भारत के संसदीय लोकतन्त्र की नींव विचार विनिमय पर इस प्रकार रखी हुई है कि संसद के भीतर बहुमत की सरकार का कोई भी प्रस्ताव या विधेयक बिना गहन चर्चा व वैचारिक आदान-प्रदान के पारित नहीं होता। इसकी वजह यही है कि संसद के भीतर बैठे विपक्ष और सत्ता पक्ष दोनों ही आम जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं। मोटे तौर पर इसका मतलब यही होता है कि लोकतान्त्रिक प्रणाली इकतरफा नहीं होती और अल्पमत व बहुमत के सामंजस्य से इस पकार चलती है कि असहमति भी सम्मान के साथ दर्ज होती चले। संसदीय प्रणाली में व्यक्तिगत बहुमत हासिल करके संसद या विधानसभा का सदस्य बनाया जाता है जिससे सदन के ‘भीतर’ और ‘बाहर’ के ‘जन बहुमत’ में अन्तर रह सकता है।
लोकसभा में पहुंचे सदस्यों के ‘दलगत बहुमत’ के आधार पर ही सरकार का गठन होता है जिससे आम जनता द्वारा सत्ता व विपक्ष के हक में दिये गये मतों के प्रतिशत में कभी-कभी बड़ा अन्तर भी देखने को मिलता है। अतः संसद में सरकार के हर महत्वपूर्ण फैसले पर मतविभाजन की प्रक्रिया ‘जनमत’ व ‘बहुमत’ के बीच भेद करती है और विपक्ष की भूमिका को ‘अल्पमत’ के घेरे से बाहर करती है। प्रसन्नता की बात है कि वित्तमन्त्री श्रीमती निर्मला सीतारमन ने एक साक्षात्कार में स्वीकार किया है कि कोरोना वायरस से पैदा हुए लाॅकडाऊन की वजह से खस्ता हुई अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए उन्होंने जो 20 लाख करोड़ रुपए की वित्तीय मदद का पैकेज घोषित किया है वह अन्तिम नहीं है। उनके सामने सरकार के बाहर से आये कई सुझाव भी विचारणीय रहे हैं और भविष्य की अनिश्चितता को देखते हुए उनका हाथ बन्धा हुआ नहीं है। असल में उनका इशारा पूर्व वित्तमन्त्री श्री पी. चिदम्बरम के उस सुझाव की तरफ था जिसमें श्री चिदम्बरम ने बाजार से और अधिक ऋण लेकर अर्थव्यवस्था में नकद रोकड़ा डालने की तजवीज रखी थी और कहा था कि सरकार को अगर इस प्रक्रिया में कर्ज को पूरा करने के लिए एवज में नये ‘करेंसी नोट’ भी छापने पड़े तो घबराना नहीं चाहिए। श्रीमती सीतारमन ने इस सुझाव को खारिज नहीं किया है और कहा है कि भविष्य को देख कर वह इसका फैसला करेंगी पहले यह देखना होगा कि लाॅकडाऊन से लकवा मारी अर्थव्यवस्था मौजूदा पैकेज की मदद से किस करवट बैठती है। यह भी प्रशंसनीय है कि उन्होंने श्री चिदम्बरम के देश के आधे यानी 13 करोड़ गरीब परिवारों के जनधन खातों में अधिक धनराशि जमा करने के सुझाव से भी नाइत्तेफाकी नहीं दिखाई और बेहिचक कहा कि यह भी उनके विचार में रहा है मगर अभी दो महीने पहले ही उन्होंने चालू वित्त वर्ष का पूरा बजट पेश किया था और इसके दस महीने बाकी बचे हुए हैं इस दौरान अर्थ व्यवस्था को लाॅकडाऊन के लकवे से उठाने के लिए कसरत तो जारी रहेगी। फिलहाल तो उन्होंने जो घोषणा की है उसका असर देखना होगा क्योंकि आर्थिक विशेषज्ञ व संस्थाएं कह रही हैं कि अर्थव्यवस्था बजाय वृद्धि करने के नीचे की तरफ जा सकती है। अतः भविष्य को संवारने के सभी विकल्प खुले रखने होंगे और वित्तीय घाटे का मुद्रीकरण (करेंसी नोट छाप कर इसे पूरा करना) भी विचारयोग्य हो सकता है। इस बारे में फिलहाल वह हां या ना नहीं कह सकती।’’ मैं हरेक उपाय के लिए स्वयं को तैयार रखना चाहती हूं।’’ इस सन्दर्भ में सबसे महत्वपूर्ण यह है कि कोरोना एक राष्ट्रीय आपदा है और लाॅकडाऊन से जीवन का हर क्षेत्र प्रभावित हुआ है अतः इसका मुकाबला भी पूरे देश को एकजुट होकर इस प्रकार करना है कि सत्ता व विपक्ष का आपसी विचार विनिमय कोई औपचारिकता न होकर सामान्य गतिविधि बन जाये क्योंकि जहां श्रीमती निर्मला सीतारमन ने लोगों के कष्ट दूर करने की गरज से वित्तीय पैकेज दिया वहीं चिदम्बरम ने वित्त विशेषज्ञ व पूर्व वित्तमन्त्री होने के नाते गरीबों को सशक्त बनाने और अर्थव्यवस्था को मजबूत करने का सुझाव दिया। जाहिर है कि इन सुझावों में न तो राजनीतिक पुट है और न ही सरकार के फैसलों में बदगुमानी है। यह बेशक हो सकता है कि आर्थिक पैकेज से गरीब व मजदूर वर्ग की अपेक्षा पूरी न हुई हो मगर ‘नीयत’ साफ है और ‘नीति’ में संशोधन की गुंजाइश है। लोकतन्त्र की आत्मा यही होती है कि विचार ‘मतभेद’ के बीच से ‘सहमति’ बनाई जाये। श्रीमती निर्मला सीतारमन के मत से यह साफ हो गया है कि वह विपक्ष के विचारों के प्रति सहृदयता रखती हैं चाहे उनकी भाषा कितनी ही रूखी क्यों न हो। वित्त मन्त्रालय की मजबूरी होती है इसमें लफ्फाजी काम नहीं आती क्योंकि आंकड़े पूरी कहानी खुद ही सुनाते चलते हैं। तथ्यों की रोशनी में वित्त मन्त्रालय चलता है और इस तरह चलता है कि देश में हो रहा विकास सड़कों पर नजर आये। इसका सामना श्री चिदम्बरम तीन बार बतौर वित्तमन्त्री कर चुके हैं और श्रीमती सीतारमन पहली बार कर रही हैं। अतः तजुर्बे का फायदा उठाना भी नीति कहती है और ‘भागवान’ मन्त्री समझी जाने वाली निर्मला सीतारमन का दिल इस मामले में खुला हुआ लगता है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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