भारत को दो सौ वर्षों की गुलामी से आजादी देते हुए जिन अंग्रेजों ने इस देश को दो टुकड़ों में बांट कर पाकिस्तान का निर्माण कराया था उन्हें आज भी जम्मू-कश्मीर के भारतीय संघ में सम्पूर्ण विलय की प्रक्रिया पर रंज हो रहा है और वे अनुच्छेद 370 को समाप्त किये जाने की आलोचना मानवीय अधिकारों की आड़ में कर रहे हैं। अंग्रेज भारत से जाते-जाते भारतीयों को हिन्दू-मुसलमान में बांट कर जिस पाकिस्तान को वजूद को लाकर चले गये थे उसी के बारे में आजादी के मसीहा महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘पाकिस्तान उनकी लाश पर ही बन सकता है’ मगर अंग्रेजों द्वारा फैलाई गई नफरत तथा ‘बांटो और राज करो’ की चाल हिन्दोस्तान के आजाद होने के बाद भी इस तरह इसकी नसों में फैल गई थी कि आजादी के केवल छह महीने बाद ही महात्मा गांधी की हत्या एक सिरफिरे हिन्दू कट्टरपंथी नाथू राम गोडसे ने कर डाली परन्तु यह भी सत्य है कि जम्मू-कश्मीर की समस्या को खड़ा करने में अंग्रेजों का भी हाथ था क्योंकि 15 अगस्त, 1947 को जिन दो स्वतन्त्र औपनिवेशिक राष्ट्रों भारत व पाकिस्तान की सीमाएं निर्धारित की गई थीं उनके बीच जम्मू-कश्मीर एक स्वतन्त्र रियासत के रूप में स्थित था।
यह अंग्रेजों की ही नीति थी कि उन्होंने अपना राज समाप्त करते हुए हिन्दोस्तान और पाकिस्तान के इलाकों में स्थित सात सौ से अधिक देशी रियासतों व जागीरों को खुली छूट दी थी कि वे दोनों में से जिस स्वतन्त्र देश में भी मिलना चाहें मिल सकती हैं अथवा अपना स्वतन्त्र अस्तित्व बनाये रख सकती हैं। पहले अंग्रेजों ने धर्म के आधार पर भारत के दो टुकड़े कर डाले और उसके बाद इसे छोटे-छोटे स्वतन्त्र जखीरों में बंटने के लिए खुला छोड़ दिया। कश्मीर समस्या भारत को अंग्रेजों की इसी नीति के नतीजे में विरासत में मिली जिसकी वजह से 26 अक्तूबर, 1947 को जब जम्मू-कश्मीर रियासत के शासक महाराजा हरि सिंह ने इसका विलय भारतीय संघ में करने का फैसला किया तो कुछ खास शर्तों की शक्ल में संविधान में अनुच्छेद 370 जोड़ा गया जिसे लिखने से बाबा साहेब अम्बेडकर ने इन्कार कर दिया था मगर इस अनुच्छेद को संविधान से नत्थी करते समय हमारे पुरखों ने एक होशियारी यह दिखाई थी कि इसे एक ‘अस्थायी’ प्रावधान के तौर पर संविधान में जोड़ा था।
जाहिर है भारतीय लोकतन्त्र में इस प्रावधान को जोड़ने की प्रक्रिया को लोकमूलक बनाने के उपाय किये गये होंगे जो उस समय की जरूरत के मुताबिक वाजिब समझे गये होंगे। अतः इसे हटाने की प्रक्रिया का भी विधान इसी के अनुरूप होना जरूरी था और इसे हटाते समय ठीक यही प्रक्रिया संसद के माध्यम से वर्तमान मोदी सरकार ने अपनाई। अतः यह तो अटल सत्य है कि जम्मू-कश्मीर का मामला भारत का अन्दरूनी मामला 26 अक्तूबर, 1947 से ही बन चुका था। बेशक उस समय भारत की स्थिति एक ‘डोमिनियन स्टेट’ या स्वतन्त्र औपनिवेशिक राष्ट्र की थी जिसके राज प्रमुख गवर्नर जनरल ‘माऊंट बेटन’ थे। यह स्थिति 26 जनवरी, 1950 तक नया संविधान लागू होने तक बनी रही परन्तु ब्रिटेन की भूमिका जम्मू-कश्मीर में उसी समय समाप्त हो गई थी जब इसका विलय भारतीय संघ में महाराजा हरि सिंह ने कर दिया था।
गौर करने वाली बात यह है कि भारत को आजादी ब्रिटेन ने तब दी थी जब वहां लेबर पार्टी की सर एटली की सरकार थी और संयोग से ब्रिटिश संसद की सदस्य डेबी अब्राहम भी इसी पार्टी की सदस्य हैं, जिन्हें भारत सरकार ने दिल्ली हवाई अड्डे से बैरंग इसलिए वापस किया कि वह कश्मीर के मामले में अपने देश में भारत विरोधी मुहीम चलाये हुए हैं। मानवीय अधिकारों के नाम पर लेबर पार्टी दुनिया के अन्य देशों के नागरिकों की स्थिति का जायजा लेने में लगी रहती है मगर सबसे आश्चर्य की बात यह है कि यह पार्टी पाकिस्तान में हो रहे मानवीय अधिकारों के हनन की न तो चिन्ता करती है और न ही इस बाबत कोई मुहीम चलाती है। यहां तक कि पाक अधिकृत कश्मीर में जिस तरह वहां के नागरिकों पर पाकिस्तानी सरकार जुल्म ढहाती है और उन्हें नागरिक अधिकारों तक से वंचित रखती है उस तरफ इसका ध्यान नहीं जाता।
भारत के उदार और खुले लोकतन्त्र की व्यवस्था का लाभ उठा कर यह पार्टी जम्मू-कश्मीर के बहाने भारत के अन्दरूनी मामलों में हस्तेक्षप तक करने की गुस्ताखी कर जाती है। ठीक एेसा ही काम कुछ दिनों पहले तुर्की के राष्ट्रपति रेसिप तैयप अर्दोगान ने भी किया जब उन्होंने अपनी इस्लामाबाद यात्रा के दौरान कश्मीर का सवाल उठाते हुए वहां के नागरिकों को एक विशेष धर्म से जोड़ते हुए भारतीय कार्रवाई की आलोचना कर डाली और पाकिस्तान के कश्मीरी रुख का समर्थन कर डाला। इससे पहले भी राष्ट्रसंघ की सभा में सितम्बर 2019 में अर्दोगान ने कश्मीर समस्या का जिक्र किया था। असल में यह और कुछ नहीं बल्कि भारतीय उपमहाद्वीप में भारत की मजबूती का विरोध है। पाकिस्तान पश्चिमी शक्तियों की वजह से ही वजूद में आया था। इसका असली कारण भारत और हिन्दू विरोध था।
पाकिस्तान का वजूद तब तक ही दुनिया के नक्शे पर बना रह सकता है जब तक वह भारत का विरोध करता रहे और हिन्दू विरोध को इसका पर्याय बना दे। यही वजह है कि तमाम पश्चिमी शक्तियां प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पाकिस्तान की मदद करती रहती हैं। इसमें अब चीन भी शामिल हो गया है क्योंकि एशिया में भारत की आर्थिक शक्ति का मुकाबला करने के लिए उसे पाकिस्तान से बेहतर कोई दूसरा ‘प्यादा’ दिखाई नहीं पड़ता। इस मामले में अमेरिका भी शुरू से ही दोहरी चालें चलता रहा है। अतः डेबी अब्राहम का ‘कश्मीर प्रेम’ मानवीय अधिकारों की आड़ में पश्चिमी हितों को साधने वाला ही माना जायेगा। जिन अंग्रेजों ने अन्तिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के बेटों के सिर काट कर उन्हें तरबूज के तोहफे के तौर पर देने की हिमाकत की हो वे किस तरह भारत के अन्दरूनी मामलों में टांग अड़ाने की जुर्रत कर सकते हैं।
कश्मीर की अवाम भारत के संविधान से बावस्ता है और इसके अनुसार हर हिन्दू-मुसलमान नागरिक को बराबर के अधिकार प्राप्त हैं। भारत की सरकार से जो भी शिकायतें इस सूबे के लोगों को हैं वे उनका हल इसी संविधान के भीतर पाने का हक रखते हैं। इस मामले में किसी दूसरे मुल्क की हमदर्दी कश्मीरियों को नहीं चाहिए। अगर दूसरे मुल्कों को इतनी ही ज्यादा फिक्र है तो सबसे पहले वे उस पाक कब्जे वाले कश्मीरियों के बारे में सोचें जिनकी जिन्दगी पिछले 72 सालों से दोजख बना कर रख दी गई है और अनेक इलाकों को दहशतगर्दों के अखाड़ों में बदल दिया गया है। पाकिस्तानियों ने तो अपने कब्जे के कश्मीर के लोगों की संस्कृति तक को बदल कर रख दिया है।