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मोदी का जमीनी ‘गांधीवाद’

प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी को भारतीय राजनीति में वह स्थान बनाने के लिए सर्वदा याद किया जायेगा जिसका उल्लेख राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने स्वाधीनता संग्राम के दौरान लोकतान्त्रिक सरकारों के सम्बन्ध में अपने पत्र ‘हरिजन’ में बार-बार किया था। राष्ट्रपिता इस पत्र में अक्सर लिखा करते थे कि प्रजातन्त्र में सरकार उसी को कहा जा सकता है जो समाज के गरीब व्यक्ति की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करने हेतु नीतियों का निर्धारण करे।

प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी को भारतीय राजनीति में वह स्थान बनाने के लिए सर्वदा याद किया जायेगा जिसका उल्लेख राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने स्वाधीनता संग्राम के दौरान लोकतान्त्रिक सरकारों के सम्बन्ध में अपने पत्र ‘हरिजन’ में बार-बार किया था। राष्ट्रपिता इस पत्र में अक्सर लिखा करते थे कि प्रजातन्त्र में सरकार उसी को कहा जा सकता है जो समाज के गरीब व्यक्ति की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करने हेतु नीतियों का निर्धारण करे। 
उनकी यह प्रसिद्ध उक्ति है कि ‘जो सरकार अपने लोगों की स्वास्थ्य से लेकर भोजन व शिक्षा की देखभाल नहीं कर सकती उसे लोकतन्त्र में सरकार नहीं कहा जा सकता बल्कि कुछ अराजक तत्वों का जमघट कहा जा सकता है।’ यह कांग्रेस पार्टी के लिए आश्चर्य का विषय हो सकता है कि मूल रूप से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के एक कार्यकर्ता नरेन्द्र मोदी ने महात्मा गांधी के इस सूत्र को क्यों पकड़ा? संघ और गांधी की विचारधारा का कहीं कोई मेल नजर नहीं आता है, फिर यदि कोई संघ का कार्यकर्ता गांधी के सिद्धान्त पर अमल करके देश की चुनी हुई लोकतान्त्रिक सरकार की वरीयताएं तय करता है तो उसे निश्चित रूप से भारतीय दर्शन का अनुयायी ही कहा जा सकता है जिसमें धर्म या हिन्दू संस्कृति का कोई लेना-देना नहीं है। 
श्री मोदी की आलोचना में कुछ लोग यह भूल जाते हैं कि प्रधानमन्त्री पद पर रहते हुए उन्होंने यह भी कहा था कि ‘पहले शौचालय फिर देवालय।’ यह कथन भारत की वस्तुगत जमीनी सच्चाई से उपजा हुआ था जिसकी 2019 के लोकसभा चुनावों में कितनी महत्वपूर्ण भूमिका थी, इसका विश्लेषण करने की किसी राजनैतिक पंडित में या तो हिम्मत नहीं है अथवा वह इसे पर्दे के पीछे रखना चाहता है। बेशक ‘आयुष्मान भारत’  स्वास्थ्य योजना की कई कोणों से आलोचना की जा सकती है परन्तु गरीबी की सीमा रेखा के पास रहने वाले पांच करोड़ परिवारों के लिए इसके महत्व को उनके जीवन में उतर कर ही परखा जा सकता है। 
लोकतन्त्र में सरकार की अहमियत आम आदमी को तभी नजर आती है जब वह उसके सामान्य जीवन को स्पर्श करते हुए अहसास दिलाती है कि सरकार का उससे भी लेना-देना है। अतः श्री मोदी ने राष्ट्रपति के अभिभाषण पर संसद में हुई बहस का जवाब देते हुए जब यह कहा कि ‘मैं और मेरी पार्टी ऊंचाई तक जाने के बजाय जमीन में मजबूत रहना चाहते हैं’ तो उनकी राजनीति का पूरा फलसफा साफ हो गया। राजनीति में यही उनका सबसे बड़ा योगदान माना जायेगा और इसके लिए वह इतिहास की पुस्तकों में दर्ज किये जायेंगे। यह उनके व्यक्तित्व का सबसे उज्ज्वल पक्ष है जिससे कांग्रेस को ही सबक लेने की जरूरत है लेकिन अपने जवाब में श्री मोदी ने अपने लिए वह नई जिम्मेदारी भी स्वयं ही तय कर ली है जिससे भारत और इसके लोग एक नये सामाजिक चरण में प्रवेश करने के लिए छलांग लगा सकते हैं। मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक की मुसीबत से छुटकारा दिलाने की मुहीम के चलते वह दिन दूर नहीं है जब ‘एक समान नागरिक आचार संहिता’ को मूर्त रूप देना पड़ेगा। 
इस सन्दर्भ में यह जानना बहुत जरूरी है कि भारत के मुसलमानों की तुलना किसी अन्य देश के मुस्लिम समाज से नहीं की जा सकती है क्योंकि इनके समूचे आचार-विचार और व्यवहार पर भारतीयता की अमिट छाप है। भारत की विविधता के साथ ही इनका रंग भी निखरा है। यह नई बात नहीं है बल्कि इतिहास इसका गवाह है। शहंशाह अकबर से जब उनके समय में ईरान में शिया सम्प्रदाय के शबाब पर होने पर पूछा गया कि वह कौन से मुसलमान हैं तो अकबर ने उत्तर भिजवाया था कि वह ‘हिन्दोस्तानी मुसलमान’ हैं। इसके साथ ही भारतीय मुसलमानों में जिस तरह जातियों का प्रचलन है वह भारत में फैली वर्ण व्यवस्था की छाया ही है। 
पसमान्दा मुसलमानों के लिए जब आरक्षण की बात राजनैतिक हलकों में उठती है तो इसका सबूत ढूंढने की जरूरत भी नहीं रहती। अतः हिन्दू गरीबों और मुस्लिम गरीबों व समर्थ लोगों की सामाजिक व आर्थिक जरूरतें और समस्याएं एक जैसी ही हैं। इसमें भेदभाव इसलिए नहीं किया जा सकता कि उनका धर्म अलग-अलग है। हकीकत यह है कि धर्म अलग-अलग होने के बावजूद हिन्दुओं के लिए बनाई गई नागरिक आचार संहिता अर्थात हिन्दू कोड बिल पर इस्लाम का जबर्दस्त प्रभाव है। हिन्दू परिवारों में स्त्री का सम्पत्ति में अधिकार और तलाक का हक इस्लाम धर्म की सामाजिक व्यवस्था से ही लिये गये हैं। अतः भारत के मुसलमानों को उन नियमों से परहेज नहीं होना चाहिए जिन्हें भारत के सभी नागरिकों के लिए एक समान रूप से अमल में लाने के लिए विचार किया जा सकता है। 
फौजदारी नियम तो सभी समुदायों के लोगों के लिए एक समान हैं। इस मामले में संविधान की अनुसूची पांच व छह में जनजातियों व आदिवासियों के लिए जो विशेष व्यवस्था है उससे इसका कोई सरोकार नहीं हो सकता लेकिन तीन तलाक को सीधे महिला आरक्षण से जोड़ देना महिला अधिकारों के सवाल को जड़ से काट देना ही है। महिलाओं की जमीनी हैसियत बदले बिना महिला आरक्षण का कोई अर्थ नहीं है। पाकिस्तान व बांग्लादेश समेत जिन देशों में भी महिला आरक्षण है वहां महिलाओं की स्थिति बेहतर नहीं बल्कि बद से बदतर ही हुई है और आरक्षण का इस्तेमाल केवल ‘सजावटी आभूषण’ के तौर पर ही हुआ है। 
सबसे पहले जरूरी है कि किसी मजदूर के घर में पैदा हुई बेटी की हिम्मत और जज्बा किसी उद्योगपति या राजनीतिज्ञ के घर में पैदा हुई बेटी के बराबर किया जाये जिससे वह अपना अधिकार याचना से नहीं बल्कि छीन कर ले सके। इस मामले में महिला के नाम पर राशनकार्ड या बैंक खातों का चलन शुरू करके श्री मोदी ने वह शुरूआत कर डाली जिसने जमीन पर ही बदलाव पैदा किया। मैं श्री मोदी की प्रशंसा नहीं कर रहा हूं बल्कि उनकी राजनीति के वे गुर बता रहा हूं जिन्होंने भारत के आम आदमी को घर के भीतर ही प्रभावित किया है। 
मार्क्सवाद का सिद्धान्त है कि ‘आर्थिक सम्बन्ध ही सामाजिक सम्बन्धों’ का निर्धारण करते हैं। इसे जमीन पर उतारने में उन्होंने सीधे गांवों को साधा और गरीब किसानों को छह हजार रुपए साल की सीधे मदद की। पेंशनधारी बुजुर्गाें की कठिनाइयों को कम से कम किया। इस मामले में नौकरशाही और बाबूगिरी की लगाम को काट डाला। युवा वर्ग ने उनकी पार्टी को वोट दिया विशेषकर उत्तर-पश्चिम भारत में। इसकी वजह उनके द्वारा खड़ा किया गया राष्ट्रवाद का वह जज्बा रहा जो नौजवानी में हर युवा को प्रभावित करता है मगर आगे चलने का समय कभी खत्म नहीं होता और जल संकट को लेकर जिस तरह श्री मोदी ने चुनौती स्वीकार की है उसका संज्ञान तो विपक्ष को लेना ही पड़ेगा मगर असली सवाल जमीन मजबूत करने का ही है चाहे वह तीन तलाक हो या गरीबों का उत्थान अथवा सबका विश्वास। 
जाहिर है इस चुनौती से भी केवल और केवल गांधीवाद के रास्ते ही निपटा जा सकता है। गांधी के ‘ग्राम स्वराज्य दर्शन’ में क्या इस कार्पोरेटीकरण के दौर में श्री मोदी को कोई आशा की किरण नजर आती है?

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