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हमारे सामाजिक रिश्ते

भारत की वह तहजीब जिसे कुछ लोगों ने गंगा-जमुनी कहा क्या कभी इक तरफा हो सकती है? अगर कई सदियों से भारत में हिन्दू-मुसलमान इकट्ठे रहते आ रहे हैं तो उनके आपसी सामाजिक रिश्ते रक्त के सम्बन्धों में क्यों विकसित नहीं हो पाये?

भारत की वह तहजीब जिसे कुछ लोगों ने गंगा-जमुनी कहा क्या कभी इक तरफा हो सकती है? अगर कई सदियों से भारत में हिन्दू-मुसलमान इकट्ठे रहते आ रहे हैं तो उनके आपसी सामाजिक रिश्ते रक्त के सम्बन्धों में क्यों विकसित नहीं हो पाये? क्या वजह रही कि दोनों समुदायों के लोगों के बीच मजहब की दीवार इतनी मजबूत रही कि एक ही देश में रहने और इसकी मिट्टी की तासीर से अपना निजी व सामुदायिक विकास करने के बावजूद इन दोनों समुदायों के लोग सांसारिक रिश्तों की गहराइयों में नहीं उतर सके? भारत में इस्लाम के आने के बाद इसका ‘भारतीयकरण’  इस हद तक हुआ कि इसमें भी जाति-बिरादरियां पनपीं और संभ्रान्त व पसमान्दा का भेद पैदा हुआ तथा ब्याह- शादियों तक में बिरादरियां देख कर हिन्दुओं की भांति ही वैवाहिक रिश्तों का प्रचलन हुआ। यह व्यवस्था भारत में मुस्लिम शासन के साथ बढ़ती रही और इस्लामी मुल्ला-मौलवियों और काजियों ने शाही पनाह में मुसलमानों का अपने दीन से बाहर जाकर किसी हिन्दोस्तानी के साथ उस गैर-बराबरी के रिश्ते को जायज ठहराया जो ‘स्त्री व पुरुष’ के रूप में व्याख्यायित होता था। इसमें किसी हुकूमत को फतेह करने वाले मुसलमान सुल्तान का अधिकार हराये गये राजा की सम्पत्ति पर जायज तौर पर हो जाता था और स्त्रियों को भी इसी सम्पत्ति का हिस्सा माना जाता था जिस पर ‘माले गनीमत’ के तौर पर विजयी पुरुषों का अधिकार होता था और स्त्रियों का मजहब स्वतः ही पुरुषों का मजहब हो जाता था। अतः इस्लाम में मुल्ला-मौलवियों ने स्त्री-पुरुषों के आपसी वैवाहिक रिश्तों का रास्ता इकतरफा ही रखा और इसके विपरीत रास्ता बदलने को अर्थात मुस्लिम स्त्री के दूसरे मजहब के पुरुष के साथ वैवाहिक सम्बन्धों की गुंजाइश को ‘कुफ्र’ में तब्दील कर दिया। परन्तु हिन्दू-मुसलमानों के बीच रक्त सम्बन्धों की तस्वीर का यह एक पहलू ही है जो भारत में इस्लाम को राज्यश्रय मिलने से स्थापित हुआ लेकिन आम आवाम अर्थात सामान्य हिन्दू-मुसलमानों के बीच जमीनी स्तर की अपनी क्षेत्रीय संस्कृतियों का जबर्दस्त प्रभाव था और इनके आपसी सामाजिक रिश्ते मजहब की दीवारों को फांद कर एक सूत्र में बन्ध जाया करते थे।
 इनमें सबसे ऊपर नाम कश्मीरी लोगों का ही आता है जिनमें 19वीं सदी तक अन्तर्धार्मिक विवाहों का प्रचलन था। इस क्षेत्र में इस्लाम अपने रूढीवादी स्वरूप में कभी नहीं उभर पाया और स्त्रियों की सामाजिक हैसियत के भारत के अन्य पहाड़ी राज्यों के समान ही सम्मानित रही। इसके साथ ही पंजाब व बंगाल समेत भारत के दक्षिणी राज्यों में भी हिन्दू-मुसलमानों का सामाजिक रक्त समागम यदा-कदा होने पर (मुस्लिम स्त्री व हिन्दू पुरुष) ज्यादा धार्मिक बवाल का कारण नहीं बन सका। पंजाब में तो स्थिति यहां तक थी कि मुगल काल खास कर अकबर के शासन के दौरान मुसलमान युवक ‘दुल्हा भट्टी’ हिन्दू-मुस्लिम अन्तर्धार्मिक विवाह का प्रतीक बन गया और लोक नायक बन गया जिसकी याद में लोहिड़ी का त्यौहार भी मनाया जाता है। उस समय पंजाब में मुगल सेनाएं युवतियों का धर्म देख कर उनका अपहरण नहीं करती थीं बल्कि उनकी सुन्दरता व आयु देख कर उन पर अत्याचार करती थीं। परन्तु भारत के हिन्दू समाज में जाति व वर्ण भेद इतनी गंभीर बीमारी थी कि पोंगा पंथी ब्राह्मणों ने इस परिपाठी के खिलाफ मुहीम सी छेड़ दी। जबकि इतिहास का एक सच यह भी बताया जाता है कि स्वयं अकबर बादशाह भारत की बहुआयामी हिन्दू संस्कृति से इतना प्रभावित था कि वह स्वयं हिन्दू या सनातम धर्म में दीक्षित होना चाहता था परन्तु हिन्दू ब्राह्मणों ने उसे निरुत्साहित करते हुए कह दिया था कि हिन्दू-धर्म में तो वापस आने का कोई रास्ता नहीं है। वह उनका शासक या राजा तो हो सकता है मगर उनके धर्म में दीक्षित नहीं हो सकता क्योंकि वह जन्म से अलग है। इसमें असली सत्य की खोज तो इ​तिहास वेत्ता ही कर सकते हैं परन्तु यह तो शत-प्रतिशत सच है कि अकबर ने हिन्दू व मुस्लिम धर्मों की विपरीत दिशाओं को देखते ही आपसी सामाजिक व धार्मिक समन्वय स्थापित करने की गरज से ही नया धर्म ‘दीने इलाही’  चलाया था। मगर जमीन पर इसका विरोध मुल्लाओं और पंडितों दोनों ने ही जम कर किया। 
पंजाब की हकीकत तो यह है कि इस धरती पर पंजाबी संस्कृति का इतना जबर्दस्त बोलबाला रहा कि इसमें आम जनता के बीच मजहबी रवायतों की महत्ता केवल घर की चारदीवारी के बीच ही रहती थी। आम लोग पीरों-फकीरों की दरगाहों पर भी जाते थे मन्दिरों व मस्जिदों का एहतराम भी करते थे। उन्हें जिसमें सुगमता दिखाई पड़ती थी उसी रास्ते को अपना लेते थे। पंजाब गुरू गोरखनाथ सम्प्रदाय के जोगी मठ बहुत लोकप्रिय हुआ करते थे जिसका नारा ही  ‘अलख निरंजन’ हुआ करता था। यह सम्प्रदाय हिन्दू-मुसलमान में कोई भेद नहीं करता था यही वजह थी कि पंजाब की रोमानी प्रेम जोड़ी ‘हीर-रांझा’ का रांझा मुसलमान होते हुए भी हीर के प्रेम में विव्हल होकर नाथ सम्प्रदाय का जोगी बन जाता है जबकि वह मुसलमान था। इसी प्रकार की बहुत सी कहानियां हमें बंगाली लोक संस्कृति में भी सुनने को मिलती हैं। परन्तु अकबर के शासन के बाद औरंगजेब के शासन के दौरान मजहबी रवायतें कट्टरपंथी की तरफ बढ़ीं और हिन्दू-मुसलमानों के बीच रक्त सम्बन्ध स्थापित करने को दोनों ही धर्मों के आलिमों व विद्वानों ने वरीयता नहीं दी। इसके बाद अंग्रेजों के शासन में तो बाकायदा हिन्दू-मुसलमानों को पूरी तरह दो दिशाओं में मोड़ दिया गया और 1937 में मुसलमानों का शरीया कानून भी बना दिया गया। इसके बावजूद भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में शामिल हमें बहुत से ऐसे नेता मिलते हैं जिन्होंने अन्तर्धार्मिक विवाह किये थे। परन्तु स्वतन्त्र भारत में भी मुसलमानों को पृथक धार्मिक संरक्षण ‘मुस्लिम पर्सनल ला’  किये जाने की वजह से मुस्लिम समाज में व्यक्तिगत नागरिक मूल अधिकारों का अनुपालन नहीं हो सका जिसकी वजह से मुल्ला-मौलवी आज भी किसी मुस्लिम स्त्री के हिन्दू से विवाह करने पर आसमान सिर पर उठा लेते हैं और हिन्दू स्त्री के किसी मुसलमान के साथ विवाह करने पर जश्न मनाते हैं। जबकि भारत का कानून ‘स्पेशल मैरिज एक्ट’ के तहत किसी भी धर्म के दो युवा-युवती को अपना मनपसन्द साथी चुनने का अधिकार देता है। अतः हैदराबाद में हिन्दू युवक भी नागराजू को मुस्लिम युवती आशरिना सुल्ताना के साथ विवाह बन्धन में बंध जाने की सजा सुल्तान के परिवार वाले नागराजू की हत्या करके देते हैं। इसकी सजा कानून देगा मगर भारत की हिन्दू-मुस्लिम जनता क्या उन मानवाधिकारों को अपना धर्म मानेगी जो उसे संविधान ने दिये हैं। इस समस्या का हल इसी में छिपा है। हम न तो धार्मिक रूप से कट्टर हो सकते हैं और न सामाजिक तौर पर। आत्म शुद्धि हम कब करेंगे। 
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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