केन्द्र में रही सरकारों द्वारा समय-समय पर नीतियों में परिवर्तन किया जाता है। नीतियों में परिवर्तन न किया जाए तो देश नीतिगत अपंगता का शिकार हो जाता है, जैसा कि मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए-टू के शासन के दौरान हुआ था। रक्षा सौदों में घोटालों के चलते ऐसा वातावरण सृजित हो गया था कि तत्कालीन रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी को कई सौदे तोड़ने का ऐलान करना पड़ा था और घोटालों के भय से उन्होंने सेना को मजबूत करने के लिए हथियारों के सौदे ही नहीं किए थे। इससे देश के रक्षा तंत्र के कमजोर पड़ने की सम्भावनाएं प्रबल हो रही थीं लेकिन मोदी सरकार ने रक्षा तंत्र को मजबूत बनाने के लिए साहसिक निर्णय किए और नीतिगत अपंगता को खत्म किया। गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने सैनिक साजो-सामान और हथियारों के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता हासिल करने के लक्ष्य को केन्द्रित कर नई रक्षा खरीद प्रक्रिया को जारी कर दिया है। नई खरीद प्रक्रिया में बड़ा बदलाव किया गया है। अब हथियारों और सैन्य साजो-सामान को किराये (लीज) पर लेने का विकल्प खोल दिया गया। इस बदलाव के बाद लड़ाकू हैलिकाप्टर, मिलिट्री ट्रांसपोर्ट एयरपोर्ट, नौसैनिक जहाज से लेकर युद्धक साजो-सामान को देश-विदेश कहीं से भी अनुबंध पर लेने का मार्ग प्रशस्त हो गया है। एक और बड़ा बदलाव यह किया गया है कि रक्षा सौदों में ऑफसेट कान्ट्रैक्ट की बाध्यता को भी अब लगभग नगण्य कर दिया गया है।
नई रक्षा खरीद प्रक्रिया में मेक इन इंडिया के तहत घरेलू रक्षा कम्पनियों को ताकत देने की पूरी व्यवस्था की गई है जो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के आत्मनिर्भर भारत के विजन के अनुरूप है। इसका लक्ष्य रक्षा क्षेत्र में एक वैश्विक मैन्यूफैक्चरिंग हब बनाना है।
अब सवाल यह उठता है कि रक्षा सौदों में ऑफसेट नीति को नगण्य क्यों बनाया गया। जिस नीति से कोई फायदा न हो उसे जारी रखने का कोई अर्थ नहीं रह जाता। फ्रांस के साथ राफेल सौदे में ऑफसेट पॉलिसी पूरी न होने पर नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक ने सवाल खड़े किए थे। कैग ने ऑफसेट नीति की व्यावहारिकता और खराब क्रियान्वयन को ही कठघरे में खड़ा कर दिया।
नई डीएपी 2020 बनाने के लिए अगस्त 2019 में महानिदेशक (अधिग्रहण) अपूर्वा चन्द्रा की अध्यक्षता में मुख्य समीक्षा समिति के गठन को मंजूरी दी गई थी। इसके बाद विभिन्न एजैंसियों से मिले सुझावों का विश्लेषण करने के बाद कई लोगों से व्यक्तिगत रूप से आैर वेब कांफ्रैंस के माध्यम से लगातार संवाद किए गए, उनकी चिंताओं को अच्छी तरह से समझा गया। अब ऐसी व्यवस्था की गई है कि सरकार से सरकार, अंतर-सरकार और एकल विक्रेता से रक्षा खरीद में ऑफसेट पॉलिसी लागू नहीं होगी। फ्रांस की कम्पनी दसॉल्ट एविएशन से 59 हजार करोड़ में 36 राफेल विमानों की डील करते समय ऑफ़सेट कान्ट्रैक्ट में डीआरडीओ के कावेरी इंजन की तकनीक देकर 30 फीसदी ऑफसेट पूरा करने की बात तय हुई थी, लेकिन अभी तक यह वादा पूरा नहीं किया गया। भारत की ऑफसेट पॉलिसी के मुताबिक विदेशी कम्पनियों को अनुबंध का 30 प्रतिशत हिस्सा भारत में रिसर्च या उपकरणों पर खर्च करना पड़ता है। राफेल सौदे के अलावा 2015 से लेकर अब तक काफी ऐसे मसले हैं जिनमें ऑफसेट पॉलिसी का पालन नहीं हुआ है। ऑफसेट का समझौता पूरा न होने पर पॉलिसी में ऐसा कुछ भी नियम नहीं है, जिसके तहत विदेशी कम्पनी पर कोई जुर्माना लगाया जा सके। 2005 से 2018 तक विदेशी कम्पनियों से 66 हजार करोड़ के कुल 46 ऑफसेट साइन हुए इनमें से 90 फीसदी मामलों में कम्पनियों ने ऑफसेट के बदले में सिर्फ सामान खरीदा। किसी भी केस में टैक्नोलॉजी ट्रांसफर नहीं हुई। कोई भी देश या कम्पनी अपनी प्रौद्योगिकी देने की इच्छुक नहीं होती। तीनों श्रेणियों के तहत अनुबंधों में ऑफसेट की जरूरतों को समाप्त करना अधिग्रहण (खरीद) की लागत कम करने का परिणाम है क्योंकि रक्षा कम्पनियां ऑफसेट की शर्तों को पूरा करने के लिए लागत में पैसे का ध्यान रखती हैं। ऐसी नीति को जारी रखने का कोई फायदा ही नहीं था।
नई रक्षा नीति में रक्षा उपकरणों की खरीद में लगने वाले समय को कम करने तथा तीनों सेनाओं द्वारा एक सरल प्रणाली के तहत पूंजीगत बजट के माध्यम से आवश्यक वस्तुओं की खरीद की अनुमति देने जैसी विशेषताएं हैं। इस नीति में सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी, अनुबंध के बाद का प्रबंधन, डीआरडीओ तथा रक्षा क्षेत्र के सार्वजनिक उपक्रमों जैसे सरकारी निकायों द्वारा विकसित आवश्यक वस्तुओं की खरीद आदि के संबंध में नए अध्याय शामिल किए गए हैं। भारत के घरेलू उद्योगों के हितों की रक्षा करने तथा आपात प्रतिस्थापन तथा निर्यात के लिए विनिर्माण केन्द्र स्थापित करने के लिहाज से विदेशी प्रत्यक्ष निवेश को बढ़ावा देने का प्रावधान भी शामिल है। रक्षा खरीद प्रक्रिया में इज ऑफ डूइंग बिजनेस के लक्ष्य के तहत 500 करोड़ तक की खरीद को एक स्टेज में मंजूरी दी जाएगी।
कई मामलों में पाया गया कि खरीद की मंजूरी को चार-पांच साल तक लग जाते हैं, तब तक टैक्नोलॉजी आउट डेटेड हो जाती है। रक्षा खरीद प्रक्रिया पहली बार 2002 में बनी थी, जिसमें समय-समय पर बदलाव होते रहे हैं।