लोकसभा चुनावों की आहट मे इस बार जो तड़प दिखाई दे रही है वैसी इससे पहले कभी सुनाई नहीं पड़ी। अपना कार्यकाल पूरा करने वाली सरकार 13 दिन का बजट सत्र बुला रही है। अयोध्या में राम मन्दिर का मामला पुनः इस तरह गर्माया जा रहा है कि मानों इसी से भारत की उन सारी समस्याओं का हल निकल आयेगा जो किसानों से लेकर विद्यार्थियों और युवाओं को परेशान कर रही हैं। इसी बीच कांग्रेस अध्यक्ष श्री राहुल गांधी घोषणा करते हैं कि अगर उनकी पार्टी की अगली सरकार बनी तो देश के सभी गरीबों के लिए न्यूनतम आमदनी की व्यवस्था की जायेगी मगर मोदी सरकार अगली सरकार के बनने की प्रतीक्षा किये बिना ही अगले पूरे वित्त वर्ष का बजट पेश करना चाहती है। जाहिर है कि इस वर्ष मई महीने में नई सरकार बनेगी और वह किस पार्टी या गठबन्धन की बनेगी इसका फैसला 80 करोड़ से ज्यादा मतदाता ही करेंगे।
तो फिर पूरे साल का बजट पेश करने की तुक क्या हो सकती है मगर यह चुनावी साल है और चुनावी युद्ध में सब कुछ जायज है क्योंकि संविधान में यह कहीं भी नहीं लिखा हुआ है कि चुनावों से पहले अपना कार्यकाल पूरा करने वाली सरकार बजट पेश नहीं कर सकती है? सवाल तकनीकी है मगर विशुद्ध रूप से भारत के लोकतन्त्र की नैतिकता से जुड़ा हुआ है। यही वजह है कि चुनावी वर्षों में सरकार बजट पेश करने की जगह लेखानुदान पारित करा लेती हैं और नीतिगत बजट पेश करने का जिम्मा चुनावों के बाद बनने वाली सरकारों पर छोड़ देती हैं। असली सवाल यह है कि चुनाव किन मुद्दों पर लड़ा जायेगा? क्या चुनाव राम मन्दिर के मुद्दे पर लड़ा जायेगा अथवा गरीबों को न्यूनतम आमदनी सुलभ कराने के मुद्दे पर लड़ा जायेगा? गजब का संयोग है कि भारत में लाखों मन्दिर हैं और करोड़ों गरीब हैं।
अपनी गरीबी से छुटकारा पाने के लिए गरीब आदमी भी मन्दिर में जाकर प्रसाद चढ़ाता है और अपने ईष्टदेव को पूजता है। इसके बावजूद वह सरकार से उम्मीद करता है कि वह उसके दुख-दर्द मिटाने की नीतियों को बनाकर उसके जीवन को बेहतर बनाने की कोशिश करेगी। विद्या के मन्दिरों में जाने वाले गरीबों के बच्चे भी उम्मीद पाल कर पढ़ते हैं कि वे भी बड़े होकर कोई अच्छी नौकरी प्राप्त करेंगे मगर उन्हें यह मालूम नहीं होता कि वे अपने मां-बाप की गरीबी की वजह से जिस स्तर की शिक्षा पाने के लिए मजबूर किये जा रहे हैं उससे उनकी प्रतिभा और योग्यता को बचपन से ही अमीर व गरीब के खाने के बांटा जा रहा है। स्तरीय शिक्षा पाने के लिए उनके मां-बाप के पास मोटा पैसा होना जरूरी है।
अतः देश के सभी राजनैतिक दलों के नेता कान खोल कर सुनें कि भारत की जड़ों में ही इंडिया और भारत का विभाजन कर दिया गया है। यह विभाजन सिर्फ शहर और गांव का ही नहीं बल्कि जातिवाद और मजहब के उस जहर का भी है जिसकी वजह से आज भारत में चौतरफा कोहराम मचा हुआ है मगर यह स्थिति हमने खुद पैदा की है क्योंकि हम समस्या को जड़ से निपटाने की जगह उसका आवरणीय (कास्मेटिक) निदान ढूूंढ रहे हैं। भारत अध्यापकों का दुनियाभर के अन्य देशों के लिए केन्द्र बन सकता है। विदेशों में अच्छे अध्यापकों की कमी है। हम पेशेवर (स्किल्ड) इलैक्ट्रिशियन से लेकर प्लम्बर पैदा करेंगे आदि-आदि मगर आज हम किस मुकाम पर पहुंचे हैं कि हर तरफ बेरोजगारों की फौज खड़ी हो गई है। एेसे माहौल में पुराने मुद्दों को ही दोहराया जा रहा है।
सवाल तो उस गरीब मास्टर का या छोटे दुकानदार का है जिसने अपनी जीवन भर की कमाई न जाने कब से पाई-पाई करके जोड़ कर रखी थी और वह सारी बैंकों में जमा हो चुकी है और अब आयकर विभाग उससे हिसाब मांग रहा है। इतने विरोधाभासों के बीच आगामी लोकसभा चुनाव होने जा रहे हैं। लोकतन्त्र की पहली शर्त होती है कि आम लोगों की सरकार का मतलब सिंहासन पर बैठने वाले लोग सबसे पहले उन्हीं के बारे में सोचें और इस तरह सोचें कि उनकी जिन्दगी उनके सामने ही उन्हें बदलती सी लगे। महत्वपूर्ण यह नहीं होता कि कितने अमीरों की सम्पत्ति में इजाफा हुआ बल्कि महत्वपूर्ण यह होता है कि कितने गरीबों की जिन्दगी में बहार आयी।
सरकार का मतलब तो गरीबों से ही होता है क्योंकि लोकतन्त्र में इन्हीं के वोट से सरकारें बनती हैं मगर राजनीति उन्हें कभी हिन्दू-मुसलमान में बांटकर तो कभी जाति-बिरादरी मंे बांटकर अपना उल्लू सीधा करती है। क्या कभी कोई डाक्टर किसी मरीज से उसका धर्म या जाति पूछता है? राजनीति तो पूरे देश का दवाखाना होती है फिर इसमें कैसा भेदभाव? हमारे संविधान लेखक बाबा साहेब अम्बेडकर तो हर आदमी को एक समान रूप से एक वोट का अधिकार देकर गये थे, मगर हमने उसे इस तरह घुमाया है कि वोटों की मार्फत ही नई इजारेदारी खड़ी हो रही है।