि एेसा होते ही उनके जनता के सच्चे प्रतिनििध होने का दावा खारिज हो जायेगा। यह प्रतिनिधित्व पाने के लिए उन्हें केवल वही रास्ता अख्तियार करने की छूट है जिसकी इजाजत संविधान देता है।
इसे पार करते ही उनकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा किया जा सकता है क्योंकि सत्ता में आने के लिए मतदाताओं को लालच देना उनकी राजनैतिक अन्तर्चेतना को सुप्त करना है। चूंकि चुनाव एक राजनैतिक प्रक्रिया है अतः इसमें मतदाताओं की राजनैतिक अन्तर्चेतना को शराब बांट कर या धन बांट कर संवेदन शून्य बना देना किसी गंभीर अपराध से कम नहीं आंका जा सकता। अतः मिजोरम में चर्च की भूमिका राजनीति में सदाचार को स्थापित करने की है परन्तु दक्षिण भारत की राजनीति में जिस तरह मुफ्त भेंट बांटने की परंपरा विकसित हुई है वह भी इसी श्रेणी में आती है। चुनावों के आने से कुछ समय पहले ही जिस प्रकार सत्तारूढ़ सरकारें खैरात बांटती हैं उसे भी किसी तौर पर जायज नहीं ठहराया जा सकता है। इसके साथ ही उत्तर भारत में भी इसका अनुसरण शुरू हो गया है और जिस तरह यहां जातियों व धर्म के नाम पर वोट मांगे जाते हैं वे भी पूरी तरह प्रजातन्त्र के खिलाफ हैं लेकिन उत्तर व दक्षिण भारत के राज्यों में तो चुनाव पूर्व रात्रि को जमकर शराब बांटने को जीत का फार्मूला माना जाने लगा है।
चुनाव आयोग के लिए भी इसे रोकना टेढ़ी खीर साबित हो जाता है। दक्षिण के तमिलनाडु व अन्य राज्यों में (केरल को छोड़कर) तो ‘वोट के लिए नोट’ को चुनावी शिष्टाचार में यहां के विभिन्न राजनैतिक दलों ने जिस प्रकार बदला है उसे रोकने के लिए चुनाव आयोग को विशेष दलों का गठन करना पड़ता है परन्तु केवल 40 सीटों वाली विधानसभा के मालिक मिजो लोगों ने यह काम अपने हाथ में लेकर पूरे देश को नया रास्ता दिखाने का प्रण जिस तरह लिया हुआ है उससे उम्मीद की वह किरण जरूर फूटती है कि लोकतन्त्र को केवल भारत की जनता ही मजबूत बना सकती है। अक्सर हम सुनते रहते हैं कि कुछ लोग टीवी पर आकर भाषण झाड़ते हैं कि लोकतन्त्र में केवल अधिकार ही नहीं होते बल्कि कर्तव्य भी होते हैं, मगर ये लोग कभी यह नहीं कहते कि नागरिकों का पहला कर्तव्य साफ-सुथरे चुनाव होते देखना होता है क्योंकि भ्रष्टाचार को जन्म देने का असली स्रोत यही है।
इस तरफ से नागरिकों का ध्यान हटाने के लिए सारी कसरतें की जाती हैं और उन्हें भटकाया जाता है। बल्कि किसी भी राजनैतिक दल के नेता के एेसी हरकतों में पकड़े जाने पर उसके बचाव में पूरा राजनैतिक दल ही उतर जाता है और उल्टे अपने विरोधी को लपेटने मंे लग जाता है मगर कीचड़ से कीचड़ साफ नहीं हो सकती। इसके लिए हमे वह मिजोरम रास्ता दिखा रहा है जिसे 1987 में ही विधिवत पूर्ण राज्य का दर्जा मिला और वहां पहली बार विधानसभा चुनाव भी हुए परन्तु मतदान में ईवीएम मशीनों की विश्वसनीयता को लेकर जो विवाद खड़ा हुआ है, उससे चुनाव आयोग की भूमिका भी नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए इस प्रकार बदल रही है कि वह उनके कर्तव्यों का संरक्षक बन सके क्योंकि मतदाता का पहला अधिकार अपनी मनपसन्द की सरकार बनाने का है तो उसका कर्तव्य यह देखने का भी है उसने जिस प्रत्याशी को मत दिया है, वह उसे ही मिला है? इसका संरक्षण केवल चुनाव आयोग ही कर सकता है। मध्य प्रदेश से जिस प्रकार की खबरें ईवीएम मशीनों को लेकर आ रही हैं वे आम मतदाता में चिन्ता तो पैदा करती ही हैं।