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नीति आयोग और राज्य सरकारे

दिल्ली में ही राष्ट्रीय नीति आयोग की बैठक से ग्यारह राज्यों के मुख्यमन्त्रियों का नदारद रहना यह बताता है कि राज्यों के संघ के रूप में जिस एकात्म भारत की परिकल्पना हमारे संविधान में की गई है उसकी भावना को हल्के में लिया जा रहा है।

दिल्ली में ही राष्ट्रीय नीति आयोग की बैठक से ग्यारह राज्यों के मुख्यमन्त्रियों का नदारद रहना यह बताता है कि राज्यों के संघ के रूप में जिस एकात्म भारत की परिकल्पना हमारे संविधान में की गई है उसकी भावना को हल्के में लिया जा रहा है। नीति आयोग का गठन 2014 के बाद योजना आयोग को भंग करके किया गया था। योजना आयोग के बारे में कहा जाता था कि इसमें लाल फीताशाही या अफसर शाही का जोर रहता था और राज्यों के मुख्यमन्त्री तक एक मन्त्रालय से दूसरे मन्त्रालय तक के चक्कर लगाने के मजबूर रहते थे। मुख्यमन्त्रियों को अपने राज्य की योजनाओं के लिए धन लेने के वास्ते दिल्ली के चक्कर पर चक्कर काटने पड़ते थे। प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू द्वारा स्थापित किये गये योजना आयोग का ढांचा बाद में 2004 तक पूरी तरह अफसरी अंदाज में चलने लगा था जबकि स्वयं प्रधानमन्त्री ही इसके अध्यक्ष हुआ करते थे। बेसक इसका उपाध्यक्ष कोई राजनीतिज्ञ ही होता था मगर सारा काम अफसरशाही के भरोसे ही रहता था।
योजना आयोग विकास का जो नमूना तैयार करता था उसे हर राज्य पर उसकी विशिष्ट परिस्थितियां व भौगोलिक व सामाजिक संरचना जाने बिना ही एक समान रूप से लागू कर दिया जाता था। बल्कि हकीकत तो यह है कि नेहरू जी के जमाने में ही जब ओडिशा के मुख्यमन्त्री डा. हरेकृष्ण मेहताब थे तो उन्होंने योजना आयोग के काम करने के तरीके से बहुत ही हताशा प्रकट की थी। उन्होंने नेहरू जी को एक पत्र लिख कर कहा था कि ‘विश्व बैंक और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की नकल पर भारत का विकास करने को आतुर योजना आयोग के अफसरों को इस देश की मूल विकास समस्याओं के बारे में कोई ज्ञान ही नहीं है। ऐसे अंग्रेजी दां लोग भारत के गांवों के बारे में कुछ नहीं जानते हैं’। इसके बावजूद  योजना आयोग द्वारा बनाई गई पंचवर्षीय योजनाओं की मार्फत ही 1990 तक लगातार आर्थिक तरक्की करता रहा और यह एक औद्योगिक राष्ट्र बना तथा इसके समाज में बहुत बड़े मध्यवर्गीय उपभोक्ता श्रेणी का निर्माण हुआ। 
पंचवर्षीय योजनाओं के दौरान की गई तरक्की के बूते पर ही भारत 1991 में अपनी अर्थव्यवस्था को विदेशी कम्पनियों के लिए खोलने की हिम्मत जुटा सका क्योंकि तब तक भारत का निजी उद्योग इस काबिल बन चुका था कि वह विदेशी प्रतियोगिता के सामने टिक सके। भारत की इस अपार क्षमता को देख कर ही विदेशी कम्पनियां 1991 के बाद से इस देश में निवेश करने को आतुर हुईं क्योंकि उन्हें भारत में पहले से ही तैयार एक बहुत बड़ा बाजार नजर आ रहा था। संरक्षित अर्थव्यवस्था के चलते यह बाजार उपभोक्ता सामग्री के विविधिकरण पर जोर नहीं दे पा रहा था अतः 1991 के बाद विदेशी निवेश खुल जाने व निजी उद्योग पर लगे विभिन्न नियन्त्रण समाप्त हो जाने पर भारतीय बाजार चहकने लगे और इनमें उत्पादों की किस्में अपना रंग दिखाने लगीं। साथ ही वित्तीय या बैंकिंग संशोधनों के बाद भारत के मध्य वर्गीय उपभोक्ताओं के लिए महंगे या विलासितापूर्ण समझे जाने वाले उत्पाद (जैसे मोटर, कार, स्कूटर, फ्रिज, ए.सी.  आदि) जीवन जीने के जरूरी सामान बनते गये। इसके समानान्तर ही स्वास्थ्य व शिक्षा जैसे सामाजिक क्षेत्रों का भी वाणिज्यिकरण या बाजारीकरण होता चला गया और सार्वजनिक कम्पनियां भी निजी क्षेत्र के लिए खोली जाने लगीं जिसकी वजह से योजना आयोग की उपयोगिता धीरे-धीरे कम महसूस की जाने लगी। 
यहां तक कि पैट्रोल के दाम भी सीधे अन्तर्राष्ट्रीय बाजार भावों से बांध दिये गये और ऐसा ही सोने के साथ ही किया गया। सबसे महत्वपूर्ण बदलाव सोने के दामों व विदेशी मुद्रा डालर के भावों को लेकर किया गया। डालर के भावों को तय करना रिजर्व बैंक ने छोड़ दिया और मुद्रा बाजार इसके भाव रुपये के मुकाबले तय करने लगा। अतः 2004 तक आते-आते ही योजना आयोग की आवश्यकता नगण्य जैसी हो गई लेकिन केन्द्र में इस वर्ष कांग्रेस नीत मनमोहन सरकार आ जाने की वजह से योजना आयोग बदस्तूर काम करता रहा। इसकी असली वजह यह थी कि 1991 में वित्त मन्त्री की हैसियत से डा. मनमोहन सिंह ने ही खुली अर्थव्यवस्था लागू की थी। वह चाह कर भी पं. नेहरू द्वारा स्थापित योजना आयोग को भंग नहीं कर सकते थे। जबकि उनके शासनकाल में ही आयोग की पंचवर्षीय योजनाएं सीमित हो गई थीं। अतः 2014 में श्री नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमन्त्री बनते ही योजना आयोग को भंग करके नीति आयोग की स्थापना कर डाली। इसका उद्देश्य राज्यों की सलाह से उनके लिए विकास योजनाओं के लिए धन मुहैया करना था परन्तु इसमें भी बाद में दिक्कतें आने लगी थीं। 
जीएसटी लागू होने की वजह से राज्य केन्द्र से मिलने वाले अपने अंशदान पर निर्भर रहने लगे और गैर भाजपा राज्य शिकायत करने लगे कि जीएसटी में उनके हिस्से का धन मिलने में केन्द्र से बहुत देरी होती है। ये राज्य अपने साथ सौतेले व्यवहार की शिकायत करने लगे। वैसे मनमोहन सरकार में जब श्री मणिशंकर अय्यर पंचायत राज्य मन्त्री थे तो उन्होंने प्रस्ताव दिया था कि राज्यों की विकास योजनाएं पंचायत स्तर से गांव के विकास की तैयार होते हुए राज्य के सकल विकास तक जानी चाहिए और फिर योजना आयोग को  मंजूरी देनी चाहिए लेकिन नीति आयोग की बैठक का बहिष्कार करना कोई हल नहीं समझा जा सकता। लोकतन्त्र में संवाद जहां रुकता है वहां कठिनाई और भी ज्यादा बढ़ जाती है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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