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बीएचयू में छात्राओं पर जुल्म

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उत्तर प्रदेश में योगी सरकार का गठन होने के बाद जिस तरह की घटनाएं घट रही हैं उनसे यही आभास हो रहा है कि देश की सबसे बड़ी आबादी वाले इस राज्य में लोकतन्त्र नहीं बल्कि ‘मठतन्त्र’ चल रहा है और लोगों को इस वैज्ञानिक युग में भी मध्ययुगीन विचारों के भीतर जीने की कला में पारंगत करने की तकनीक विकसित की जा रही है। लोकतन्त्र में सरकार सीधे जनता के प्रति जवाबदेह होती है और किसी प्रकार की अकड़ में काम नहीं कर सकती। जिस बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय (बीएचयू) की स्थापना का ध्येय ही वैज्ञानिक नजरिया आम लोगों में पैदा करके उन्हें समय के साथ आगे बढ़ाना रहा हो, वहीं अगर छात्राओं के साथ दुर्व्यवहार करने के मामले राज्य प्रशासन और विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा सामने आयें तो मानना पड़ेगा कि उत्तर प्रदेश को पिछले 25 वर्षों में जिस तरह विकास से महरूम रखने की राजनीति ने पैर पसारे हैं उसमें कोई फर्क नहीं आया है। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय केन्द्रीय विश्वविद्यालय है अतः केन्द्र सरकार के मानव संसाधन मन्त्री की भी जिम्मेदारी बनती है कि वह उस मामले की तह तक जायें जो गत शनिवार की रात्रि को घटा और और महिला छात्रावास में पुलिसकर्मियों ने घुसकर छात्राओं पर डंडे बरसाये।यदि पिछले कुछ दिनों से छात्राएं विश्वविद्यालय परिसर में ही अपने साथ गलत व्यवहार किये जाने और छेड़छाड़ तक के मामलों को लेकर प्रदर्शन कर रही थीं तो उनकी बजाय सुनवाई होने के उन पर पुलिस द्वारा बल प्रयोग कराया जाना पूरी तरह अनुचित है मगर हद तो तब हुई जब ये छात्राएं कुलपति जी.सी. त्रिपाठी से मुलाकात करके अपना दुःख व रोष प्रकट करना चाहती थीं मगर उन्हें पुलिस ने एेसा करने से रोका और उनके छात्रावास मे घुसकर ही लाठियां चलाईं जिसमें कम से कम चार छात्राएं गंभीर रूप से घायल हो गईं।

यह जी.सी. त्रिपाठी वही महानुभाव हैं जिन्होंने पहले छात्राओं के हॉस्टल में रात्रि को इंटरनेट सेवाएं बन्द करने का आदेश जारी किया था और उन पर रात्रि में टेलीफोन करने पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया था। इतना ही उनके पहनावे तक के बारे में अपनी आदर्शवादी आचार संहिता लागू करने की कोशिश की थी। जिस विश्वविद्यालय के कुलपति डा. त्रिगुण सेन से लेकर कालू लाल श्रीमाली रहे हों वहां इस प्रकार के व्यक्तित्व की विभूति की नियुक्ति ही स्वयं में कई प्रकार के सवाल खड़े करती है और उनकी मानसिकता पर सवालिया निशान लगाती है। पुरानी सदियों की मानसिकता में जीने वाले लोगों को यदि हम शिक्षा शास्त्री के रूप में अपने प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में पदस्थापित करते हैं तो निश्चित रूप से विश्वविद्यालयों के शिक्षा स्तर पर दुष्प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सकता। सबसे अहम सवाल है कि रात्रि के समय केवल पुरुष पुलिसकर्मियों ने किस प्रकार आन्दोलनकारी छात्राओं को नियन्त्रित करने के लिए बल प्रयोग किया। इसके लिए राज्य की योगी आदित्यनाथ की सरकार पूरी तरह जिम्मेदार है।

देश की युवा पीढ़ी के साथ इस प्रकार की बर्बरता का प्रदर्शन केवल वही सरकार कर सकती है जिसका यकीन कानून की जगह अपनी मनमर्जी चलाने में हो। विश्वविद्यालय में प्रत्येक छात्र और छात्रा के अधिकार बराबर होते हैं। बेशक छात्रावासों में कुछ नियम व अनुशासन होता है मगर यह दोनों ही वर्गों के लिए एक बराबर होता है। छात्राओं के हाॅस्टल को उनके स्त्री होने के आधार पर हम जेलों में परिवर्तित नहीं कर सकते। फिर इनमें रहने वाली छात्राएं अपने अधिकारों से बाखबर और आत्मविश्वास से भरी होती हैं। इसी वजह से तो वे अपने साथ हुए दुर्व्यवहार के खिलाफ आंदोलनरत थीं, मगर उनकी इसी आवाज को दबाने के ​िलए जिस तरह विश्वविद्यालय के रूढ़ीवादी मानसिकता से ग्रस्त प्रशासन ने व्यवहार किया उसी के चलते पुलिस को छात्राओं के साथ मनमानी करने की स्वतन्त्रता मिली। इस घटना की रिपोर्ट मांगकर योगी सरकार अपने दायित्व से मुक्त नहीं हो सकती बल्कि उसे सिद्ध करना होगा कि भारत के इस प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में छात्राओं के साथ किसी भी प्रकार का अन्याय न होने पाये और उनके अधिकारों को कोई भी कुलपति अनुशासन या नियम के नाम पर बर्खास्त करने की जुर्रत न करें। विश्वविद्यालयों में ही यदि हमारी बेटियों में पूर्ण आत्मविश्वास पैदा नहीं होता है तो फिर उन्हें पढ़ाने का क्या उद्देश्य हो सकता है। एक तरफ तो हम पुलिस से लेकर फौज तक में अपनी बेटियों को बड़ा अफसर बनते देख सीना फुलाते हैं और दूसरी तरफ उन्हें विद्या ग्रहण करते समय दकियानूस बनाकर रखना चाहते हैं। यह विरोधाभास हमें किस दिशा में ले जायेगा। यदि विश्वविद्यालयों में ही नारी को सम्मान नहीं मिलेगा तो हम समूचे भारत को किस आधार पर परखेंगे ?

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