राष्ट्रीय राजनीति में विपक्ष जिस प्रकार लगातार हाशिये पर खिसक रहा है उससे लोकतन्त्र की ताकत को ही धक्का लगता है। इसमें भी समूचे विपक्ष में राष्ट्रीय स्तर पर किसी कद्दावर प्रभावशाली नेता की कमी बहुत चिन्ता पैदा करने वाली कही जा सकती है। स्वतन्त्र भारत के इतिहास में ऐसी स्थिति इससे पहले तब भी नहीं बनी जब स्व. पं. जवाहर लाल नेहरू से लेकर स्व. इन्दिरा गांधी तक की लोकप्रियता शिखरतम स्तर पर हुआ करती थी। बेशक चुनावी बाजियां कांग्रेस पार्टी जीतती रहती हो मगर विपक्ष में एक से बढ़कर एक कद्दावर नेता थे जो सत्ता पर काबिज नेतृत्व को अपनी विरोधी विचारधारा के नुकीलेपन से आहत कर जाते थे।
पं. नेहरू के समक्ष स्व. डा. राम मनोहर लोहिया हमेशा एक धारदार वैचारिक हथियार से लैस विरोधी खेमे के सतर्क सिपाही बने रहे और स्व. इन्दिरा गांधी के खिलाफ तो ऐसे सिपाहियों की गिनती करना भी मुश्किल हो गया था क्योंकि उन्होंने स्वयं ही अपनी पार्टी कांग्रेस को 1969 में विभाजित करके अपने खिलाफ पूरी फौज खड़ी कर ली थी और इनमें स्व. मोरारजी देसाई से लेकर स्व.अटल बिहारी वाजपेयी, चौधरी चरण सिंह, जार्ज फर्नांडीज व आचार्य रंगा जैसे नाम शामिल थे।
इसके साथ ही कम्युनिस्ट विचारधारा के पोषक स्व. नम्बूदिरिपाद से लेकर ए.के. गोपालन, हीरेन मुखर्जी व ज्योतिर्मय बसु जैसे कटु आलोचकों की पूरी फेहरिस्त थी किन्तु वर्तमान समय में सभी तरफ मैदान साफ दिखाई पड़ रहा है और विपक्षी पार्टियां अपना अस्तित्व बचाने की फिराक में इस प्रकार लगी हुई हैं कि बिना किसी जनहितकारी तर्क के केवल सत्ता के विरोध करने को ही अपना धर्म मान बैठी हैं। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि लोकतन्त्र में विपक्ष का धर्म विरोध करना होता है किन्तु यह विरोध ‘जन-अवधारणाओं’ के विरोध में नहीं होना चाहिए।
मौजूदा विपक्ष के सामने सबसे बड़ी दिक्कत यही पैदा हो गई है कि यह सत्ता पक्ष द्वारा पैदा की गई जन-अवधारणा के समानान्तर वह अवधारणा पैदा नहीं कर पा रहा है जिसे जनता ज्यादा लाभकारी व श्रेयस्कर समझने पर मजबूर हो। यह पूरी तरह वैचारिक खोखलेपन का दौर है जो राजनीति के लगातार व्यावसायीकरण अर्थात तिजारत बनने की वजह से पैदा हुआ है। राजनीति में क्षेत्रीय स्तर तक पर परिवारवाद का विस्तार भी इसी वजह से हुआ है। अतः विपक्षी पार्टियां जिस तरह राज्यों से लेकर राष्ट्रीय स्तर पर पिट रही हैं उसके मूल में भी इसे एक प्रमुख कारण माना जा सकता है परन्तु ऐसा भी नहीं है कि आम जनता के मन में विपक्ष के लिए पूरी तरह वितृष्णा पैदा हो गई हो।
इसका प्रमाण पिछले वर्ष 2018 में अन्त में पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव थे जिनमें कांग्रेस पार्टी को तीन उत्तरी राज्यों में उल्लेखनीय सफलता मिली थी इसमें मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ व राजस्थान में इस पार्टी की सरकारों का गठन हुआ था मगर इससे पहले मई महीने में कर्नाटक में हुए चुनाव में कांग्रेस पार्टी की सिद्धारमैया सरकार सत्ता से बेदखल हो गई थी और भाजपा सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी। जाहिर तौर पर पिछले साल हुए विधानसभा चुनावों के परिणामों को सत्ता विरोधी भावना के आइने में देखा जा सकता है क्योंकि छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश व राज्सथान में चुनाव से पहले भाजपा की सरकारें थीं। इन सभी राज्यों में कांग्रेस ने एक विपक्षी पार्टी के रूप में सत्ताधारी दल के लिए कड़ी चुनौती पेश की थी, परन्तु इसके बाद इसी वर्ष मई महीने में जो लोकसभा चुनाव हुए उनमें इन सभी राज्यों में कांग्रेस पार्टी का लगभग सूपड़ा ही साफ हो गया।
इसकी असली वजह प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा द्वारा चलाया गया वह सफल राष्ट्रवादी व गरीबों के उत्थान का अभियान था जिसके विरुद्ध कांग्रेस व अन्य विपक्षी पार्टियां शस्त्रविहीन सी होकर मैदान में खड़ी हो गई थीं और श्री मोदी द्वारा दिये गये देशभक्ति के संगीत में अपनी अलग तान छेड़ने लगी थीं जिसे आम मतदाता ने बेसुरा राग जानकर अपने कान ही बन्द कर लिये मगर क्या इस महापराजय से विपक्ष ने कोई सबक सीखा है? इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता उल्टे अभी भी वह अपने इसी राग को छेड़े जा रहा है। कश्मीर से धारा 370 को समाप्त किये जाने के मुद्दे पर विपक्ष की विभिन्न प्रमुख पार्टियों का जो रुख रहा है वह इस विषय पर स्थापित जन-अवधारणा के पूरी तरह विपरीत रहा जिसका खामियाजा उसे महाराष्ट्र व हरियाणा के अगले महीने होने वाले चुनावों में भुगतना पड़ सकता है।
यह कितनी अजीब बात है कि सत्ता से बाहर रहने के बावजूद विपक्ष इन दोनों राज्यों मंे रक्षात्मक मुद्रा में है और सामान्य राजनीतिक जानकारी रखने वाला व्यक्ति भी चुनावों से पहले ही भविष्यवाणी कर रहा है कि विजय सत्ता पक्ष की ही होगी! आखिरकार इसका कारण आम जनता में व्याप्त अवधारणा ही तो है कि विपक्ष में कोई ताकत नहीं बची है। क्या इसकी जिम्मेदारी भी सत्तापक्ष पर डाली जा सकती है ? दुनिया के किसी भी लोकतन्त्र में न तो यह मुमकिन है और न ही संभव है। विपक्ष को अपनी राह स्वयं ही बनानी होगी।
आज तक स्वतन्त्र भारत के इतिहास में कभी ऐसा नहीं हुआ कि पाकिस्तान ने कभी इसकी राजनीति मंे सक्रिय किसी भारतीय नेता के बयान को अपने हक में इस्तेमाल करने के लिए दस्तावेजी सबूत के तौर पर दुनिया के सामने पेश किया हो! इन सवालों के जवाब तो हमें ढूंढने ही होंगे और तय करना होगा कि वास्तविक विपक्षी नेता की भूमिका में हमें किस दर्जे का नेता चाहिए लेकिन लोकतन्त्र की खासियत यह भी होती है कि इसमें कभी कोई स्थान खाली नहीं रहता, क्योंकि यह राजनीति को विज्ञान समझ कर ही अपनी दिशा तय करता है।
यही वजह रही कि हरियाणा के कांग्रेसी नेता भूपेन्द्र सिंह हुड्डा ने कश्मीर मामले पर भाजपा सरकार के रुख का खुले दिल से समर्थन किया। यह जन-अवधारणा का ही प्रताप था कि श्री हुड्डा ने राज्य के मुख्यमन्त्री मनोहर लाल खट्टर का घोर विरोधी होने के बावजूद उनकी पार्टी भाजपा के सुर में अपनी रागिनी गा डाली। यह लोकतन्त्र के लोकरंजक होने का वह मुखड़ा है जिसमें दलगत मतभेद मन को मैला नहीं होने देते।