ईरान के सबसे शक्तिशाली जनरल कासिम सुलेमानी की हत्या के बाद पश्चिम एशिया में बढ़ती तनातनी के बीच संयुक्त राष्ट्र ने बड़ी चेतावनी दे दी है। संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटारेस ने कहा है कि इस सदी में भूराजनीतिक तनाव अपने उच्चतम स्तर पर है। कई देश अप्रत्याशित फैसले ले रहे हैं, जिससे गम्भीर खतरा पैदा हो गया है। इन वैश्विक तनावों के बीच व्यापार और तकनीकी संघर्ष के चलते वैश्विक बाजार अस्थिर हो रहे हैं, विकास की गति कम हो रही है और असमानताएं बढ़ रही हैं। उन्होंने कहा कि ‘‘हमारा ग्रह जल रहा है’’ जलवायु संकट बढ़ता जा रहा है। हम दुनिया के कई हिस्सों में बहुत से लोगों को निराश और हताश देख रहे हैं।
हम आतंकवाद की खतरनाक स्थिति के साथ सामाजिक अशांति और बढ़ते चरमपंथ, राष्ट्रवाद और कट्टरता देख रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र महासचिव की चेतावनी को समूचे विश्व को गम्भीरता से लेना चाहिए। काश संयुक्त राष्ट्र ने पूर्व में अपनी भूमिका सही ढंग से निभाई होती तो आज दुनिया इस मुहाने पर खड़ी न होती। संयुक्त राष्ट्र महज अमेरिका की एक जेबी संस्था बना रहा है। कौन नहीं जानता कि इराक के मामले में अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र की बात नहीं मानी थी। अमेरिका ने इराक में विध्वंस किया लेकिन रासायनिक हथियार नहीं मिले। सारा विश्व जानता है कि इराक में भयानक विध्वंस हुआ। अफगानिस्तान में अमेरिका ने विध्वंस किया। लीबिया, सीरिया, यमन में उसने खूनी खेल खेला।
लीग आफ नेशन्स से लेकर यूएनओ तक का इतिहास इस बात का प्रमाण है कि संयुक्त राष्ट्र ने अपनी भूमिका निष्पक्ष ढंग से नहीं निभाई। विध्वंस के बाद जब पुनर्निर्माण की बात आई तो भारत ने हमेशा पहलकदमी की। कैसी विडम्बना है कि विध्वंस अमेरिका करे और पुनर्निर्माण का दायित्व भारत और अन्य देश निभाएं। भारत आज भी अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में बड़ी भूमिका निभा रहा है।कासिम सुलेमानी को दफन किए जाने के बाद ईरान प्रतिशोध की ज्वाला में जल रहा है। तनाव के बीच अमेरिका ने हिन्द महासागर में अपने बमवर्षक विमान भेजने को तैयार बैठा है जबकि ईरान प्रतिशोध के तरीके सोच रहा है। ईरान ने ट्रंप की 52 ठिकाने तबाह करने की धमकी के बदले उसके 250 ठिकाने तबाह करने की धमकी दे दी है।
पिछले तीन महीनों में खाड़ी देशों में बहुत कुछ हुआ है। तेल टैंकरों और अमेरिकी ड्रोन पर हमले हुए। इन सबके बावजूद ईरान पर आर्थिक दबाव डालने की अमेरिका की नीति का कुछ खास असर नहीं पड़ा है। अमेरिका ने ईरान के खिलाफ जो रुख अपनाया है, उसके पीछे इराक में ईरान का प्रभाव भी बड़ा कारण है। दूसरा कारण यह भी है कि अमेरिका और उसके सहयोगी देश तमाम कोशिशों के बावजूद सीरिया की वशर अल असद को सत्ता से हटा नहीं सके हैं।अमेरिका और ईरान के बीच बढ़ते तनाव का प्रभाव भारत पर पड़ने लगा है। इस तनाव से भारत की आर्थिक स्थिति पर भारी असर पड़ेगा। विदेश मुद्रा विनिमय बढ़ा तो खाद्य वस्तुओं से लेकर परिवहन, रेलवे, प्राइवेट ट्रांसपोर्ट पर बुरा असर पड़ेगा। इससे बेरोजगारी भी बढ़ सकती है। खाड़ी देशों में हजारों भारतीय रहते हैं।
अकेले ईरान में ही लगभग 25 हजार भारतीय कार्यरत हैं। भारत काफी तेल आयात करता है बड़ी मात्रा में गैस खाड़ी देशों से आयात करता है। सौ बिलियन से ज्यादा व्यापार खाड़ी देशों में होता है। अगर जंग छिड़ती है तो उसके परिणाम भयंकर ही होंगे।1973 में श्रीमती इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री पद पर रहते आर्थिक स्थिति काफी बिगड़ गई थी। कच्चे तेल की कीमतें डेढ़ डॉलर से बढ़कर आठ डालर तक हो गई थी, जिससे भारत का बजट ही बिगड़ गया था। भारत के पास विदेशी मुद्रा भंडार बहुत कम हो गया था। तब भारत की अर्थव्यवस्था आज जितनी मजबूत नहीं थी। अगर तीसरी बार ईरान पर हमला हुआ तो भारत की अर्थव्यवस्था को चोट पहुंचेगी।
ईरान से जंग के खिलाफ अमेरिका में भी लोग आवाज बुलंद कर रहे हैं। यद्यपि अमेरिकी अब और जंग नहीं चाहते लेकिन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अपनी सनक में कुछ भी कर सकते हैं। इराक और लेबनान में परोक्ष युद्ध चल रहा है। ईरान आैर सऊदी अरब के मध्य शीत युद्ध में कितनी तबाही हुई है। सीरिया बर्बाद हो चुका है। लीबिया में भी मारकाट मची हुई है।
पाकिस्तान ने भी यह कहकर अमेरिका को संकेत दे दिया है वह अपनी जमीन का इस्तेमाल किसी के खिलाफ युद्ध के लिए नहीं होने देगा। अफगानिस्तान ने भी स्पष्ट कर दिया है कि वह भी अपनी जमीन का इस्तेमाल किसी के खिलाफ युद्ध के लिए नहीं होने देगा। बेहतर यही होगा कि संयुक्त राष्ट्र युद्ध रोकने में अपनी भूमिका निभाए। भारत समेत वैश्विक शक्तियों को शांति स्थापना के लिए भूमिका निभानी होगी, अन्यथा हमारा ग्रह जल कर राख हो जाएगा।