जब भी विधायिका और कार्यपालिका अपने दायित्व निभाने में विफल रहती हैं तो न्यायपालिका का हस्तक्षेप बढ़ता ही है। यह सवाल बार-बार उठता रहा है कि लोग आखिर छोटे-छोटे कामों के लिए न्यायपालिका का द्वार खटखटाते ही क्यों हैं? इसका सीधा सा उत्तर है कि कार्यपालिका निठल्ली हो चुकी है और लोगों को अपने हितों की रक्षा के लिए अदालतों में जाना पड़ता है। न्यायाधीशों की न्यायिक सक्रियता को लेकर भी सवाल उठते रहे हैं लेकिन जब सरकारें कुछ नहीं करतीं तो न्यायपालिका का हस्तक्षेप जरूरी भी हो जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने कचरा प्रबन्धन रणनीति पर अपनी नीतियों पर हलफनामा दायर करने पर 10 राज्यों और 2 केन्द्रशासित राज्यों पर जुर्माना लगाते हुए गम्भीर टिप्पणी की कि दिल्ली कूड़े के ढेर पर बैठी है और मुम्बई पानी में डूब रही है लेकिन सरकार कुछ नहीं करती।
शीर्ष अदालत ने केन्द्र आैर दिल्ली सरकार से इस बारे में रुख स्पष्ट करने को कहा है कि राष्ट्रीय राजधानी में कूड़े के पहाड़ को साफ करने की जिम्मेदारी किसकी है, उपराज्यपाल के प्रति जवाबदेह अधिकारियों की या मुख्यमंत्री के प्रति जवाबदेह अधिकारियों की? सुप्रीम कोर्ट का आदेश ऐसे समय में आया है जब दिल्ली सरकार अाैर उपराज्यपाल के बीच अधिकारों को लेकर संघर्ष जारी है। अब अधिकारियों के तबादलों को लेकर दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल के बीच टकराव एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट पहुंच चुका है। सुप्रीम कोर्ट ने तल्ख लहजे में कहा है कि ठोस कचरा प्रबन्धन के नियम 8 अप्रैल 2016 को लागू किए गए थे। लगभग 2 वर्ष बीत चुके हैं लेकिन अब तक कुछ राज्य आैर केन्द्रशासित प्रदेशों ने बेसिक चीजों तक का अनुपालन नहीं किया है। जब सरकारें संसद के कानून को नहीं मान रहीं तो वे नियमों का पालन कैसे करेंगी? मुम्बई की बाढ़ और दिल्ली में कूड़े-कचरे के ढेरों को लेकर स्थानीय निकाय भी कोई कम जिम्मेदार नहीं। उनके निकम्मेपन का खामियाजा लोगों को भुगतना पड़ रहा है। सुप्रीम कोर्ट इससे पहले भी टिप्पणी कर चुका है कि अगर ऐसे ही चलता रहा तो भारत एक दिन कूड़े के ढेर में दब जाएगा। वह दिन दूर नहीं जब दिल्ली के गाजीपुर में कचरा निपटान स्थल पर कूड़े का ढेर 73 मीटर ऊंचे कुतुब मीनार की ऊंचाई के बराबर हो जाएगा, फिर वहां विमान को बचाने के लिए लालबत्ती लगानी पड़ेगी।
दिल्ली हो या देश के बड़े या छोटे शहर, कूड़ा-कर्कट विकास को मुंह चिढ़ाता दिखाई देता है। आज देश की सबसे बड़ी दुर्गति स्वच्छता को लेकर ही हुई है। वास्तव में हमने सफाई की संस्कृति को छोड़कर कचरा संस्कृति अपना ली है तभी तो हर दिन भारत एक लाख टन से ज्यादा कूड़ा पैदा कर देता है। कचरे के निपटान की हमारे पास कोई ठोस व्यवस्था ही नहीं ताे फिर इसके भयानक पिरणाम भी सामने आ रहे हैं। हर मौसम में राजधानी में मलेरिया, डेंगू, चिकनगुनिया जैसी बीमारियां लोगों को जकड़ लेती हैं। कूड़ा सड़ता रहता है, जीवाणु, विषाणु और बदबू फैलती रहती है। शहरीकरण ने हमारे जीवन स्तर को ऊंचा उठाने और उसे व्यवस्थित करने की दिशा में भले ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हो लेकिन उससे हमारे समक्ष कई चुनौतियां भी उत्पन्न हुई हैं। पुराने कूड़े से हम निपट नहीं पाते तब तक नए कूड़े के ढेर खड़े हो जाते हैं। आसपास के कई किलोमीटर के इलाके रहने लायक नहीं रहते।
सबसे बड़ा सवाल यह है कि कचरा निपटान का कार्य कैसे होगा? अब समय आ चुका है कि भारत को ‘नॉट इन माय बैक यार्ड’ पद्धति को स्वीकार करना होगा। बहुत लम्बे समय से हम अपने शहरों के पिछवाड़े कचरा डम्प कर रहे हैं जहां गरीब रहते हैं लेकिन बढ़ते शहरीकरण के चलते आबादी का घनत्व बढ़ता गया। अनधिकृत कालोनियां बसती गईं। आज लोग कचरा संस्कृति के खिलाफ आवाज बुलन्द करने लगे हैं। दिल्ली हर रोज 10100 टन कूड़ा उगलती है। पूर्वी दिल्ली नगर निगम के तहत गाजीपुर लैंडफिल साइट पर 2500 टन कूड़ा रोज डाला जाता है। यहां पर 10 मेगावाट का बिजली संयंत्र लगा है, जिसमें 1200 टन कूड़े का निस्तारण किया जाता है। भलस्वा लैंडफिल साइट पर 1500 टन कूड़ा रोज डाला जाता है। नरेला-बवाना लैंडफिल साइट पर 2500 टन कूड़ा डाला जाता है। यहां 2000 मीट्रिक टन कूड़े से रोजाना 24 मेगावाट बिजली का उत्पादन किया जाता है। दक्षिणी दिल्ली में आेखला लैंडफिल साइट पर 3600 टन कूड़ा रोज डाला जाता है। इसमें से 1800 टन कूड़े से 1500 मेगावाट बिजली बनाई जाती है। स्पष्ट है कि रोज डाले जाने वाले कूड़े का निपटारा उतना नहीं हो रहा जिससे ही समस्या सुलझ जाए।
बिजली पैदा करने वाले संयंत्रों की क्षमता काफी कम है। जैविक कचरे की बात करें तो उसमें जरूरी बैक्टीरिया और एंजाइम मिलाकर मिथेन गैस आैर जैविक खाद का उत्पादन किया जा सकता है। ऐसी प्रौद्योगिकी भी अब सहज है लेकिन इस दिशा में गम्भीर प्रयास नहीं किए गए। जैविक खाद तो शहरी निकायों का बागवानी विभाग, वन विभाग, कृषि विभाग, कृषि विश्वविद्यालय और अन्य संस्थाएं खरीद सकती हैं। सालिड वेस्ट की रीसाइकलिंग की जा सकती है। स्थानीय निकायों के पास तो इतने साधन नहीं होते कि वह अपने सीमित साधनों से कचरे का निपटान कर सकें। निश्चित रूप से यह काम युद्धस्तर पर सरकारों को ही करना होगा। सरकारों को सहकारी संस्थाओं की मदद लेनी होगी आैर आधुनिकतम प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करना होगा। अब सोचने का वक्त नहीं बचा है कि यह कूड़ा दिल्ली सरकार का है या केन्द्र का या फिर नगर निगम का है। अब पॉलिथिन से पैट्रोलियम पदार्थ बनाए जा सकते हैं। पुराने टायरों का इस्तेमाल सड़कें बनाने में किया जा रहा है। कचरा निपटाने पर अधिकारों की जंग लड़ने की बजाय समस्या के समाधान को लेकर एक ठोस रणनीति अपनानी होगी वरना दिल्ली कूड़े के ढेर के बीच दबकर रह जाएगी, जहां सांस लेना भी दूभर होगा।