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‘संसद जीवन्त बने’

भारत की जिस मजबूत संसदीय प्रणाली को हमारे विद्वान व दूरदर्शी पुरखे सौंप कर हमें गये हैं उसकी मूलाधार संसद से न तो सरकार भाग सकती है और न विपक्षी पार्टियां।

भारत की जिस मजबूत संसदीय प्रणाली को हमारे विद्वान व दूरदर्शी पुरखे सौंप कर हमें गये हैं उसकी मूलाधार संसद से न तो सरकार भाग सकती है और न विपक्षी पार्टियां। इसकी वजह यह है कि सरकार के गठन से लेकर उसकी कार्यप्रणाली की समस्त विधियों का रास्ता संसद से होकर ही गुजरता है जबकि विपक्षी पार्टियों पर आम जनता द्वारा डाली गई जिम्मेदारियों का ताला भी संसद में ही जाकर खुलता है। हमारे पुरखों ने इस व्यवस्था को इतनी खूबसूरती के साथ सुदृढ़ता प्रदान की कि संसद की सत्ता को सरकार से स्वतन्त्र रखते हुए इसमें सत्तारूढ़ व विपक्षी दल को बराबर का वजन बख्शा। यह बेवजह नहीं है कि लोकसभा में अध्यक्ष की कुर्सी पर जो भी सांसद विराजमान किया जाता है वह इस पद पर बैठते ही सरकार या उस सत्तारूढ़ दल के नियन्त्रण से मुक्त हो जाता है जिसने उसे इस पद पर बैठाया होता है। सदन के भीतर सरकार की सत्ता इसके अध्यक्ष की ताबेदार हो जाती है क्योंकि उसके आसन के समक्ष एक मन्त्री से लेकर साधारण सदस्य की हैसियत सबसे पहले एक सांसद की होती है और उसे निर्णय करना होता है कि बहुमत के आधार पर सत्तारूढ़ बना दल अपनी जवाबदेही सदन में पेश करे। यह जवाबदेही विपक्ष के माध्यम से ही सदन में तय होती है जिस वजह से संसद पर पहला अधिकार विपक्ष का माना जाता है और संसद को चलाने की जिम्मेदारी सरकार या सत्तारूढ़ दल पर डाली जाती है। संसद के दोनों सदनों के सभापतियों को यह अधिकार होता है कि वे अपने-अपने सदनों के माहौल को सूंघ कर विपक्ष द्वारा उठाये गये मुद्दों का संज्ञान लें और सरकार की जवाबदेही की प्रक्रिया को सुगठित स्वरूप दें। यह कार्य केवल संसद में चर्चा या बहस के जरिये ही होता है। इस चर्चा के जरिये ही विपक्ष सत्तारूढ़ दल की जवाबदेही तलब करता है और उन मुद्दों को केन्द्र में लाता है जिनकी वजह से सड़कों पर हंगामा बरपा होता है। लोकतन्त्र में विपक्ष ही वह प्रतिनिधि होता है जो जन आक्रोश का प्रतिबि​म्ब बन कर संसद के भीतर सरकार की जवाबतलबी कर सकता है, अतः संसद के दोनों सदनों के सभापतियों का दायित्व हर हालत में संसद को चलाने का बन जाता है। क्योंकि दोनों सदनों के सभापति ही आम जनता के प्रतिनिधि होते हैं। बेशक राज्यसभा के सभापति उपराष्ट्रपति होते हैं परन्तु उनका चुनाव भी प्रत्यक्ष तरीके से जनता द्वारा चुने गये प्रतिनिधि सांसद ही करते हैं। जबकि लोकसभा का अध्यक्ष तो स्वयं एक सांसद ही होता है। अतः हमारे लोकतन्त्र में राष्ट्रपति समेत ऐसाएक भी सार्वजनिक संवैधानिक पद नहीं है जिसमें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से आम जनता की भागीदारी न हो। यह अनूठी जन भागीदारी की शास्त्रीय संसदीय व्यवस्था हमारे लोकतन्त्र की आक्सीजन है जिसके द्वारा हर संस्थान जीवन्त रहते हुए अपनी जिम्मेदारी निभाता है। 
संसद को सुचारू रूप से चलाने के लिए दोनों सदनों की कार्यमन्त्रणा समितियां भी प्रमुख भूमिका निभाती हैं । इनका गठन करने की व्यवस्था भी इसीलिए की गई जिससे संसद के भीतर सत्तारूढ़ व विपक्षी दलों के बीच विभिन्न विषय उठाने व उन पर चर्चा करने की आपसी सहमति बन सके और सरकारी विधाई कार्यों पर भी मतैक्य कायम हो सके। इसी वजह से तो यह नियम परंपरा रूप में स्थापित किया गया कि शोर-शराबे के बीच कोई विधेयक पारित नहीं किया जाना चाहिए। क्योंकि ऐसा करते ही सरकार सदन के भीतर जनता के प्रति अपनी जवाबदेही के सिद्धांत को त्याग देती है जबकि जवाबदेही संसदीय लोकतन्त्र का मूलाधार होती है जिसके संरक्षक सदन के सभापति ही होते हैं। यही वजह है कि किसी भी सदन में जब किसी संसद सदस्य को यह लगता है कि सरकार उसके द्वारा उठाये गये प्रश्नों से कतराने की कोशिश कर रही है या विषयान्तर हो रही है तो वह सभापति से ही संरक्षण देने की मांग करता है। अतः बहुत जरूरी है कि संसद के दोनों सदनों में विभिन्न विषयों पर चर्चा कराई जाये और उन ज्वलन्त मुद्दों को लिया जाये जिन पर देश की जनता आन्दोलित हो रही है। संसद में हर परिस्थिति व संकट का मुकाबला करने के लिए नियमों की कमी नहीं है। इन्ही मंे से एक काम रोको प्रस्ताव का हथियार विपक्षी सांसदों के हाथ में रहता है जिसके माध्यम से वे ज्वलन्त राष्ट्रीय मुद्दों पर सरकार से जवाब तलबी करते हैं। एेसे प्रस्तावों की तस्दीक करने का अधिकार सभापतियों के हाथ में ही रहता है और उनकी जिम्मेदारी को कई गुना बढ़ा देता है। पिछले दो सप्ताहों से संसद यदि चल नहीं पा रही है तो इस तरफ सोचने की जिम्मेदारी सभी राजनीतिक दलों की बनती है क्योंकि अन्ततः संसद में बैठ कर वे ही आम जनता का प्रतिनिधित्व करते हैं । जब संसद सत्र के चलते इसके बाहर राजनीतिक दल एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्योरोप लगाने लगें तो समझना चाहिए कि हम उस प्रणाली को ही बे-इकबाल साबित कर रहे हैं जिसकी मार्फत इन्हीं राजनीतिक दलों का इकबाल जिन्दा रहता है। हमें यह समझना होगा कि संसद केवल कोई इमारत नहीं है बल्कि इसमें मुल्क के 139 करोड़ लोगों की रूह बसती है। इन्हीं लोगों के मसले हल करने के लिए इस इमारत की संगे बुनियाद रखी गई थी और लोकसभा के अध्यक्ष के माध्यम से इसके परिसर की शासन व्यवस्था तय की गई थी। यह ऐसी जीवन्त इमारत है जिसमें करोड़ों लोग बोलते हैं। इनकी आवाज सुनना इसका पहला दायित्व है। यही तो वह लोकतन्त्र है जिसे हमारे पुरखे सौंप कर गये हैं। 
 आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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