संसद में ‘नीर-क्षीर–विवेक’ - Latest News In Hindi, Breaking News In Hindi, ताजा ख़बरें, Daily News In Hindi

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संसद में ‘नीर-क्षीर–विवेक’

संसदीय लोकतन्त्र में संसद की महत्ता और प्रतिष्ठा इसके भीतर होने वाली चर्चाओं के स्तर पर निर्भर करती है।

संसदीय लोकतन्त्र में संसद की महत्ता और प्रतिष्ठा इसके भीतर होने वाली चर्चाओं के स्तर पर निर्भर करती है। इसमोर्चे पर निश्चित रूप से भारत ने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं जिनका सम्बन्ध प्रत्यक्ष रूप से राजनीति के स्तर से रहा है परन्तु जरूरी नहीं है कि जमीनी राजनीति की हलचलों से संसद में होने वाली बहसों का स्तर तय हो बल्कि इसके उलट  संसद के पटल पर होने वाले वाद-विवाद भी जमीनी राजनीति को प्रभावित करने की क्षमता रख सकते हैं। वर्तमान दौर सड़कों पर होने वाली राजनीति के गिरते स्तर को स्पष्ट रूप से दिखाता है मगर इसके विपरीत संसद के उच्च सदन राज्यसभा में बहस का जो स्तर लगातार ऊपर उठता प्रतीत हो रहा है उससे यह आशा बलवती होती है कि सामान्य राजनीतिक कार्यकर्ताओं का व्यावहारिक व सोच स्तर भी ऊपर उठेगा और भारत की सड़कों पर संयमित राजनीतिक भाषावली का प्रयोग होने की प्रेरणा मिलेगी। संसद में बजट पेश हो चुका है और इसकी समीक्षा अब इसके दोनों सदनों लोकसभा व राज्यसभा में होगी। इसकी शुरूआत राज्यसभा में हुई जिसमें भाग लेते हुए विपक्ष की ओर से कांग्रेस के विद्वान सांसद श्री कपिल सिब्बल ने यह सिद्ध करने की कोशिश की कि देश की अर्थव्यवस्था ऐसे मुकाम पर पहुंच चुकी है जिसमें सुधार करने के लिए गरीब जनता में समुचित आय के बंटवारे की सख्त जरूरत है और लाकडाऊन व कोरोना संक्रमण की वजह से बेराजगार हुए दो करोड़ से ज्यादा लोगों को तुरन्त रोजी देने की आवश्यकता है। वहीं सत्ता पक्ष की तरफ से बिहार के नेता श्री सुशील मोदी ने बजट में किये गये विभिन्न वित्तीय प्रावधानों के माध्यम से यह साबित करना चाहा कि बजट गरीबों के कल्याण को ध्यान में रख कर बनाया गया है और इस प्रकार बनाया गया है जिससे रोजगारों के अवसरों में वृद्धि होना स्वाभाविक है। मगर अपनी तार्किक बुद्धि के लिए प्रख्यात देश के जाने-माने वकील श्री सिब्बल ने आंकड़े देकर सरकार की वित्तीय नीतियों को कुछ चुनीन्दा व्यक्तियों की सम्पत्ति में इजाफा करने वाला यह कहते हुए बनाया कि 2018 में जहां देश के एक प्रतिशत लोगों के हाथ में सकल राष्ट्रीय सम्पत्ति का 58 प्रतिशत हिस्सा था वहीं केवल एक साल में बढ़ कर यह 73 प्रतिशत कैसे हो गया? अपने विपक्षी धर्म को निभाते हुए श्री सिब्बल ने भारत के कृषि क्षेत्र का भी जिक्र किया और अमेरिका का उदाहरण देते हुए कहा कि उस देश में केवल डेढ़ प्रतिशत लोग ही खेती पर निर्भर करते हैं जिसकी वजह खेती का कार्पोरेटीकरण हैं क्योंकि पिछले दस साल में वहां छोटे किसान और उनकी कम रकबे की कृषि भूमि समाप्त हो चुकी है और बड़े-बड़े फार्म जमींदार पैदा हो चुके हैं। इसके बावजूद वहां की सरकार प्रत्येक किसान को 62 हजार डालर प्रतिवर्ष की सब्सिडी देती है। इतना होने के बाद भी वहां छोटा किसान गायब हो गया।
 भारत में कृषि सब्सिडी मात्र 11 अरब डालर की है जबकि चीन में 186 अरब व यूरोपीय संघ में 102 अरब डालर की है परन्तु इसके प्रत्युत्तर में श्री सुशील मोदी ने ऐसे आंकड़े रखे जो भारत की अर्थव्यवस्था को मजबूती देने के लिए बजट में रखे गये थे। उन्होंने कहा कि बजट में पूंजीगत खाते से खर्च में जो बढ़ौतरी की गई है उसका गुणात्मक असर सामाजिक-आर्थिक संरचना पर पड़ता है अतः यह कहना उचित नहीं है कि केन्द्र सरकार किसी एक वर्ग के लाभ के लिए काम कर रही है। सरकार ने वर्तमान बजट में साफ-सफाई व शुद्ध पेयजल आदि की उपलब्धता को स्वास्थ्य खाते में डाल कर यह सुनिश्चतित करने का प्रयास किया है कि देश के ज्यादा से ज्यादा विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य व चिकित्सा की स्थिति बेहतर हो। क्योंकि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी साफ-सफाई व पेयजल को स्वास्थ्य खाते में डाला हुआ है। 
श्री मोदी ने केन्द्र सरकार की विनिवेश योजना का खुलासा बहुत सलीके से करते हुए गूड आर्थिक पक्षों को सरल करने का प्रयास भी किया और बताया कि बजट में आधारभूत ढांचागत क्षेत्र को मजबूत करने के लिए जो वित्तीय संस्थान बनाने की घोषणा की गई है उसके पीछे अगले चार वर्षों में इस क्षेत्र में 100 लाख करोड़ रुपये का निवेश करने की मंशा है जिसकी घोषणा पिछले वर्ष प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने की थी। यह धन राशि सरकारी कम्पनियों व संस्थानों की सम्पत्तियां (जमीन- जायदाद) आदि बेच कर प्राप्त की जायेगी और देश में विश्व स्तर का आधारभूत ढांचा खड़ा किया जायेगा। इससे न केवल रोजगार बढे़गा बल्कि आर्थिक ढांचा जड़ से मजबूत होगा। यह सवाल श्री सिब्बल ने ही बहुत कलात्मकता के साथ खड़ा किया था कि केन्द्र सरकार ने अपने पिछले बजट में दो लाख करोड़ रुपए से अधिक का विनिवेश लक्ष्य रखा था मगर यहां मात्र 3700 करोड़ ही प्राप्त कर पाई और अब इसने ताजा बजट में यह लक्ष्य पौने दो लाख करोड़ रुपए का तय किया है तो किस प्रकार यह विश्वास अर्जित कर सकती है। यदि गौर से देखा जाये तो भाजपा व कांग्रेस की आर्थिक नीतियों में मूलतः कोई अन्तर नहीं है। दोनों ही पार्टियां खुली व उदार बाजारमूलक अर्थव्यवस्था की वकालत करती हैं परन्तु श्री सिब्बल का तर्क था कि सरकार अर्थव्यवस्था के इन्हीं नियमों के तहत सुचारू रूप से संचालित करने में असमर्थ है जबकि सुशील मोदी का कहना था कि सरकार सही दिशा में आवश्यक कदम उठा रही है।  दरअसल यही लोकतन्त्र की और संसदीय बहस की खूबसूरती है कि इसमें एक ही विषय पर विभिन्न मत व विचार प्रकट होते हैं और लोगों को छूट होती है कि वे जिस तर्क को ज्यादा शक्तिशाली मानें उसे ही अंगीकार करें। इसी वजह से संसद में सरकार के हर फैसले पर बहस कराई जाती है जिससे आम जनता में ‘नीर-क्षीर-विवेक’ पैदा हो सके। वरना सभी को मालूम है कि जिस पार्टी का संसद में बहुमत है अन्त में उसकी ही जीत होगी और बजट पर तो राज्यसभा केवल विचार ही कर सकती है इस पर मतविभाजन का उसे अधिकार नहीं होता। फिर भी यहां लम्बी बहस होती है। इसका उद्देश्य एक ही होता है कि संसद में होने वाली बहस से देश की आम जनता सुशिक्षित होकर जागृत बने।

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