भारत के लोकतान्त्रिक चौखम्भा राज में चुनाव आयोग की स्वतन्त्र व राजनीति से निरपेक्ष सत्ता इस प्रकार निहित है कि इसे देश की समूची राजनीतिक प्रणाली का संरक्षक और निगेहबान बनाया गया है। भारत की प्रशासनिक प्रणाली अन्ततः राजनीतिक दलों के नेतृत्व में ही चलती है अतः इनकी निगरानी और नियन्त्रण के अधिकार संविधान में चुनाव आयोग को दिये गये और इस प्रकार दिये गये कि अपना कार्य करते समय इसे किसी भी सरकार का मोहताज न होना पड़े और सीधे संविधान से शक्ति लेकर यह अपना कार्य पूरी निष्पक्षता और निर्भयता के साथ करे। संविधान ने ही चुनाव आयोग को भारत के आम नागरिक को मिले एक वोट के संवैधानिक अधिकार का संरक्षक नियुक्त किया और उस पर यह जिम्मेदारी डाली गई कि वह चुनावों के जरिये इसी वोट की ताकत से पूरे देश में केन्द्र व राज्य सरकारों के गठन की प्रक्रिया को पूरा करायेगा और इस प्रक्रिया में हर वयस्क नागरिक की वोट के माध्यम से भागीदारी सुनिश्चित करायेगा। चुनाव आयोग को मिले अधिकारों के केन्द्र में हर स्थिति में आम मतदाता ही आता है जिसे पूर्णतः निर्भय व स्वतन्त्र होकर मत डालने के लिए अनुकूल वातावरण तैयार करने की जिम्मेदारी चुनाव आयोग पर डाली गई है। यही वजह है कि चुनावों के समय पूरी ‘शासन व्यवस्था’ चुनाव आयोग के हाथ में चली जाती है।
एक बात स्पष्ट रूप से समझने वाली है कि पूरी चुनाव प्रक्रिया में मतदाता के लिए सुरक्षित माहौल बनाना चुनाव आयोग का प्राथमिक कर्त्तव्य संविधान में इस प्रकार व्याख्यायित किया गया है कि इसे जमीन पर उतारने में चुनाव आयोग को किसी भी अन्य प्रशासनिक शक्ति पर निर्भर न रहना पड़े। अतः पूरे मामले में सरकार कहीं नहीं आती है क्योंकि चुनाव आयोग चुनावों के समय स्वयं ‘सरकार’ होने की क्षमता रखता है। पूरी दुनिया में भारत की चुनाव प्रणाली एक ‘सन्दर्भ ग्रन्थ’ के रूप में देखी जाती है। अतः मद्रास उच्च न्यायालय का यह कथन कि पांच राज्यों में 26 फरवरी को चुनावों की घोषणा करने के बाद चुनाव आयोग ने देश में फैल रहे कोरोना संक्रमण का कोई संज्ञान न लेते हुए जिस तरह लापरवाही और गैरजिम्मेदाराना व्यवहार किया वह उसके खिलाफ हत्या का मामला दर्ज कराने के काबिल है, पूरी तरह वाजिब ठहराया जा सकता है क्योंकि आयोग ने विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा प. बंगाल में होने वाले आठ चरणों में चुनावों को पुनः सूचीबद्ध करने की बार-बार अपील की थी और कहा था कि कोरोना के प्रकोप को देखते हुए इन आठ चरणों को घटा कर कम किया जाये। भारत में चुंकि राजनीतिक दलीय व्यवस्था है अतः विरोधी राजनीतिक दल इसे सरकार से बांध कर देख रहे हैं। इसे उचित इसलिए नहीं कहा जा सकता क्योंकि चुनाव आयोग किसी भी रूप और प्रकार में सरकार का हिस्सा नहीं है और वह स्वयं किसी भी राजनीतिक दल की सरकार को समयोचित निर्देश देने के लिए अधिकृत है। उसके निर्देश चुनाव काल में किसी भी दल की सरकार के लिए बाध्यकारी होते हैं। अतः यह सवाल भाजपा या कांग्रेस का नहीं है बल्कि ‘संविधान और मतदाता’ का है।
कोरोना संक्रमण जिस तरह 22 मार्च के बाद पूरे देश में फैलना शुरू हुआ और चुनाव आयोग द्वारा पांच राज्यों में घोषित मतदान प्रक्रिया के तहत चार राज्यों पुडुचेरी, असम , केरल व तमिलनाडु में 6 अप्रैल को मतदान सम्पन्न हुआ (इनमें से तमिलनाडु, पुडुचेरी व केरल में एक दिन 6 अप्रैल को ही मतदान कराया गया था) वह कोरोना के कहर की चल रही पहली लहर के दौरान ही था। इसके बावजूद चुनाव आयोग ने इन राज्यों के चुनावों के लिए कोई कोरोना नियमाचार जारी नहीं किया और राजनीतिक दलों को बड़ी रैलियां व रोड शो करने की खुली इजाजत जारी रखी। परिणामतः इन राज्यों में भी कोरोना संक्रमण के मामले लगातार बढ़े परन्तु प. बंगाल के 29 अप्रैल तक चलने वाले चुनाव कार्यक्रम में तो आयोग ने सारी हदों को ही पार कर डाला और अपने कार्यालय में प्राप्त विभिन्न दलों की इस दर्ख्वास्त को रद्दी की टोकरी में डालने में देर नहीं लगाई जिसमें लोगों की जान की सुरक्षा के लिए मतदान को एक ही दिन में समेटने की इल्तिजा की गई थी। संविधान में ‘असाधारण स्थितियों’ में चुनाव आयोग को ‘असाधारण’ कदम उठाने की छूट मिली हुई है।
कोरोना कहर ने निश्चित रूप से पूरे देश में असाधारण स्थितियां बनाई हुई हैं जिसमें हर आदमी अपनी जान की पनाह मांग रहा है अतः चुनाव आयोग का पहला कर्त्तव्य यही बनता था कि जिस मतदाता की इच्छा को सर्वोपरि रखने के लिए वह चुनाव करा रहा है सबसे पहले वह उसकी जान की परवाह करे। मद्रास उच्च न्यायालय के विद्वान न्यायाधीशों ने इसी तरफ ध्यान आकृष्ट करते हुए साफ कहा है कि सबसे पहले उस मतदाता की जान बचाया जाना जरूरी है जिसके लिए पूरी चुनाव प्रणाली काम कर रही है। अतः 2 मई को होने वाली मतगणना के दिन के लिए उन्होंने चुनाव आयोग को कोरोना नियमाचार के नियम जारी करने को कहा है जिससे उन पर कड़ाई से पालन हो सके। न्यायालय तो यहां तक चला गया है कि यदि ये नियम जारी नहीं किये जाते हैं तो वह मतगणना रोकने का आदेश भी दे सकता है परन्तु प. बंगाल के सन्दर्भ में कुछ दिन पहले ही कोलकाता उच्च न्यायालय ने भी चुनाव आयोग को लताड़ लगाई थी और पूछा था कि क्या केवल राजनीतिक दलों के लिए ‘कोरोना नियमवाली सलाह’ जारी करने से उसका कर्त्तव्य पूरा हो जाता है जब तक कि उस पर सख्ती से अमल न हो? मगर क्या कयामत है कि चुनाव आयोग ने 22 अप्रैल को यह निर्देश जारी किया कि अब राज्य में बाकी बचे चरणों के चुनाव में केवल पांच सौ लोगों की रैलियां ही होंगी जबकि राजनीतिक दल इस दिन तक मांग कर रहे थे कि अब भी शेष चरणों को एक ही चरण में तब्दील कर दिया जाये क्योंकि राज्य में कोरोना बहुत तेजी से फैल रहा है। पूरे मामले में जो लोग सरकार को बीच में घसीट रहे हैं या उस पर दोषारोपण कर रहे हैं वे परोक्ष रूप से चुनाव आयोग को ही बचाने का काम कर रहे हैं क्योंकि चुनाव आयोग एेसी संवैधानिक संस्था है जो ‘सरकारें’ बनाती है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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