भारत के प्रति अमरीका की नीति में एेतिहासिक रूप अंतविरोधी पुट रहा है। यह अवसर के अनुरूप अपने रुख में परिवर्तन करने का आदी रहा है और हमेशा कोशिश करता रहा है कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतन्त्र यह देश उसका पिछलग्गू न केवल बना रहे बल्कि दिखाई भी दे। भारत में 1991 के बाद आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू होने के बाद कई एेसे अवसर आये जब अमरीका ने भारत को अपनी ताकत के आगे झुकाने की कोशिश की और इस देश के राजनीतिज्ञों के कौशल व क्षमता को कम करके आंकने की कोशिश की मगर भारत वह देश रहा है जिसमें एेसे राजनीतिज्ञों की भी कमी नहीं रही है जिन्होंने मुल्क की अजमत की खातिर अपनी हस्ती को भी दांव पर लगाने में हिचक नहीं दिखाई। हाल-फिलहाल में एेसा ही गंभीर अवसर तब आया था जब 2008 में अमरीका के साथ भारत ने परमाणु करार पर हस्ताक्षर किये थे। यह इतिहास में दर्ज हुई सच्चाई है कि उस समय विदेश मन्त्री के औहदे पर तैनात श्री प्रणव मुखर्जी ने इसी करार के मसले पर भारत की उस अजीम ताकत को दुनिया के सामने उतार कर रख दिया था जिसे नेहरू से लेकर इन्दिरा गांधी ने बड़े यत्न से कायम किया था और ऐलान किया था कि करार होगा तो दोनों मुल्कों को एक बराबरी के पलड़े पर रखकर ही होगा और इस मामले में भारत का रुख वही होगा जिसे वह अपने हक में समझेगा। अमरीका को अब यह देखना होगा कि वह किस हद तक आगे बढ़कर भारत के साथ करार को तैयार है।
श्री मुखर्जी ने साफ कह दिया था कि भारत किसी भी तौर पर ‘परमाणु अप्रसार सन्धि’ पर हस्ताक्षर नहीं करेगा क्योंकि वह अपने स्व. नेता राजीव गांधी के उस प्रस्ताव से पूरी तरह बन्धा हुआ है कि दुनिया के सभी देशों को अपने-अपने परमाणु हथियार समुद्र में डुबो कर पूरी दुनिया को परमाणु खतरे से निजात दिलानी चाहिए, यह नहीं हो सकता कि विश्व के पांच चुने हुए देश अपने हाथ में परमाणु हथियारों का जखीरा रखे हुए बाकी देशों को नसीहत देते फिरें कि वे परमाणु परीक्षण करने से बाज आयें। अतः यह संभव नहीं है। अमरीका को अगर भारत से करार करना है तो वह भारत की इस हकीकत का ‘इकरार’ करते हुए ही ‘करार’ को ‘अंजाम’ दे। यह अमरीका को देखना होगा कि वह सन्धि पर हस्ताक्षर न करने वाले देश के साथ अपने संविधान के मुताबिक किस तरह परमाणु करार कर सकता है। तब आजकल भारत यात्रा पर आये अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति श्री बराक ओबामा विपक्ष के नेता थे और उन्होंने अमरीकी कांग्रेस में भारत के साथ करार करने की शर्तों में संशोधन पेश करते हुए जोर दिया था कि भारत को अमरीका की शर्तें मानने के लिए मजबूर किया जाये। इसे ‘ओबामा संशोधन’ के नाम से वाशिंगटन में जाना गया था मगर भारत में जब जुलाई 2008 में लोकसभा का विशेष सत्र बुलाकर मनमोहन सरकार ने करार पर सदन का विश्वास मत हासिल कर लिया तो अमरीका ने पुनः भारत को गफलत में डालने की गरज से अपनी तब की विदेश मन्त्री कोंडालिजा राइस को नई दिल्ली भेजा और चाहा कि भारत इकरारनामे पर हस्ताक्षर कर दे।
तब श्री प्रणव मुखर्जी चट्टान की तरह बीच में खड़े हो गये और उन्होंने पूछा कि करार पर अमरीकी संसद की स्वीकृति कहां है क्योंकि अमरीका के कानून के अनुसार करार पर वहां की संसद की मंजूरी जरूरी थी। उन्होंने कोंडालिजा राइस को बैरंग लौटा दिया और कहा कि भारत तभी दस्तखत करेगा जब अमरीका अपनी संसद से इस पर मुहर लगवा लेगा। यही भारत की अजीम ताकत का वह इजहार था जिससे अमरीका हैरान रह गया था और उसने सोचा था कि वह भारत के राजनीतिज्ञों को जैसा चाहे वैसे घुमा सकता है। अमरीका की बदगुमानी भारत ने 1971 के बंगलादेश युद्ध के समय भी तोड़ी थी और उसे जता दिया था कि बंगाल की खाड़ी में खड़ा हुआ उसका ‘सातवां जंगी जहाजी एटमी बेड़ा’ किसी भी सूरत में पाकिस्तान के दो टुकड़े होने से नहीं बचा सकता। उस समय की प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी का यह अहद था कि भारत को दो टुकड़ों में 1947 में तोड़ने वाली मुस्लिम लीग के हिन्दू-मुस्लिम आधार पर दो देश बनवाने के सिद्धान्त के परखचे इस तरह उड़ाये जायेंगे कि पूरी दुनिया देखेगी कि हिन्दोस्तान की रूह में बसी ‘इंसानियत’ हर मुश्किल से मुश्किल घड़ी में भी इसके लोगों को जोड़े रखने की ताकत रखती है। अतः भारत की सामाजिक समरसता व एकता बनाये रखने के लिए हमें किसी दूसरे देश के राजनीतिज्ञ की नसीहत की बिल्कुल भी दरकार नहीं है। पहले श्री ओबामा यह सोचें कि उनके ही मुल्क की सरकार ने गुजरात के 2002 दंगों के बाद श्री नरेन्द्र मोदी को अमरीका का वीजा देने से क्यों इंकार कर दिया था जबकि वह गुजरात के लोगों द्वारा चुने हुए मुख्यमन्त्री थे। भारत के लोगों को कोई भी यह नसीहत नहीं दे सकता कि उनके समाज के किसी एक सम्प्रदाय के लोगों को नजरन्दाज न किया जाये। भारत के लोकतंत्र में इतनी ताकत, शक्ति और सामर्थ्य है कि वह इस प्रकार की राजनीति करने वाले लोगों को हाशिये पर फैंक सकता है।
भारत के लोगों से यह छिपा नहीं है कि किस तरह हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग के नेताओं ने एक-दूसरे का सिर कलम करने की धमकी देते हुए 1936 में बंगाल में आजादी से पहले मिलकर सरकार बनाई थी और इसके बाद किस तरह भारत को दो टुकड़ों में इन्हीं ताकतों ने बांट कर सोचा था कि अब उनका ही राज चलेगा मगर भारत के लोगों ने एेसी ताकतों को सिर उठाने का मौका नहीं दिया, किन्तु एेसा भी नहीं है कि स्वतन्त्र भारत में इन ताकतों ने लोगों में गफलत फैलाने की कोशिश न की हो, मगर यह भी हकीकत है कि चुनावी मौकों पर इनके चेहरों पर पड़े नकाब खुद-ब-खुद ही उतरने लगते हैं और लोग सोचने लगते हैं कि मंजिल से भटकाने का हर साजो-सामान हाथ में लिये बैठे ये लोग आखिरकार उन्हें किन ख्वाबों में भटकाना चाहते हैं, लेकिन सनद रहनी चाहिए कि ये भारत के लोग ही हैं जो संसद से लेकर विधानसभा में बैठने वाले लोगों की उस वक्त खुद ‘रहनुमाई’ करने लगते हैं जो उन्हें मंजिल से भटकाने के ख्वाब देखते हैं। हिन्दोस्तान के चुनावों का इतिहास यही इतिहास है जिसने न जाने कितने नेता बना और बिगाड़ दिये, इसलिए ओबामा को कुछ नसीहत लेनी है तो वह भारत की जनता से लें और उस जनता से लें जिसने अमरीका से भी पहले इंसानियत के आधार पर इस मुल्क के हर गोरे-काले से लेकर आदिवासी व दलित को एक समान अधिकार दिये मगर भारत में आजकल अजीब माहौल बनाने की कोशिश की जा रही है। अमरीका की कोई एजेंसी अगर हमारी तारीफ कर देती है तो हम बांस पर चढ़ जाते हैं और अगर वहां का राष्ट्रपति हमारी थोड़ी भी तारीफ कर देता है तो हम छत पर खड़े होकर मुनादी करने लगते हैं। हम भूल जाते हैं कि हम उस स्वामी विवेकानंद के वारिस हैं जिसने अमरीका में जाकर वहां एेलान किया था कि हिन्दोस्तान उस शै का नाम है जो पूरी दुनिया काे ही एक परिवार मानता है।