दुनिया भर में तेल ने हमेशा खलबली ही मचाई है। कभी इस तेल ने लोगों को झुलसाया। कभी यह संगठित आतंक का कारण बना तो कभी पानी की तरह सस्ता हो गया। तेल के दाम बढ़ते हैं तो कुछ देशों की अर्थव्यवस्थाएं डांवाडोल हो जाती हैं, जब तेल सस्ता होता है तो उन्हें राहत मिलती है। तेल उत्पादक देश अपने-अपने हितों और मुनाफे के लिए तेल के दाम को बढ़ाते और घटाते रहे हैं। इस बार तेल के खेल में किसी फिल्मी कहानी की तरह ट्रायंगल है लेकिन यह ट्रायंगल कोई प्रेम कहानी नहीं है।
सऊदी अरब दुनिया का सबसे बड़ा तेल निर्यातक है। तेल निर्यातक देशों के संगठन ‘ओपेक’ उसके इशारे पर काम करता है। तेल के दामों में गिरावट का दौर 2014 से 2016 तक चला तो इस दौरान ‘ओपेक प्लस’ नाम से एक ग्रुप सामने आया जिसमें तेल उत्पादक देशों के साथ-साथ दूसरे देश भी थे जो ओपेक के सदस्य नहीं थे। ओपेक प्लस में रूस भी शामिल है। कोरोना वायरस के चलते तेल का आयात-निर्यात रूक गया है। इस हालात से निपटने के लिए सऊदी अरब का प्रस्ताव था कि तेल उत्पादन घटाया जाए ताकि स्थिति को सम्भाला जा सके और कीमतों में कटौती न हो। रूस ने तेल उत्पाद में कटौती के प्रस्ताव को मानने से इंकार कर दिया और उसने इस प्रस्ताव को ओपेक देश की ताकत का गैर जरूरी प्रदर्शन बताया। रूस को सबक सिखाने के लिए सऊदी अरब ने अपने तेल उत्पादन को बढ़ाकर रूस के तेल बाजार को तबाह करने का रास्ता चुना। उसने तेल के दाम घटा दिए। इससे पैट्रोलियम की कीमतों में बड़ी गिरावट आई। यह गिरावट 1991 के खाड़ी युद्ध के बाद सबसे बड़ी गिरावट है। इससे रूस की मुद्रा का अवमूल्यन भी होने लगा है। दरअसल सऊदी अरब, रूस समेत तेल उत्पादक देश बाजार पर कब्जे की जंग लड़ रहे हैं। अमेरिका ने शेल आयल फील्ड से पिछले दशक में तेल उत्पादन बढ़ाकर दो गुना कर दिया है। अमेरिका जिस तेजी से तेल का उत्पादन बढ़ा रहा है उससे सऊदी अरब और रूस जैसे बड़े देशों की मार्किट पर खतरा मंडराने लगा है। यही वजह है कि रूस ने तेल उत्पादन घटाने की बात नहीं मानी। प्राइस वार के असली किरदार अमेरिका और रूस हैं।
तेल के दामों में गिरावट का सबसे ज्यादा असर अमेरिका पर होगा, जिसके शेल से तेल उत्पादन काफी महंगा होता है जबकि रूस में तेल की औसत उत्पादन लागत काफी कम है। अमेरिका में तेल उत्पादन की औसत लागत 40 डालर प्रति बैरल है। रूस का उत्पादन तेल कुओं और समुद्र दोनों में है जबकि सऊदी अरब में ज्यादातर तेल जमीन से आता है। गिरावट जारी रही तो अमेरिकी पैट्रोलियम कम्पनियों पर बुरा असर पड़ेगा और यह अमेरिकी अर्थव्यवस्था में मंदी का कारण भी बन सकता है। अगर वहां मंदी का माहौल बना तो डोनाल्ड ट्रंप के दोबारा राष्ट्रपति बनने की राह में बाधाएं खड़ी होंगी। वाशिंगटन के लीडर कैपिटल के सीईओ और आर्थिक विशेषज्ञ जान लेकाम का मानना है कि शेयर बाजार में 30 फीसदी गिरावट की आशंका है। अगर अगली दो तिमाहियों में अमेरिकी अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर गिरती रही तो अमेरिका मंदी की गिरफ्त में आ जाएगी। अब महत्वपूर्ण सवाल यह है कि अगर रूस-सऊदी अरब और अमेरिका में लड़ाई जारी रहती है तो क्या होगा? सऊदी अरब ने उत्तर पश्चिमी यूरोप के लिए चार से छह डालर और अमेरिकी बाजार के लिए 7 डालर प्रति बैरल छूट की पेशकश की है। इन देशों को रूस कम्पनियां तेल निर्यात करती हैं।
भारत हमेशा ही तेल कीमतों में आग से झुलसता रहा है। भारत का सबसे बड़ा बिल तेल आयात का ही है। भारत अपनी जरूरत का 85 फीसदी तेल आयात करता है, इसलिए घटने पर भारत को फायदा होना तय है। यह भारत की अर्थव्यवस्था वित्तीय घाटे और चालू खाते के घाटे के लिए फायदेमंद रहेगा। भारत का व्यापार घाटा कम हो सकता है। तेल के दाम घटेंगे तो लोगों की जेब में ज्यादा पैसा आएगा। सरकार का आयात बिल घटेगा तो इस पैसे का इस्तेमाल ग्रोथ बढ़ाने और खपत बढ़ाने के लिए किया जा सकता है। जब भी तेल सस्ता होता है तो सब्सिडी पर कम खर्च होता है। इससे बैलेंस शीट में सुधार आता है। सस्ता तेल सरकार का अच्छा दोस्त साबित हो सकता है।
अब देखना यह है कि तेल कम्पनियां उपभोक्ताओं को कितनी राहत देती हैं। क्योंकि जब तेल की कीमतें बढ़ती हैं तो तेल कम्पनियां तुरन्त लोगों पर बोझ डाल देती हैं। जब कच्चा तेल सस्ता होता है तो तेल कम्पनियां दाम नहीं घटातीं। लेकिन इसका दूसरा पहलु यह भी है कि खाड़ी देशों की अर्थव्यवस्था तेल आधारित है। तेल के दाम कम होते गए तो इन देशों की कम्पनियों को नुक्सान हुआ तो बेरोजगारी बढ़ेगी। इसका असर वहां रहने वाले भारतीयों पर पड़ेगा। भारत का निर्यात भी कम हो सकता है। कोरोना वायरस से पहले ही अनेक देशों की अर्थव्यवस्थाएं चौपट हो चुकी है। आटोमोबाइल ट्रेवल, एयरलाइन इंडस्ट्री बुरी तरह से प्रभावित है। हालात पटरी पर लाने में काफी समय लगेगा। भविष्य की राह आसान नहीं होगी लेकिन तेल के खेल ने हालातों को और मुश्किल भरा बना दिया है।