स्वतन्त्रता के बाद संसदीय लोकतान्त्रिक प्रणाली अपनाने के पीछे सबसे बड़ा कारण यह था कि इस व्यवस्था के भीतर बहुमत के आधार पर चुनी गई किसी भी दल की सरकार लगातार उस जनता के प्रति जवाबदेह बनी रह सके जो अपने एक वोट के अधिकार से जन-प्रतिनिधियों को लोकसभा में चुनकर भेजती है। इस प्रणाली के तहत प्रधानमन्त्री के नेतृत्व में बने मन्त्रिमंडल की सामूहिक जिम्मेदारी तय की गई। इसकी वजह भी यह थी कि सरकार का कोई भी मन्त्री सरकार के किसी भी कार्य से अपना पीछा छुड़ाने की कोशिश न कर सके। इसके साथ ही संसदीय अधिकार और कार्यकारी अधिकारों में भी साफ-साफ विभाजन रेखा खींच कर तय किया गया कि प्रशासन चलाने के काम में किसी प्रकार की व्यावहारिक कठिनाई न आने पाए मगर आश्चर्य का विषय यह है कि संसद का बजट सत्र जिस कारण अधर में झूल रहा है उसका संसदीय अधिकारों से कोई लेना-देना नहीं है। कावेरी जल बंटवारे हेतु सर्वोच्च न्यायालय विगत 16 फरवरी को निर्देश दे चुका है कि इसका गठन केन्द्र सरकार को छह सप्ताह के भीतर कर देना चाहिए। आन्ध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा देने का मुद्दा भी संसदीय अधिकारों से अलग है। इसके साथ ही तेलंगाना में आरक्षण का कोटा बढ़ाने का मामला भी संसद की मुहर का मोहताज नहीं है। इसके बावजूद कावेरी मुद्दे पर तमिलनाडु की अन्नाद्रमुक पार्टी, आन्ध्र के मुद्दे पर तेलगूदेशम पार्टी व आरक्षण के मुद्दे पर तेलंगाना राष्ट्रीय समिति संसद में आकर पोस्टरबाजी करके इसकी कार्यवाही में बाधा डाल रही हैं और संसद को चलने नहीं दे रही हैं।
हालांकि तेलगूदेशम ने लोकसभा में अपने सांसदों को अध्यक्ष के आसन के निकट जाकर प्रदर्शन करने से रोक दिया है मगर शेष दो पार्टियों का पुराना रवैया जारी है। इन दोनों पार्टियों की नीयत पर सवाल उठना लाजिमी है क्योंकि सरकार के खिलाफ रखे गए अविश्वास प्रस्ताव को अध्यक्ष इसी आधार पर बार-बार अस्वीकृत कर रही हैं कि सदन में अव्यवस्था की वजह से वह इसके लिए जरूरी 50 सांसदों की गिनती नहीं कर सकतीं। जाहिर है कि अन्नाद्रमुक व तेलंगाना समिति जानती है कि उनकी मांग का संसद में रखे जाने से कोई मतलब नहीं है। इसी तरह तेलगूदेशम भी जानती है कि आन्ध्र को विशेष राज्य का दर्जा दिये जाने के लिए संसद की स्वीकृति की जरूरत नहीं है। इसके बावजूद ये पार्टियां संसद की कार्यवाही में बाधा डालकर क्या सिद्ध करना चाहती हैं? ये पार्टियां जानती हैं कि उनकी मांग विशुद्ध रूप से सरकार से सम्बन्धित है, संसद से नहीं। बेशक संसद के भीतर उन्हें विरोध प्रकट करने का जायज अधिकार है मगर इसके लिए वे संसदीय व्यवस्था के तहत दिए गए औजारों का ही प्रयोग करके अपने विरोध को प्रकट करतीं तो वह ज्यादा कारगर सिद्ध हो सकता था मगर इस मामले में सबसे बड़ी जिम्मेदारी सत्ताधारी दल की बनती है और संसदीय कार्यमन्त्री की बनती है कि वह अन्नाद्रमुक के सांसदों को स्पष्ट करें कि उनकी मांग का संसद से कोई लेना-देना नहीं है बल्कि सरकार से है अतः वे सरकार से इस बारे में बातचीत करें। तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक की ही सरकार है। तेलंगाना में तेलंगाना राष्ट्रीय समिति की ही सरकार है और आन्ध्र प्रदेश में तेलगूदेशम की ही सरकार है। इन तीनों राज्यों की सरकारों को केन्द्र सरकार से बातचीत करनी है जबकि संसद के भीतर किसी तरह का प्रस्ताव नहीं रखना है।
केवल बहस कराने के िलए समय लेना है जिसके लिए सरकार रोज कहती है कि वह तैयार है। सवाल उठना वाजिब है कि फिर ये पार्टियां संसद की कार्यवाही में बाधा किसको लाभ और हानि पहुंचाने के लिए डाल रही हैं? वे किसको मदद पहुंचा रही हैं? अविश्वास प्रस्ताव स्वीकृत होने का मतलब सरकार के गिरने से बिल्कुल नहीं है बल्कि इसके माध्यम से ये सभी पार्टियां भी अपनी-अपनी बात विस्तार के साथ देशवासियों के सामने रख सकती हैं। उनके सामने तो यह सुनहरा अवसर होगा जब वे अपना मन्तव्य प्रकट कर सकेंगी। दूसरी तरफ सत्तापक्ष के लिए भी यह स्वर्ण अवसर होगा जब वह अपनी सरकार के बारे में पैदा किए जा रहे भ्रम को तोड़ सकेगा। लोकतन्त्र विनम्रता के साथ अपना वर्चस्व स्थापित करने की कला होती है। संसद के सत्र के चलते जिस तरह के गंभीर आरोप-प्रत्यारोपों की बौछार हो रही है उससे सबसे बड़ा नुकसान उस आम आदमी का हो रहा है जिसके वोट की ताकत पर संसद में विभिन्न दलों के सांसद चुने गये हैं। उनकी समझ में यह नहीं आ रहा है कि उसने इन सांसदों को किसलिए चुन कर भेजा था? मुझे तो आश्चर्य इस बात पर होता है कि संसद की कार्यवाही पर होने वाले खर्च का सवाल उठाकर कुछ लोग उस मूल मुद्दे से ध्यान भटकाना चाहते हैं जो संसद को सर्वशक्तिमान बनाता है। वह यह है कि केवल लोकसभा ही किसी भी सरकार को बनाने या बिगाड़ने की क्षमता रखती है। जब हम इसका इकबाल ही जमींदोज कर देंगे तो बचेगा क्या? इसलिए जरूरी है कि अन्नाद्रमुक व तेलंगाना राष्ट्रीय समिति जैसी पार्टियों को सही रास्ते पर लाने की पहल की जाए। लोकसभा अध्यक्ष की भूमिका भी संसदीय लोकतन्त्र को मजबूत बनाने में सबसे ऊपर रखकर देखी जानी चाहिए।