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प्याज : तू चीज बड़ी है मस्त-मस्त

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प्याज कभी आंसू रुलाती है, प्याज कभी खुशी का अहसास कराती है। प्याज इतनी मस्त चीज है कि यह सरकारों को बनाने और गिराने का काम करती है। कभी प्याज के भाव इतने चढ़ते हैं कि आम आदमी की क्रयशक्ति जवाब देने लगती है, कभी प्याज इतने सस्ते हो जाते हैं कि वह किसानों के आंसू बहा देते हैं। इस बार प्याज के दाम चढ़े नहीं, लेकिन इतने गिरे कि किसान सड़कों पर प्याज फैंकने लगे हैं। मध्य प्रदेश की सबसे बड़ी सीमांत मंडी नीमच में प्याज 50 पैसे प्रति किलोग्राम और साथ ही लहसुन 2 रुपए प्रति किलोग्राम थोक के भाव बिका। इसके चलते किसान या तो अपनी फसल वापस ले जा रहे हैं या फिर मंडी में ही छोड़कर जा रहे हैं। 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों में राजनीतिक पार्टियों के बीच कृषि आैर किसान अहम मुद्दा है। गनीमत है कि मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनावों का मतदान हो चुका है। प्याज की आवक बढ़ने से किसानों को लागत मूल्य तो दूर, माल को मंडी में लाने तक का पैसा नहीं मिल रहा।

दो दिन पहले तक प्याज के दाम 90 रुपए से 900 प्रति​ क्विंटल के बीच रहे और लहसुन के दाम 200 रुपए से 3900 रुपए प्रति क्विंटल रहे। दो दिन बाद जब किसान अपनी फसल को मंडियों में लेकर आया तो फसल के दाम 50 पैसे और लहसुन का भाव 2 रुपए लगाया गया। फसल नहीं बिकी तो किसान घर कैसे चलाएगा और मवेशियों को क्या खिलाएगा। अचानक दाम गिरने से अन्नदाता परेशान है। आलू, प्याज, टमाटर के दामों में उतार-चढ़ाव कोई नई बात नहीं लेकिन इससे किसान आैर आम आदमी तो प्रभावित होता ही है साथ ही राजनीति भी प्रभावित होती है। प्याज के दामों ने बड़े-बड़े राजनीतिक तूफान खड़े किए हैं। आमतौर पर हम प्याज को बहुत ज्यादा अहमियत नहीं देते। तमाम दूसरी सब्जियों की तरह प्याज के साथ कोई ग्लैमर नहीं जुड़ा। एक तरफ जहां तमाम तरह के शोरबेदार व्यंजनों की कल्पना आप प्याज के बिना नहीं कर सकते, वहीं दूसरी तरफ ऐसे लोग भी हैं, जो सब्जी में प्याज डाला हो तो उसे खा न पाएं।

कुछ लोग उससे पारंपरिक लगाव रखते हैं तो कुछ लोग पीढ़ी दर पीढ़ी उससे नफरत ही करते रहे हैं। कुछ लोगों को उसकी गंध नहीं भाती आैर कुछ लोग उन आंसुओं की वजह से उससे दूर रहना पसन्द करते हैं, जिनका कारण प्याज होती है लेकिन प्याज की एक आैर भी फितरत है। कुछ साल बाद सब्जी बाजार में अपेक्षित सी रहने वाली प्याज अचानक उठती है और सरकारों की नींव हिला देती है। भले ही इसके पीछे मौसम या फसल चक्र की मेहरबानी रही हो, लेकिन इसने बड़े-बड़े राजनीतिज्ञों को रुलाया है और सरकारें भी गिराई हैं। आपातकाल के बुरे दौर के बाद जब देश में जनता पार्टी की सरकार बनी थी तो यह सरकार अपने ही अंतर्विरोधों से लड़खड़ा जरूर रही थी, लेकिन फिर भी सत्ता से बेदखल हो चुकी इंदिरा गांधी के पास कोई बड़ा मुद्दा नहीं था। अचानक ही प्याज की कीमतें बढ़ने लगीं तो उन्हें एक मुद्दा मिल गया। उनकी पार्टी ने इसका इस्तेमाल भी नाटकीय ढंग से किया।

प्याज की बढ़ती कीमतों की तरफ ध्यान खींचने के लिए कांग्रेस के नेता सीएम स्टीफन संसद में प्याज की माला पहनकर गए, जिस पर जनता पार्टी के नेता पीलू मोदी ने टिप्पणी की थी, ‘सरकार को बताना चाहिए कि टायरों के दाम कब बढ़ रहे हैं।’ पर जल्द ही इस मुद्दे का जादू लोगों के सिर चढ़कर बोलने लगा। कहा जाता है कि जनता पार्टी की सरकार भले ही अपनी वजहों से गिरी हो, लेकिन कांग्रेस ने उसके बाद का चुनाव प्याज की वजह से जीत लिया। यह बात अलग है कि प्याज की वजह से सत्ता में आई कांग्रेस भी इसकी कीमतों का बढ़ना नहीं रोक पाई आैर एक साल बाद फिर प्याज ने रुलाना शुरू कर दिया। इस बार उसके विरोधियों ने प्याज का नाटकीय इस्तेमाल किया, लेकिन बात बनी नहीं। लोकदल नेता रामेश्वरम सिंह प्याज का हार पहनकर राज्यसभा में गए तो सभापति एम. हिदायतुल्ला ने उन्हें खरी-खोटी सुना दी। केन्द्र में जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी तो 1998 में प्याज की कीमतों ने फिर रुलाना शुरू कर दिया। अटल जी ने कहा भी कि जब कांग्रेस सत्ता में नहीं रहती तो प्याज परेशान करने लगती है।

शायद उनका इशारा था कि कीमतों का बढ़ना राजनीतिक षड्यंत्र है। उस समय ​दिल्ली प्रदेश में भाजपा की सरकार थी और विधानसभा चुनाव सिर पर थे। तब प्याज के असर से बचने के लिए सरकार ने कई तरह की कोशिशें की, लेकिन दिल्ली में जगह-जगह प्याज को सरकारी प्रयासों से सस्ती दर पर बिकवाने की कोशिशें ऊंट के मुंह में जीरा ही साबित हुईं आैर जब चुनाव हुआ तो मुख्यमंत्री सुषमा स्वराज के नेतृत्व वाली भाजपा बुरी तरह हार गई। शीला दीक्षित ​दिल्ली की मुख्यमंत्री बनीं, लेकिन 15 साल बाद प्याज ने उन्हें भी रुला दिया। अक्तूबर 2013 को प्याज की बढ़ी कीमतों पर सुषमा स्वराज की टिप्पणी थी कि यहीं से शीला सरकार का पतन शुरू होगा, वही हुआ। भ्रष्टाचार के साथ महंगाई का मुद्दा चुनाव में एक आैर बदलाव का साक्षी बना। प्याज के दाम दो राज्यों में मतदान सम्पन्न होने के बाद भाजपा के लिए भले ही सबसे बड़ी चुनौती नहीं है लेकिन राजस्थान चुनावों के लिए मतदान होना शेष है। कुछ दिन पहले कृषि ऋणमाफी और फसलों के उचित मूल्य दिलाने की मांगों को लेकर किसान सड़कों पर उतरे थे।

किसानों को फसलों का डेढ़ गुना मूल्य बढ़ाने की दिशा में केन्द्र सरकार पहले ही आगे बढ़ चुकी है। पूर्ण कर्ज माफी की मांग जटिल और अव्यावहारिक है। इसका देश की अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। यह वास्तविकता है कि देश के किसानों की स्थिति ठीक नहीं और कर्ज में दबे किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं लेकिन कर्ज माफी की समस्या स्थायी समाधान नहीं। किसानों को आत्मनिर्भर बनाना बहुत जरूरी है। आलू, प्याज, टमाटर, लहसुन जैसी फसलों को लेकर भी कोई नीति जरूर बननी चाहिए। यह ठीक है कि इन फसलों के सौदे कच्चे होते हैं लेकिन किसान को लागत मूल्य से बढ़कर कीमत तो मिलनी चाहिए। सरकार का दायित्व है कि वह किसानों की मांग पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करे आैर राहतकारी कदम उठाए।

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