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विपक्षी एकता : अधरंगी तस्वीर

लोकतन्त्र की मजबूती शर्त मजबूत विपक्ष को भी माना जाता है। इसकी प्रमुख वजह यही मानी जाती है कि लोकतन्त्र में जनता के समक्ष विकल्पों की कमी नहीं रहनी चाहिए क्योंकि लोकतन्त्र का अर्थ जनता की सरकार ही होता है।

लोकतन्त्र की मजबूती शर्त मजबूत विपक्ष को भी माना जाता है। इसकी प्रमुख वजह यही मानी जाती है कि लोकतन्त्र में जनता के समक्ष विकल्पों की कमी नहीं रहनी चाहिए क्योंकि लोकतन्त्र का अर्थ जनता की सरकार ही होता है। इसी वजह से स्वतन्त्र  भारत के लोकतन्त्र में राजनैतिक दलों की ऐसी संवैधानिक व्यवस्था खड़ी की गई जिसकी मार्फत आम मतदाता अपनी मनपसन्द के अनुसार अपनी सरकार का गठन अपने एक वोट के माध्यम से कर सकें। अतः यह बेवजह नहीं था कि 1952 में जब भारत के पहले आम चुनाव हुए तो देश में तीन सौ से अधिक राजनैतिक दलों का गठन हो चुका था। विचार वैविध्यता लोकतन्त्र की आक्सीजन होती है जो हर कदम पर मतदाताओं के समक्ष राष्ट्रीय व क्षेत्रीय स्तर पर विकल्पों को खुला रखती है। मगर इसका अर्थ राजनैतिक अराजकता नहीं होता क्योंकि प्रत्येक राजनैतिक दल स्वतन्त्र संवैधानिक स्वायत्तशासी संस्था ‘चुनाव आयोग’ द्वारा निर्धारित नियमों से बंधा रहता है। परन्तु राष्ट्रीय स्तर पर हम कभी-कभी पाते हैं कि सत्ता पक्ष के मुकाबले विपक्ष बहुत कमजोर पायदान पर खड़ा होता है। 
संसदीय लोकतन्त्र में इसके कई कारण हो सकते हैं परन्तु भारत की जनता ने आजादी के बाद से केवल दो बार 1952 एवं 1984 को छोड़ कर कभी भी सत्तारूढ़ दल को 50 प्रतिशत से ऊपर मत नहीं दिये। इसका मतलब यही निकाला जा सकता है कि विपक्ष भारत की भौगोलिक व सांस्कृतिक विविधता के चलते बंटा हुआ जरूर रहता है मगर वह मतों की प्रतिशत के आधार पर कमजोर नहीं कहा जा सकता। इस बंटे हुए विपक्ष को एकजुट करने के प्रयास भी स्वतन्त्र भारत में कई बार हुए हैं। 1967 से ये प्रयास कांग्रेस के खिलाफ हुए क्योंकि वही अखिल भारतीय स्तर पर देश व प्रदेशों की प्रमुख सत्तारूढ़ पार्टी थी। इस राजनैतिक विकल्पों की प्रचुरता वाली चुनाव प्रणाली के चलते कालान्तर में यह स्थिति बदली और आज भाजपा ने कमोबेश रूप से कांग्रेस की जगह ले ली है, अतः भाजपा के विरुद्ध विपक्ष के एकजुट होने की बात कही जा रही है। इसमें कहीं कोई बुराई नहीं है क्योंकि यह एक लोकतान्त्रिक प्रक्रिया है। विकल्पों की प्रचुरता की व्यवस्था ने ही भारत के लगभग प्रत्येक प्रमुख क्षेत्रीय दल तक को केन्द्र में सत्ता में आने का अवसर कांग्रेस या भाजपा के विरुद्ध एकजुटता बनाने पर दिया। 
भाजपा नीत एनडीए और कांग्रेस नीत यूपीए की सरकारों में शामिल होकर लगभग सभी क्षेत्रीय दलों ने केन्द्र की सरकारों में शिरकत करने का अवसर पाया। इसी से साझा सरकारों का चलन देश में 1998 से 2014 तक चला। 2014 में भाजपा को अपने बूते पर ही केन्द्र में श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में पूर्ण बहुमत प्राप्त हुआ मगर इस पार्टी ने एनडीए की परंपरा को चालू रखा और यह परम्परा अभी भी जारी कही जा सकती है। हालांकि एनडीए में अब सहयोगी दलों की संख्या बहुत कम हो गई है। इससे एक बात तो साबित होती है कि भारत की राजनीति में विभिन्न राजनैतिक दलों की एकजुटता की प्रासंगिकता कायम है। इस प्रासंगिकता की महत्ता को दोनों राष्ट्रीय दल कांग्रेस व भाजपा बखूबी पहचानते हैं और विभिन्न राजनैतिक दल भी इसकी उपयोगिता को समझते हैं जिसे देखते हुए आज विभिन्न विरोधी दलों की एकता की बात हो रही है। मगर इस एकता में सबसे बड़े बाधक विभिन्न दलों के अपने-अपने  राजनैतिक हित आड़े आ रहे हैं जिसे देखते हुए यह कहा जा रहा है कि विपक्षी एकता ‘दूर के ढोल सुहावने’ की मानिन्द साबित हो सकती है। अभी फिलहाल संसद का बजट सत्र चल रहा है और इस सत्र के दौरान विभिन्न विपक्षी दल सत्तारूढ़ दल के खिलाफ उन मुद्दों पर एकजुट नजर आ रहे हैं जिन पर सरकार को घेरा जा सकता है। इसकी एक वजह जांच एजेंसियों की भ्रष्टाचार के विरुद्ध विपक्षी नेताओं के खिलाफ  एकतरफा कार्रवाई भी बताई जा रही है। परन्तु दूसरी तरफ ये विपक्षी दल भी भ्रष्टाचार को ही केन्द्र में रखकर जांच एजेंसियों से निष्पक्ष होकर कार्रवाई करने की गुहार लगा रहे हैं मगर इसमें भी उनमें एकजुटता नहीं है क्योंकि प. बंगाल की सत्तारूढ़ पार्टी तृणमूल कांग्रेस अपनी ढपली अलग ही बजा रही है। यह पार्टी उन 17 दलों की एकजुटता में शामिल नहीं हुई जिनके नेता कल प्रवर्तन निदेशालय को संयुक्त ज्ञापन देने गये थे। इन दलों में कल श्री शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस भी शामिल नहीं थी जबकि आम आदमी पार्टी शामिल थी। परन्तु आज संसद में सरकार के खिलाफ विपक्षी दलों की जो रणनीतिक बैठक कांग्रेस अध्यक्ष श्री मल्लिकार्जुन खड़गे के संसद कार्यालय में हुई उसमें राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी शामिल थी, मगर तृणमूल कांग्रेस उसमें भी शामिल नहीं थी। जबकि पिछले वर्ष प. बंगाल का विधानसभा चुनाव जीतने के बाद तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी स्वयं ही विपक्षी एकता का बीड़ा उठाकर चल पड़ी थीं। 
लोकसभा के चुनावों में अब पूरे एक वर्ष का समय शेष रह गया है जिसे देखते हुए मोदी सरकार का यह अन्तिम पूर्ण वार्षिक बजट है।  मगर उत्तर प्रदेश की समाजवादी व बहुजन समाज पार्टी भी अभी तक विपक्षी एकजुटता के पक्ष में हिचकिचा रही हैं। इसकी असली वजह अपने-अपने राजनैतिक हित ही कहे जा सकते हैं। बेशक चुनावों में अभी एक साल का समय शेष है मगर उससे पहले चालू वर्ष के दौरान ही कर्नाटक, तेलंगाना, मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ के चुनाव हैं जिनमें तेलंगाना में विपक्षी दलों कांग्रेस व भारत राष्ट्रीय समिति के ही आपस में टकराने की ज्यादा संभावना है। लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर भारत राष्ट्रीय समिति अन्य विपक्षी दलों के साथ खड़ी नजर आ रही है। कर्नाटक, राजस्थान, मध्य प्रदेश व राजस्थान में असली टक्कर भाजपा व कांग्रेस के बीच ही होनी है परन्तु इन राज्यों में आम आदमी पार्टी भी अभी से जोर लगाने लगी है। जिसे देखते हुए राष्ट्रीय स्तर पर विपक्षी एकजुटता का भविष्य इन विधानसभा चुनावों के परिणामों से भी बंधा हुआ लग रहा है। कुल मिलाकर तस्वीर अभी अधरंगी लग रही है।

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