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प. बंगाल में राजनैतिक उबाल

देश के सीमावर्ती संजीदा राज्य प. बंगाल में चुनाव समाप्त हो जाने के बावजूद जिस तरह दल-गत राजनीति जारी है उससे यह संकेत मिलता है कि संवैधानिक मर्यादाएं कहीं न कहीं अपनी लक्ष्मण रेखा पार करने को आतुर हैं।

देश के सीमावर्ती संजीदा राज्य प. बंगाल में चुनाव समाप्त हो जाने के बावजूद जिस तरह दल-गत राजनीति जारी है उससे यह संकेत मिलता है कि संवैधानिक मर्यादाएं कहीं न कहीं अपनी लक्ष्मण रेखा पार करने को आतुर हैं। भारत की बहुदलीय शासन प्रणाली के लिए यह स्थिति किसी भी हालत में उचित नहीं कही जा सकती। चुनावों में जनता का फैसला आने के बाद सभी दलों को उसे शालीनतापूर्वक शिरोधार्य करना चाहिए क्योंकि जिस दल की बहुमत की सरकार गठित होती है वह पूरे राज्य की जनता की सरकार होती है। इस सरकार की जिम्मेदारी उन लोगों के प्रति भी एक समान होती है जिन्होंने चुनाव में उसकी पार्टी को वोट नहीं दिया होता। साथ ही अल्पमत में सत्ता से बाहर रहने का जनादेश प्राप्त दल का भी यह कर्त्तव्य होता है कि वह चुनी हुई सरकार के संविधान के मुताबिक अपना कर्त्तव्य निभाने के लिए प्रेरित करे और लोकहित में जहां आवश्यक हो उसका विरोध करें। हमारे संविधान में यही व्यवस्था स्थापित होते देखने की जिम्मेदारी राज्यपाल पर सौंपी गई है और इस प्रकार सौंपी गई है कि वह चुनी हुई सरकार के कामकाज में हस्तक्षेप किये बिना संविधान के शासन का निगेहबान बना रहे इस मामले में यह समझना बहुत जरूरी है कि राज्यपाल केवल राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त अपना प्रतिनिधी होता है और उसका कार्यकाल भी राष्ट्रपति की प्रसन्नता पर निर्भर करता है। उसका आचरण और कार्यप्रणाली ‘सदाकत’ का प्रतीक होता है । उसके व्यवहार या आचरण में जरा सा हल्कापन भी सीधे संविधान की शुद्धता और शुचिता को प्रभावित करता है।
दुर्भाग्य से प. बंगाल के राज्यपाल महामहिम जगदीप धनखड़ इस पैमाने पर खरे नहीं उतर रहे हैं और वह अपनी कार्यप्रणाली से नाहक ही पद की गरिमा पर प्रहार कर रहे हैं। जिस तरह उन्होंने प. बंगाल के राजभवन को अपने परिवार और करीबियों का ‘डेरा’ बनाया है उससे राज्य का यह सर्वोच्च संस्थान एक कुटुम्ब के आशियाने में तब्दील हो गया है। राज्य की तृणमूल कांग्रेस सांसद महुआ मोइत्रा ने उन लोगों के नाम का खुलासा किया है जो धनखड़ के रिश्तेदार व करीबी हैं और उन सभी की नियुक्तियां राजभवन में मलाईदार पदों पर कर दी गई हैं। श्री धनखड़ ने अपने साले के बेटे अभ्युदय सिंह शेखावत, अपने पूर्व सहायक (एडीसी) गोरांग दीक्षित की पत्नी रुची दुबे व भाई प्रशान्त दीक्षित, वर्तमान एडीसी जनार्दन राव के साले कौस्तव एस. वालीकर और अपने परिवार के किशन धनखड़ को विभिन्न विभागों में विशेष पदेन अधिकारी (ओएसडी) नियुक्त किया। इनके अलावा भी एक नाम और बताया जा रहा है। यदि यह सत्य है तो निश्चित रूप से लोकतन्त्र में अंवाछनीय और अमर्यादित व्यवहार का सूचक है। यद्यपि राज्यपाल ने इन आरोपों का खंडन किया है लेकिन राज्य के संवैधानिक मुखिया के तौर पर श्री धनखड़ की विश्वसनीयता को दागदार बनाता है और उनके अभी तक के सभी सार्वजनिक कथनों को स्वार्थ प्रेरित सिद्ध करता है।
वैसे भी श्री धनखड़ जिस प्रकार राजनीति प्रेरित बयानबाजी करते रहते हैं उससे वह अपने पद की गरिमा को ही गिराने का काम करते हैं। हमारे संविधान में बहुत स्पष्ट है कि सत्ता केवल लोगों के हाथ में ही उनके चुने हुए प्रतिनिधियों के माध्यम से रहेगी। ये प्रतिनिधि विधान भवन में बैठ कर जनता का प्रतिनिधित्व करते हुए उसके हित के लिए काम करेंगे और नीतियां व कार्यक्रम बनायेंगे। राज्यपाल बेशक विधानसभा के संरक्षक होंगे मगर वह चुनी हुई सरकार के कार्य में तब तक किसी प्रकार का प्रत्यक्ष व परोक्ष हस्तक्षेप नहीं करेंगे जब तक कि सरकार का कोई कार्य संविधान के दायरे से बाहर न हो अथवा राज्य में संविधान का शासन धराशायी होने की स्थिति मंे न हो। इसी वजह से तो राज्यपाल की नियुक्ति सीधे राष्ट्रपति द्वारा अपने प्रतिनिधि के रूप में की जाती है। सरकार की जवाबदेही तय करने के लिए विपक्ष होता है जो सड़क से लेकर सदन तक सत्तादारियों को जवाब तलब करता है। राज्यपाल को इस प्रक्रिया से कोई मतलब नहीं होता क्योंकि वह किसी राजनैतिक दल द्वारा नियुक्त किया व्यक्ति नहीं बल्कि संविधान के संरक्षक राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त होता है। इसी वजह से उसकी नियुक्ति राष्ट्रपति की प्रसन्नता पर निर्भर करती है क्योंकि उसकी योग्यता का पैमाना स्वयं राष्ट्रपति ही तय करते हैं। परन्तु प. बंगाल की राजनीतिक तस्वीर का यह एक पहेली है।
दूसरी पहेली यह है कि राज्य में चुनावों के बाद तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता दीदी के हाथ में ही सत्ता रहने पर जिस प्रकार हिंसा हुई उसका माकूल जवाब भी शासन की ओर से आना चाहिए और दोषियों को सख्त सजा मिलनी चाहिए परन्तु क्या गजब हो रहा है कि विपक्ष के नेता शुभेन्दु अधिकारी के खिलाफ ही सरकारी सामान की चोरी करने का मामला दर्ज हो चुका है। इससे राजनैतिक बदले की कहीं न कहीं बू जरूर आ रही है। राज्य के लोगों को स्वच्छ शासन और कुशल कार्यप्रणाली की दरकार है न कि विपक्षी नेताओं के खिलाफ मुकदमों की। ममता दी को इस मुद्दे पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। ममता दी को जो विशाल बहुमत प. बंगाल की जनता ने दिया है वह भाजपा के खिलाफ गुस्सा उतारने के लिए नहीं बल्कि विधानसभा में उसके सदस्यों को भी अपने साथ लेते हुए जनकल्याण के काम करने के लिए दिया है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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