दुनियाभर में सभ्यता और मजबूत संस्कृति का ढिंढोरा पीटने वाले हमारे भारतीय समाज की तरफ से भी लागातार ऐसी घटनाओं को अंजाम दिया जाता रहा है जिससे यही लगता है कि हम सब भीतर से आक्रोश में हैं। भीतर का गुस्सा पता नहीं कब किस मुद्दे पर निकल जाए, एक जुनून बनकर सामने आ जाए और बाद में उसके बहुत ही विपरीत प्रभाव दिखाई देने लगे। समूह में इकट्ठा हुए लोगों द्वारा जिस तरह से अचानक अराजकता को अपना लिया जाता है क्या इसे किसी भी सभ्य समाज में स्वीकार किया जा सकता है?
ऐसी घटनाओं को लेकर विवेक से काम लिया जाना चाहिए लेकिन हम भारतीय बहुत अराजक होकर खुद ही इंसाफ करने का तरीका अपना लेते हैं। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने देशभर में हो रही मॉब लिंचिंग की घटनाओं पर सख्त रुख अख्तियार करते हुए कहा था कि कानून-व्यवस्था, समाज की बहुलवादी संरचना और विधि के शासन को बनाए रखना राज्य का कर्त्तव्य है। मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति ए.एम. खानविलकर और न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली पीठ ने यह भी कहा कि नागरिक कानून को अपने हाथ में नहीं ले सकते हैं, वे स्वयं में कानून नहीं बन सकते। भय तथा अराजकता की परिस्थिति में सरकार को सकारात्मक कदम उठाना होता है। हिंसा की अनुमति किसी को भी नहीं दी जा सकती।
भीड़तंत्र की भयावह गतिविधियों को नई परिपाटी नहीं बनने दिया जा सकता, इनसे कठोरता से निपटने की जरूर है। न्यायालय ने भीड़ की हिंसा से निपटने के लिए निवारक, उपचारात्मक और दंडात्मक कदमों सहित कई दिशा-निर्देश भी जारी किए और स्पष्ट किया कि लोकतंत्र को भीड़ तंत्र में बदलने नहीं दिया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने संसद से इस अपराध से निपटने के लिए कानून बनाने की अनुशंसा की है। सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र तथा राज्य सरकारों से कहा कि वे न्यायालय के निर्देशानुसार ऐसे अपराधों से निपटने के लिए कदम उठाएं।
बुलंदशहर में हाल ही में पुलिस इंस्पेक्टर सुबोध कुमार की भीड़ द्वारा हत्या किए जाने की खबरें अभी खत्म नहीं हुई थी कि शनिवार की शाम प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की रैली से लौट रहे पुलिस पार्टी के एक जवान की भीड़ ने पीट-पीट कर हत्या कर दी। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की रैली में जाने से रोकने पर निषाद पार्टी के कार्यकर्ताओं ने जमकर बवाल काटा और आगजनी कर चक्का जाम किया। वाहनों में तोड़फोड़ कर पुलिस कर्मियों को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा जिससे एक सिपाही सुरेन्द्र वत्स की मौत हो गई। सुबोध कुमार की हत्या पर भी सवाल उठे थे। उनकी हत्या के बाद उत्तर प्रदेश पुलिस ने जल्दबाजी में कुछ लोगों को गिरफ्तार किया था लेकिन पुलिस की सारी कहानी फर्जी निकली।
हत्या के आरोप में पकड़े गए अधिकांश युवक निर्दोष निकले और अब दावा किया जा रहा है कि असली हत्यारे को पकड़ लिया गया है। अब भीड़ द्वारा एक पुलिस जवान की पीट-पीट कर हत्या किए जाने पर भी सवाल उठ खड़े हुए हैं। यद्यपि मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ ने 50 लाख मुआवजे की घोषणा कर दी है लेकिन यह मुआवजा भी मारे गए सिपाही के परिवारजनों के आंसू नहीं रोक सकता। इसके लिए जिम्मेदार कौन है? कैसी है पुलिस की व्यवस्था जो भीड़ तंत्र से अपने साथी जवान को नहीं बचा सकी। यह न्याय पर हावी होता भीड़ तंत्र है।
पुलिस जवान की डंडे के बिना कुछ हैसियत नहीं। उसकी खाकी वर्दी और हाथ में डंडा उसे सरकार का प्रतिनिधि करार देता है।
अगर सरकार के प्रतिनिधि की ही हत्याएं हो रही हैं तो फिर बचा ही क्या रह जाएगा। इसका अर्थ यही है कि उत्तर प्रदेश में अराजकता का माहौल कायम हो चुका है किन्तु आज की मॉब लिंचिंग सांप्रदायिक और जातीय हिंसा का एक परिष्कृत आैजार है। इसमें से आकस्मिकता का तत्व नदारद है। यह सुनियोजित है। यहां हिंसा के कारण को समझना आसान नहीं है। हिंसा का कारण यहां प्रत्यक्ष नहीं है। एक समुदाय या जाति के बहुत से व्यक्ति यहां सोशल मीडिया और अन्य साधनों द्वारा किए जाने वाले दुष्प्रचार के कारण किसी दूसरी जाति या समुदाय के व्यक्ति को शत्रु समझने लगते हैं। भौतिक रूप से यह जाति और समुदाय वर्षों पुराने आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक संबंधों में बंधे दिखते हैं किन्तु मानसिक रूप से इनके मध्य संदेह और घृणा की दीवारें खड़ी हो चुकी होती हैं।
मॉब लिंचिंग देश और समाज को विघटित करने का सबसे आधुनिक और परिष्कृत जरिया है। भीड़ में दोषियों की पहचान और उन्हें दंडित करना हमेशा से कठिन रहा है। किसी देश और समाज के हजारों लोगों को दंडित करना न प्रायोगिक है न उचित। हिंसक भीड़ को गढ़ने वाले आरोपियों के लिए यह अत्यंत सुविधाजनक स्थिति है। अज्ञात स्थानों से अज्ञात लोगों द्वारा संचालित सोशल मीडिया एकाउंट्स के माध्यम से बिना खर्च के हिंसक भीड़ को तैयार कर उसे अपने लक्ष्य की ओर निर्देशित करना आमने-सामने के युद्ध से कहीं सरल और सस्ता है। साइबर कानूनों का निर्माण और क्रियान्वयन होते-होते जितना विध्वंस होना है वह हो चुका होगा। जिस तेजी और ताकत से हिंसा को महिमामंडित किया जा रहा है वह दिन दूर नहीं जब सर्वाधिक रचनात्मक ढंग से हिंसा करती भीड़ के साथ एक सेल्फी-जैसी प्रतियोगिताएं सोशल मीडिया पर आयोजित होने लगेंगी। हमारे देश में अगर पुलिस भी सुरक्षित नहीं तो सवाल तो उठेंगे ही।