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आधार पर ममता ‘निराधार’

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प. बंगाल की मुख्यमन्त्री सुश्री ममता बनर्जी भारतीय राजनीति में जनसंघर्ष की बदौलत शीर्ष स्थान प्राप्त करने वाली जन नायकों में हैं मगर इसका मतलब यह नहीं हो सकता कि वह भारत की उस संगठित संघीय प्रणाली को चुनौती दे सकती हैं जिसकी स्थापना संविधान के माध्यम से हमारे दूरदर्शी स्वतन्त्रता सेनानियों ने की है। आधार कार्ड को लेकर ममता दी के अपने विचार हो सकते हैं और इस बारे में संवैधानिक दायरे में इसकी अनिवार्यता पर सवाल भी उठा सकती हैं मगर यह किसी भी तौर पर स्वीकार्य नहीं हो सकता कि वह संसद द्वारा बनाये गए कानून को ही अपने राज्य में लागू करने से मना कर दें। यदि केन्द्र सरकार का यह फैसला है कि सभी सामाजिक सहायता के कार्यक्रमों को आधार नम्बर से जोड़ा जाए तो उसका तब तक पालन करना राज्य सरकार का दायित्व है जब तक कि आधार कानून पर ही कोई सवालिया निशान न लग जाए।

अतः सर्वोच्च न्यायालय ने प. बंगाल सरकार की ओर से दायर इस बाबत याचिका पर जो टिप्पणी की है कि कोई राज्य सरकार किस तरह संसद द्वारा बनाये गए कानून को चुनौती दे सकती है, पूर्णतः भारतीय संघीय व्यवस्था के अनुरूप तर्कसंगत फैसला है। हालांकि इस बारे में व्यक्तिगत आलोचना शुरू से ही होती रही है कि केन्द्र सरकार आधार कार्ड की अनिवार्यता विभिन्न सामाजिक योजनाओं से लेकर बैंक खातों व मोबाइल नम्बर लेने तक में लागू कर रही है मगर इस बारे में सरकार के भी अपने तर्क हैं कि उसके द्वारा गरीब सामाजिक तबकों को दी जाने वाली आर्थिक मदद बिना किसी व्यवधान के वांछित व्यक्ति तक पहुंच सके आैर उसकी निशानदेही में किसी प्रकार की गड़बड़ की संभावना समाप्त हो सके। इसके साथ ही बैंक खातों से आधार नम्बर जोड़ने के पीछे भी यही कारण है कि किसी भी व्यक्ति के आर्थिक लेन-देन में पूरी पारदर्शिता बनी रहे।

वित्तीय अनुशासन और राजस्व जिम्मेदारी को देखते हुए सरकार का निर्णय अनुचित नहीं कहा जा सकता मगर व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के नजरिये से इसे लोकतान्त्रिक व्यवस्था में जबर्दस्ती थोपने की श्रेणी में जरूर रखा जा सकता है। प्रत्येक व्यक्ति की नितान्त निजी जानकारी सरकार को अपने कब्जे में रखने का अधिकार क्या संवैधानिक नजरिये पर खरा है ? इसका उत्तर केवल सर्वोच्च न्यायालय ही दे सकता है और यही वजह है कि इस बारे में जो भी व्यक्तिगत याचिकाएं न्यायालय में दायर की गई हैं उन्हें संविधान पीठ के सुपुर्द कर दिया गया है लेकिन ममता दी एक राज्य की मुख्यमन्त्री होने के नाते जिस प्रकार इस जिद पर अड़ी हुई हैं कि वह अपने मोबाइल फोन को आधार कार्ड से नहीं जोड़ेंगी, किसी भी दृष्टि से उचित करार नहीं दिया जा सकता है।

वह एक राज्य की संवैधानिक पद पर बैठी हुई कार्यकारी मुखिया हैं और कानून का पालन करना उनका कर्तव्य बनता है। सवाल यह नहीं है कि वह कानून केन्द्र का है या राज्य का बल्कि असली सवाल यह है कि वह देश का कानून बन चुका है। बेशक इस बारे में केन्द्र ने अब 31 मार्च तक का समय आधार नम्बर जोड़ने के लिए दिया है मगर उन्हें सार्वजनिक रूप से इस प्रकार संसद द्वारा पारित कानून की अवहेलना करने से पहले सौ बार विचार करना चाहिए। बेशक वह संसद में आधार कानून बनाए जाने की प्रक्रिया पर सवाल उठा सकती हैं क्योकि आधार विधेयक लोकसभा में एक मनी बिल (धन विधेयक) के रूप में पारित किया गया था और इस पर राज्यसभा में बहस नहीं हो पाई थी जबकि इस विधेयक से ‘राज्यों की परिषद’ कही जाने वाली राज्यसभा का गहरा लेना–देना था क्योंकि अंततः राज्य सरकारों को ही सामा​िजक सुरक्षा के कार्यक्रम लागू करने होते हैं।

झारखंड में जिस प्रकार एक 11 वर्षीय बालिका की मृत्यु भूख से हुई है उसके पीछे भी आधार कार्ड की अनिवार्यता उजागर हुई है। उसके परिवार को पिछले तीन महीने से सस्ती दरों पर राशन केवल इसलिए नहीं दिया गया था क्योंकि उसका राशन कार्ड आधार कार्ड से नहीं जुड़ा हुआ था। दीगर सवाल यह है कि 125 करोड़ से अधिक आबादी वाले देश में सभी व्यावहारिकताओं को देखते हुए ही किसी भी कानून की अनिवार्यता लागू करनी होगी। जाहिर है कि सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ इन सभी मुद्दों पर विचार करेगी परन्तु ममता दी के इस मुद्दे पर विद्रोही तेवर तब तक जायज नहीं कहे जा सकते जब तक कि न्यायालय इस बारे में अन्तिम फैसला न दे दे।

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