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ओडिशा गोलीकांड और बापू

ओडिशा के स्वास्थ्य मन्त्री श्री नब किशोर दास की राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की पुण्यति​थि से केवल एक दिन पहले ही गोली मारकर हत्या किये जाने की घटना हमें याद दिलाती है कि आजादी के 75 वर्ष बाद भी भारत में वह हिंसक प्रवृत्ति समाप्त नहीं हुई है जिसकी वजह से अहिंसा के पुजारी बापू को अपना जीवन गंवाना पड़ा था। नब किशोर दास ऐसे राज्य के राजनीतिज्ञ थे जहां की राजनीति प्रारम्भ से ही महात्मा गांधी के सिद्धान्तों को आगे रखकर की जाती रही है। ओडिशा में सत्ता में रहने वाले राजनीतिक दल बेशक बदलते रहे हों, मगर इसकी राजनीति में हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं रहा है, हालांकि इसके कुछ इलाकों में नक्सलवाद की भी समस्या रही है मगर वह कभी भी इस राज्य के गरीब से गरीब और आदिवासी बहुल इलाके के लोगों के लिए सर्वदा अलग-थलग ही रही। यह कहा जा रहा है कि नब किशोर दास के हत्यारे सहायक पुलिस इंस्पेक्टर गोपाल कृष्ण दास की मानसिक हालत पिछले सात-आठ साल से ठीक नहीं थी मगर सवाल यह है कि इसके बावजूद वह पुलिस की शस्त्र वाहक वाहिनी में किस तरह शामिल था?

राज्य की बीजू जनता दल की सरकार के मुखिया श्री नवीन पटनायक के लिए यह जांच का विषय हो सकता है मगर बड़ा प्रश्न राज्य की कानून-व्यवस्था की देखरेख करने वाली पुलिस पर तो लगता ही है। किसी भी राज्य के मन्त्री की हत्या यदि पुलिस बल में शामिल कोई जवान करता है तो सवाल बहुत बड़ा और विविधयामी हो जाता है जिसमें पुलिस का राजनीतिकरण तक जैसा विषय शामिल रहता है। लेकिन सवाल और भी अधिक व्यापक तब हो जाता है जब राजनीति में हिंसक प्रवृत्तियों को आश्रय मिलने का रास्ता मिलने लगता है। इसी प्रवृत्ति के चलते 30 जनवरी 1948 को नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी की हत्या की थी और उसके बाद अपने इसी आतंकवादी कृत्य के लिए उसने राजनैतिक विमर्श खड़ा करने का रास्ता ढूंढा था। यह रास्ता घृणा और अपने विरोधी को समूल नष्ट करने के सिद्धान्त पर टिका हुआ था और गांधीवाद के विरुद्ध समाज को बांटते हुए हिंसा के रास्ते पर चलने की वकालत करता था। यही वजह रही कि पूरे विश्व में महात्मा गांधी की मृत्यु के बाद उनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों के आधार पर दुनिया के विभिन्न औपनिवेशिक व दबे-कुचले राष्ट्रों में आजादी की आंधी चली और उन्होंने अहिंसा के रास्ते से ही अपनी आजादी हासिल की। यहां तक कि अमेरिका जैसे आधुनिक व विकसित देश में भी अश्वेत जनता के अधिकारों के लिए वहां के नेता मार्टिन लूथर किंग ने गांधीवाद को ही अपना आदर्श अस्त्र बनाया और अश्वेत नागरिकों के लिए अमेरिका में बराबर के अधिकार प्राप्त किये।

यह इतिहास बहुत पुराना नहीं है, केवल हमें 1963-64 में ही पीछे जाना पड़ेगा। हम भारत में हर वर्ष महात्मा गांधी के शहादत दिवस या पुण्यतिथि को स्मरण करते आ रहे हैं मगर उनके दिखाये उस रास्ते को भूल रहे हैं जो उन्होंने भारत की आजादी वाले वर्ष 1947 में ही पूरी दुनिया को दिखाया था। वह भारत के बंटवारे को एक मानवीय त्रासदी ही मानते थे और इंसानियत के कत्ल के समरूप समझते थे। आजादी के वर्ष में जब बापू बंगाल में हिन्दू-मुस्लिम फसाद रुकवाने के प्रयासों में दोनों सम्प्रदायों के नेताओं को ही जोड़ने में लगे हुए थे तो भारत के पश्चिमी इलाके पंजाब में खून की नदियां बह रही थीं और आदमी ही आदमी के खून का प्यासा हो रहा था। तब भारत के अन्तिम अंग्रेज जनरल लाॅर्ड माउंटबेटन ने कहा था कि मुझे भारत के पूर्वी इलाके बंगाल की चिन्ता नहीं है क्योंकि वहां केवल एक व्यक्ति महात्मा गांधी की सेना ही (सिंगल मैन आर्मी) हालात पर काबू पाने के लिए काफी है, मुझे चिन्ता पश्चिमी इलाके पंजाब की है जहां स्थिति पर नियन्त्रण करने के लिए सेना की अनगिनत बटालियनें लगी हुई हैं। अतः गांधी ने पूरी दुनिया को अपने जीवन के अन्तिम काल में भी जो सन्देश दिया वह बन्दूक की गोली को खारिज करते हुए प्रेम की बोली का ही था। बापू के बलिदान ने भारत के संविधान में भी इन सब बातों को समाहित किया।

भारत का संविधान 26 नवम्बर 1949 को पूरा लिख दिया गया था जिसे 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया था। इसी संविधान ने भारत की सम्पूर्ण गणतान्त्रिक व्यवस्था के प्रत्येक अंग में हिंसा का पूर्ण रुपेण निषेध किया और ऐलान किया कि केवल अहिंसक विचारों के प्रतिपादन की ही राजनीति में छूट होगी। तब से लेकर भारत इन्हीं सिद्धान्तों पर अपनी लोकतान्त्रिक व्यवस्था चला रहा है और लगातार प्रगति भी कर रहा है। जबकि भारत के साथ ही मजहब के नाम पर बना पाकिस्तान आज पूरी तरह दहशतगर्दी और मुफलिसी के दौर में धंसने के साथ ही जहालत की दल-दल में फंसा हुआ है। यह केवल गांधीवाद ही है जो भारत को निरन्तर विकास के पथ पर डाले हुए है।  ओडिशा की राजनीति गांधीवाद की सबसे ज्वलन्त अनुशास्ता रही है। 1956 के करीब जब राज्य की दल-बदल समस्या से खिन्न होकर तत्कालीन मुख्यमन्त्री श्री नब कृष्ण चौधरी ने इस्तीफा दे दिया तो वह मुख्यमन्त्री निवास से अपने असबाब की गठरी अपने सिर पर रखकर अपनी पत्नी के साथ ही पैदल गांधी आश्रम में प्रवास के लिए निकल गये थे। यह गांधीवाद का ही असर था जो राजनीति में समाया हुआ था। अतः महात्मा गांधी की पुण्यतिथि पर हमें अपने लोकतन्त्रों के पुण्यों को याद करने की सख्त जरूरत है। 

आदित्य नारायण चोपड़ा

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