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पाक में ‘नापाक’ फौजी चुनाव

70 साल पहले भारत से ही काट कर बने मुल्क ‘पाकिस्तान’ में आजकल इंसानी हुकूकों को हलाक करने का जो सियासी खेल खेला जा रहा है उस पर

70 साल पहले भारत से ही काट कर बने मुल्क ‘पाकिस्तान’ में आजकल इंसानी हुकूकों को हलाक करने का जो सियासी खेल खेला जा रहा है उस पर दुनिया के सबसे बड़े लोकतान्त्रिक देश कहे जाने वाले भारत को इसलिए परेशान होने की जरूरत है कि वह अपने बगल में एेसी हरकतें बर्दाश्त नहीं कर सकता जिसमें बाजाब्ता तौर पर हाफिज सईद जैसे आतंकवादी की ‘दहशत गर्द’ तंजीमों को कानूनी जामा पहना कर जम्हूरियत के अहलकारों की तरह पेश किया जाये। बेशक हिन्दोस्तान की 99 प्रतिशत अवाम पाकिस्तान को एक ‘नाजायज मुल्क’ मानती है मगर इसमें रहने वाले उन लोगों से इसे कोई शिकवा नहीं रहा है जिन्हें 70 साल पहले तक हिन्दोस्तानी ही माना जाता था। इस मुल्क में जिस तरह लोकतन्त्र को तमाशा बनाकर यहां की फौज 25 जुलाई को राष्ट्रीय एसेम्बली के होने वाले चुनावों के नतीजों को ‘अगवा’ कर लेना चाहती है उससे पूरी दुनिया के लोकतान्त्रिक देशों को हरकत में आकर पाकिस्तानी फौज की मनमानी के खिलाफ एकजुट होकर चुनावों की तसदीक के लिए विश्व स्तर पर ठोस कदम उठाने चाहिएं।

पाकिस्तान जिस तरह से कश्मीर के मुद्दे पर इंसानी हुकूकों की बात उठाकर भारत को घेरने की फिराक में रहता है उसका जवाब देने का यह माकूल वक्त ही नहीं बल्कि पूरे पाकिस्तान की अवाम की उस सोच में तब्दीली लाने का वक्त भी है जिसे यहां की फौज और उसके गुर्गे सियासी हुक्मरान भारत के खिलाफ बनाये रखने में रात-दिन एक करते रहे हैं। कुछ लोग तर्क कर सकते हैं कि पाकिस्तान के अन्दरूनी मामलों से भारत को क्या लेना-देना हो सकता है? मगर यह उन मानवाधिकारों का मामला है जिन्हें लागू करने का अहद पाकिस्तान ने राष्ट्रसंघ में किया हुआ है। मुझे अच्छी तरह याद है कि जब 1999 के कारगिल युद्ध के बाद पाकिस्तान में चुनी हुई नवाज शरीफ की ही सरकार का सत्ता पलट करके फौज का जनरल परवेज मुशर्रफ खुद मार्शल ला प्रशासक बन बैठा था तो राज्यसभा में मौजूद समाजवादी नेता ‘स्व. जनेश्वर मिश्र’ ने यह मुद्दा उठाते हुए तत्कालीन वाजपेयी सरकार से मांग की थी कि वह अपने पड़ौसी देश में लोकतन्त्र को बचाने के लिए उचित कार्रवाई करे।

श्री मिश्र ने ‘माले’ देश का उदाहरण देते हुए कहा था कि उस देश में राजीव गांधी की सरकार के समय वैध रूप से स्थापित राष्ट्रपति अब्दुल गयूम की सरकार के सत्ता पलट कारनामें को उलटने में भारत ने अहम किरदार अदा किया था। उन्होंने यह भी कहा था कि पाकिस्तान जैसे मुल्क में मजबूत लोकतन्त्र का होना भारत के राष्ट्रीय हित में है क्योंकि इससे दोनों मुल्कों की अावाम के जिम्मेदार नुमाइन्दे आपसी मामलों पर जमीनी हकीकत पर उतर कर बातचीत करने को मजबूर रहते हैं। हालांकि उस समय श्री मिश्र को यही जवाब मिला था कि यह दूसरे देश का अन्दरूनी मामला है और भारत किसी भी मुल्क के अन्दरूनी मामलों में दखल नहीं देता है मगर इसके बाद जब नेपाल मंे राजशाही की विदाई और लोकतन्त्र स्थापना पर संघर्ष छिड़ा तो भारत का रवैया बहुत साफ रहा और उसने कहा कि भारत वही चाहता है जो इसके लोगों की इच्छा है। याद रखिये यह हमारे दौर के ‘स्टेट्समैन’ कहे जाने वाले पूर्व राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी का नीति सूत्र था मगर तर्क दिया जा सकता है कि नेपाल से हमारे दोस्ताना ताल्लुकात थे जबकि पाकिस्तान से दुश्मनी की हद तक ताल्लुकात हैं मगर ताल्लुकात इस मुल्क की फौज द्वारा भारत मंे फैलाई जा रही दहशतगर्दी की वजह से ही हैं।

अब यही फौज दहशतगर्दों को सियासत में लाकर उन्हें अवाम की आवाज बनाना चाहती है। भारत जैसा लोकतन्त्र अगर इस हकीकत को दुनिया की निगाह में लाने से चूक जाता है तो पहले से परमाणु ताकत से लैस इस मुल्क को और तबाही मचाने से कैसे रोका जा सकता है? इसलिए सवाल ताल्लुकात का न होकर उस इंसानी जज्बे का है जो दहशतगर्दी को कुफ्र मानता है। भारत अपने पड़ौस में किसी दूसरे ‘सीरिया’ को बर्दाश्त नहीं कर सकता क्योंकि पाकिस्तान में चुनावों से कुछ दिनों पहले ही चुनावी रैलियों में जिस तरह दहशत फैला कर बम विस्फोट करके लाचार लोगों को मारा जा रहा है उससे पाकिस्तानी फौज की असली मंशा का पता चल जाता है।

उस बलूचिस्तान में कल ही एक रैली में बम विस्फोट करके सवा सौ लोग मौत के घाट उतार दिये गये जहां के लोग पाकिस्तानी फौज की दरिन्दगी का लम्बे अर्से से शिकार बने हुए हैं। यह बलूचिस्तान वही है जहां हिंगलाज देवी का मन्दिर है और यहां के मुसलमान हर साल इस देवी के मेले में शिरकत करते हैं और इसे ‘दादी की हज’ का नाम देते हैं मगर सवाल हिन्दू-मुसलमान का नहीं बल्कि उस लोकतन्त्र का है जिसके तहत हर पाकिस्तानी को वोट देकर अपनी पसन्द की सरकार बनाने का रुतबा दिया गया है मगर यहां की फौज पाकिस्तानी आवाम की नुमाइन्दगी करने वाली सियासी जमातों जैसे मुस्लिम लीग (नवाज) और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी को चुनाव होने से पहले ही इस तरह ‘बेनंग-ओ-नाम’ कर देना चाहती है कि इन पार्टियों के बड़े-बड़े नेता चुनाव में खड़े ही न हो सकें। दुनिया जानती है कि इस मुल्क की अदालतें किस तरह काम करती हैं। फौज का इन अदालतों पर इस तरह दबदबा है कि वे सियासी जमातों के लीडरों के मुकदमों को उसकी रजामन्दी से ही निपटाती हैं। हमें याद रखना चाहिए कि 1978 में किस तरह इस मुल्क की अदालतों ने पीपुल्स पार्टी के नेता जुल्फिकार अली भुट्टो को फांसी पर लटकाया था जिन्होंने भारत के साथ 1972 में शिमला समझौता किया था मगर तब भारत में जनता पार्टी की मोरारजी देसाई की सरकार चुपचाप तमाशा देखती रही थी और पाकिस्तान का फौजी हुक्मरान जनरल जिया-उल-हक मनमानी करता रहा था। आज यह सवाल खड़ा करने मंे कुछ लोग चूकते नहीं हैं कि पाकिस्तान ने स्व. मोरारजी देसाई को अपना सबसे बड़ा नागरिक सम्मान ‘निशाने-पाकिस्तान’ क्यों दिया था।

उन्होंने पाकिस्तान की क्या खिदमत की थी? कुछ लोगों को मेरे तर्कों से भारी दिक्कत हो सकती है और वे कह सकते हैं कि मैं पाकिस्तान के लोगों के हक के बारे में क्यों चिन्ता कर रहा हूं। इस नाजायज मुल्क को उसके हाल पर ही छोड़ देना चाहिए, मगर असलियत यह है कि आज भी बचा-खुचा पाकिस्तान सिंगल यूनिट (एकीकृत) देश नहीं है। आधे से ज्यादा पाकिस्तान पर अंग्रेजों का बनाया हुआ कबीलों और जनजाति मूलक कानून लागू होता है। इसलिए जरूरी है कि इस मुल्क के लोगों के लोकतान्त्रिक अधिकारों की बात की जाये और पूरी दुनिया को बताया जाये कि किस तरह पाकिस्तान की फौज लोकतन्त्र का तमाशा करके मानवीय अधिकारों को रौंद कर चुनावी सर्कस कर रही है और बाजाब्ता सियासी जमातों को बदनामी के घेरे में रखकर हुक्मरानी अपने हाथ में रखना चाहती है। नवाज शरीफ का नाम पनामा पेपर्स में बेशक आया मगर इसके बहाने उनके पूरे खानदान को जिस तरह लपेटा गया उसकी वजह यही है कि नवाज शरीफ की बेटी मरियम नवाज आम पाकिस्तानियों को वोट की ताकत से बनी सरकार की हैसियत लोगों को बता कर कह रही थीं कि फौज अपनी हैसियत में उसी तरह रहे जिस तरह दूसरे लोकतान्त्रिक मुल्कों में रहती है मगर यहां की फौज की दाल-रोटी ही भारत से दुश्मनी के नाम पर चलती है और जम्हूरियत में जो भी हुक्मरान बनता है उसे लोगों की इच्छा का सम्मान करना पड़ता है। यही वजह थी कि पांच साल पहले पाकिस्तान में जब राष्ट्रीय एसेम्बली के चुनाव हुए थे तो भारत के साथ दोस्तान ताल्लुकात बनाने का अहम मुद्दा था और इसमें नवाज शरीफ की पार्टी को बहुमत मिला था।

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