क्या गजब का विरोधाभासी माहौल भारत में बन रहा है कि एक तरफ पद्मावती फिल्म पर उत्तेजना उन लोगों में पैदा की जा रही है जिनके लिए दैनिक जीवन की आवश्यकताएं जुटाने में ही जान निकल जाती है और टमाटर खरीदने से लेकर स्कूल भेजने व इलाज कराने तक में आर्थिक कठिनाई होती है आैैर दूसरी तरफ वे लोग हैं जो पद्मावती रानी के गौरव की यशगाथा को उनके दुःखों का हल बताते घूम रहे हैं। यह विरोधाभास की पराकाष्ठा का माहौल है क्योंकि साधारण व्यक्ति की आर्थिक बदहाली को कथित सांस्कृतिक अस्मिता के उन्माद से दूर करने का प्रयास किया जा रहा है। एक तरफ पद्मावती को एक समाज विशेष के गौरव का प्रतीक बताया जा रहा है तो दूसरी तरफ इसी समाज में अभी तक यह कुप्रथा जारी है जिसमें कन्या के जन्म लेने पर पुरुष आत्म ग्लानि का अनुभव करते हैं। राजस्थान के सुदूर गांवों में अभी भी कहीं-कहीं यह प्रथा जारी है जिसमें कन्या जन्म पर मातम का माहौल पसर जाता है। यही वह राज्य है जिसमें बालिकाओं के स्कूल के परिधानों तक को तंग नजरिये के दायरे में रखकर देखा जाता है, मगर आज दीगर सवाल यह है कि जब टमाटर 80 रु. किलो बिक रहा हो और प्याज 60 रु. किलो बिक रही हो तो पद्मावती का गौरव गान करने वाले लोग अपने ही समाज के उन लोगों को क्या सौगात दे सकते हैं जिनके घर की रसोई में भोजन पकाने वाली नारी स्वयं को लाचार पाती हो और अपने परिवार के लोगों को आधा-अधूरा भोजन ही परोसने के लिए बाध्य होती हो।
आज की इस नारी की लाचारी काे क्यों वे ठेकेदार उठाने से भागते हैं जिनके लिए पद्मावती अचानक ही ‘राष्ट्रमाता’ हो गई है। पद्मावती उन लोगों के लिए भारत की आम नारी की लाचारी को छुपाने का बहाना हो सकती है जो भारत की 70 प्रतिशत जनता की मुसीबतों से अपना दामन छुड़ाना चाहते हैं मगर गांव या शहर के उस आदमी के लिए कभी भी पेट भरने का पर्याय नहीं बन सकती जो बाजार में जाकर अपने बच्चों के लिए टमाटर और प्याज खरीदने में भी स्वयं को असहाय पाता है। हम 13वीं सदी में नहीं जी रहे हैं बल्कि 21वीं सदी में जी रहे हैं और एेसे लोकतान्त्रिक भारत में जी रहे हैं जिसमें प्रत्येक नागरिक के अधिकार बराबर हैं। यही नागरिक अपने एक वोट की ताकत पर अपनी मनचाही सरकार बनाता है और जो भी सरकार होती है वह जनता की मालिक नहीं बल्कि उसकी नौकर होती है। 13वीं और 21वीं सदी के भारत में यही फर्क है। पिछली सदियों के राजा-रानियों की कहानियों से आज के आधुनिक व सभ्य समाज के लोगों को बांधकर नहीं रखा जा सकता है क्योंकि पुराने दौर में राजा और सुल्तान अपनी ताकत के बूते पर अपने-अपने राज्यों की सीमाएं तय करते थे और उसी के अनुरूप राजकाज के नियम बनाते थे मगर आज आम आदमी की ताकत पर सरकार बनती है और भारत संविधान के साये में चलता है और हर सरकार को इसी के तहत काम करना पड़ता है। यही संविधान कहता है कि लोगों द्वारा चुनी गई सरकार कल्याणकारी सरकार होगी और आम जनता की सोच में वैज्ञानिक दृष्टि पैदा करना उसका दायित्व होगा।
वैज्ञानिक दृष्टि और कुछ नहीं है बल्कि केवल यही है कि हम पद्मावती के बारे में सोचने की बजाय टमाटर और प्याज की कीमतों की बारे में सोचें और सरकार से पूछें कि क्या कारण है कि भारी उत्पादन होने के बावजूद इन वस्तुओं के दामों में आग लगी हुई है। बात समझ में आती अगर इनका उत्पादन करने वाले किसानों तक बढ़ी हुई कीमतों का यह लाभ पहुंचता मगर किसान की जेब में वही दस रु. प्रति किलो के हिसाब से पहुंच रहा है। आखिरकार ये कौन लोग हैं जो प्याज व टमाटर के सुर्ख होने से अपने गालों की लाली बढ़ा रहे हैं। हकीकत यह है कि सांस्कृतिक गौरव के नाम पर पैदा किये गये माहौल के बीच आर्थिक मोर्चे पर लूट-खसोट का बाजार गर्म किया जाता रहा है। यह सनद रहनी चाहिए कि जब वाजपेयी सरकार के दौरान सार्वजिनक कम्पनियों को पूरी बेशर्मी के साथ उस सरकार के विनिवेश मन्त्री अरुण शौरी कौड़ियों के दाम माले मुफ्त समझ कर बेच रहे थे तो संसद से लेकर सड़क तक राम मन्दिर निर्माण के नाम पर मदहोशी का आलम पैदा किया जा रहा था और सरकार खुदरा व्यापार तक में विदेशी कम्पनियों को प्रवेश कराने की नीति की तरफ तेजी से बढ़ना चाहती थी। उसी सरकार के एक प्रभावशाली मन्त्री स्व. प्रमोद महाजन तब प्रसार भारती तक को बेचने की योजना बनाये बैठे थे। इस देश के लोगों के खून-पसीने की कमाई से खड़े किये गये सार्वजनिक उपक्रम निजी उद्योगपतियों को बेधड़क बेचे जा रहे थे और चालू हालत में चल रही सरकारी कम्पनियों को बीमार बनाया जा रहा था।
उड़ीसा में लोग भूख से मर रहे थे और सरकारी गोदामों में पड़ा हुआ अनाज सड़ रहा था। संसद में घोषणा की जा रही थी कि भारत अब अनाज आयातक की जगह निर्यातक देश बन गया है। असली समस्या अनाज के भंडारण की खड़ी हो गई है, लेकिन आज भी जबर्दस्त विरोधाभास पैदा हो रहा है। हम पद्मावती फिल्म के प्रसारण को लेकर उबल रहे हैं मगर ग्रामीण अर्थव्यवस्था ठप्प हो गई है और असंगठित क्षेत्र के कामगार सड़कों पर आ गये हैं। लाखाें लोगों का रोजगार छिन चुका है। बेशक मूडी ने भारत की अर्थव्यवस्था को एक श्रेणी ऊपर के खाने में डाल दिया हो मगर दूसरी अंतर्राष्ट्रीय मानक संस्था ‘स्टेंडर्ड एंड पूअर’ ने एेसा करने से साफ इंकार कर दिया है। अतः यह समझा जाना चाहिए कि क्यों पद्मावती और टमाटर एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं, मगर हम भूल जाते हैं कि भारत वह देश है जिसके गांवों में प्रचलित कहावतें ही सारी पोल खोल देती हैं। एेसी ही एक कहावत है कि ‘भूखे भजन न होय गोपाला, ये ले अपनी कंठी माला।’