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म.प्र. से चुनावी महाभारत शुरू

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भारत की राजनीति अब पूरी तरह चुनावी मुद्रा में प्रवेश कर चुकी है। इसकी वजह यह है कि इस वर्ष के दिसम्बर महीने तक तीन राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान व छत्तीसगढ़ के चुनाव हो जायेंगे और उसके बाद अगले वर्ष मई महीने तक लोकसभा के चुनाव हो जायेंगे। इसके साथ ही आन्ध्र प्रदेश व ओडिशा राज्यों के चुनाव भी होंगे। जाहिर है कि सभी राजनैतिक दलों ने इसके लिए तैयारी शुरू कर दी है मगर उत्तर भारत के तीन राज्यों के चुनाव परिणाम लोकसभा के परिणामों की पक्की झांकी इसलिए माने जायेंगे क्योंकि इन तीनों पर ही केन्द्र में सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा का कब्जा है। एक प्रकार से इन तीनों राज्यों के चुनाव भाजपा के लिए प्रारम्भिक परीक्षा के समान होंगे जिनमें मिले प्राप्तांकों के आधार पर वह अन्तिम परीक्षा लोकसभा चुनावों का सामना करेगी। ठीक यही स्थिति देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस के लिए भी होगी।

इन राज्यों में मिली सफलता या असफलता के आधार पर ही मतदाता उसका लोकसभा चुनावों में मूल्यांकन करेंगे मगर तर्क दिया जा सकता है कि ये चुनाव राज्यों के लिए होंगे अतः इनमें प्रत्येक राज्य के मुद्दे प्रमुख होंगे जिनका लोकसभा के चुनाव के राष्ट्रीय मुद्दों से कोई सम्बन्ध नहीं होगा लेकिन 2013 में हुए इन तीनों राज्यों के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की तरफ से श्री नरेन्द्र मोदी को भावी प्रधानमन्त्री पद का प्रत्याशी घोषित करके स्टार प्रचारक की तरह पेश कर दिया था और उनके ही सिर पर इन तीनों राज्यों में भाजपा की जीत का सेहरा बांधने में पूरी पार्टी में होड़ लग गई थी। इन राज्यों के चुनावों में श्री मोदी ने केन्द्र की तत्कालीन कांग्रेसी मनमोहन सरकार के दौरान उठे भ्रष्टाचार के मामलों को मुद्दा बनाकर अपनी पार्टी के पक्ष में माहौल तैयार करने में अद्भुत सफलता प्राप्त की थी। यही वजह थी कि मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ की पिछले दस सालों से सत्ता पर काबिज सरकारों के खिलाफ सत्ताविरोधी भावना दब गई थी जबकि राजस्थान में इसका दुगुना प्रभाव हुआ था क्योंकि वहां श्री अशोक गहलौत के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार थी लेकिन पांच साल बाद 2018 में अब माहौल पूरी तरह बदल चुका है।

केन्द्र में श्री मोदी स्वयं प्रधानमन्त्री हैं और इन तीनों राज्यों में भाजपा की सरकारें हैं। यह पार्टी आज भी श्री मोदी के चुनाव प्रचार पर निर्भर करती है। बेशक इन तीनों राज्यों में इसके मुख्यमन्त्री हैं मगर उनकी प्रतिष्ठा उनके द्वारा दिये गये प्रशासन के आधार पर मापी जायेगी जिसमें श्री मोदी ज्यादा मददगार साबित नहीं हो सकते। मध्य प्रदेश में शिवराज सिह चौहान, राजस्थान में वसुन्धरा राजे व छत्तीसगढ़ में रमन सिंह को अपने-अपने किये का हिसाब-किताब अपने ही स्तर पर इसलिए देना होगा क्योंकि विपक्षी पार्टी कांग्रेस सबसे पहले उन्हें ही घेर कर जवाब तलब करेगी और मतदाताओं के सामने वह लेखा-जोखा पेश करने में कोताही नहीं बरतेगी जिसमें सरकार के कारनामे लोगों की दिक्कतें बढ़ाने की रकम में इजाफा दिखा रहे हैं। इस तरफ कांग्रेस अध्यक्ष श्री राहुल गांधी ने बहुत सावधानी के साथ पहल कर दी है। उन्होंने सबसे पहले मध्य प्रदेश को अपना लक्ष्य बनाया है जहां पिछले वर्ष छह किसानों की पुलिस ने आन्दोलन के दौरान गोली चलाकर हत्या कर दी थी। यह गोलीकांड मन्दसौर में 6 जून को हुआ था। इसकी पहली बरसी पर ही कांग्रेस अध्यक्ष ने रैली करके घोषणा की कि यदि उनकी पार्टी की सरकार चुनावों के बाद बनती है तो दस दिनों के भीतर किसानों का कर्जा माफ कर दिया जायेगा और जिन लोगों ने किसानों की हत्या की थी उन्हें हर सूरत में सजा दी जायेगी।

कानून-व्यवस्था का मामला पूरी तरह राज्य सरकार का होता है। यही वजह है कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष श्री कमलनाथ ने गुहार लगानी शुरू कर दी है कि जैन आयोग की रिपोर्ट जगजाहिर करो जिसने मन्दसौर गोलीकांड की जांच की थी। शिवराज सिंह को ध्यान रखना होगा कि उनका पाला उस कमलनाथ से पड़ा है जिसने केन्द्र में वाणिज्य मन्त्री रहते हुए विश्व व्यापार संगठन की वार्ता में भारत के किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी खत्म करने के मुद्दे पर दुनिया के विकासशील देशों को एकजुट करके चुनौती फेंक दी थी कि भारत और उस जैसे अन्य देश एेसे किसी समझौते पर तब तक दस्तखत नहीं कर सकते जब तक कि उनके देशों के किसानों की वित्तीय स्थिति वैसी ही न बन जाये जैसी कि विकसित कहे जाने वाले अमेरिका समेत अन्य यूरोपीय देशों की है, यही वजह है कि श्री कमलनाथ के नेतृत्व में दिग्विजय सिंह व ज्योतिरादित्य सिन्धिया जैसे कांग्रेसी नेताओं ने भाजपा की प्रदेश सरकार को किसान विरोधी साबित करने का अभियान चला दिया है। हकीकत यह है कि मध्य प्रदेश में किसानों के नाम पर जिस तरह गल्ला व्यापारी मौज लूट रहे हैं उससे यहां की कृषि व्यवस्था इस तरह प्रभावित हुई है कि खेत में काम करने वाला आदमी खुद को लावारिस समझने पर मजबूर हो रहा है। इतना ही नहीं इस राज्य में फैली हुई बहुमूल्य एेतिहासिक धरोहर व वन सम्पदा तक को वाणिज्य वृत्ति के हवाले जिस तरह किया गया है उससे ग्रामीणों से लेकर वनकर्मियों में भारी रोष है।

राज्य की नौकरियों आदि के लिए हुए व्यापम घोटाले की आवाज भी सुनाई पड़ने लगी है मगर लोकतन्त्र में सबसे महत्वपूर्ण मतदाता की अवधारणा होती है। यह अवधारणा एक दिन में नहीं बनती है बल्कि शासनतन्त्र के रवैये को देखते हुए बनती है, 2014 में भाजपा को जो तूफानी सफलता मिली थी वह अवधारणा की वजह से ही मिली थी वरना 2009 के लोकसभा चुनावों में पिछले पांच साल से सत्ता पर काबिज रहते हुए डा. मनमोहन सिंह की पार्टी कांग्रेस को लोकसभा में दो सौ से ज्यादा सीटें कैसे मिल पातीं और भाजपा को 116 पर ही सन्तोष करना पड़ता मगर 2014 के आते-आते अवधारणा ने एेसी पलटी मारी कि कांग्रेस सिर्फ 44 पर सिमट गई और भाजपा को अपने बूते पर ही पूर्ण बहुमत मिल गया। अतः इस पूरे सालभर हम जो खेल देखेंगे वह अवधारणा बनाने और बिगाड़ने का ही देखेंगे।

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