संसद के बजट सत्र का प्रथम चरण समाप्त हो चुका है जिसमें राज्यसभा में बजट पर चली चर्चा का उत्तर भी वित्तमन्त्री श्रीमती निर्मला सीतारमन ने देते हुए साफ करने की कोशिश की है उनके द्वारा पेश किए गये वित्तीय लेखे-जोखे में आगामी वित्त वर्ष में अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के व्यापक उपाय किये गये हैं। मगर इसके बावजूद विपक्ष के कुछ एेसे वाजिब सवाल अनुत्तरित रह गये हैं जिनमें सम्पत्ति के सम्यक बंटवारे को लेकर सैद्धान्तिक चुनौतियां हैं। हकीकत यह है कि भारत एक कल्याणकारी राज्य व्यवस्था वाला देश है जिसकी समूची लोकतान्त्रिक शासन प्रणाली तीन प्रमुख स्तम्भों विधायिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका पर टिकी हुई है। चौथा खम्भा बेशक चुनाव आयोग है जो कि इन तीनों खम्भों के लिए पुख्ता जमीन सुलभ कराता है। इन तीनों खम्भों में विधायिका अर्थात संसद की भूमिका हमारे संविधान निर्माताओं ने इस प्रकार नियत की है कि समग्र भारत देश की शासन व्यवस्था को संविधानतः चलाने और आम जनता की समस्याओं को हल करने के सत्वाधिकार इसके पास रहें जिससे यह संप्रभु राष्ट्र भारत का व्यावहारिक अर्थों में प्रतिनिधित्व कर सके। अतः यह बेवजह नहीं है कि लोकतान्त्रिक भारत में संसद को संप्रभुता इस प्रकार प्रदान की गई है कि इसके द्वारा बनाये गये कानूनों की समीक्षा स्वतन्त्र न्यायपालिका केवल और केवल संवैधानिक कसौटी के नजरिये से ही कर सके।
स्वतन्त्र न्यायपालिका यह कार्य भारत की राजनीतिक प्रशासनिक प्रणाली की समीकरणों से निरपेक्ष होकर संसद के कार्यक्षेत्र व उसके अधिकार क्षेत्र में प्रवेश को वर्जित जानकर करती है। दूसरी तरफ संसद भी न्यायपालिका के क्षेत्र को वर्जित क्षेत्र मान कर ही अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन करती है। परन्तु यह भी सत्य है कि न्यायपालिका कानून का पालन होते देखने के कर्त्तव्य से बन्धी होती है। अतः कई बार एेसा भी होता है जब प्रशासनिक दायरे का अतिक्रमण हुआ समझा जाता है जिसे राजनीतिक जगत में ‘जुडीशियल एक्टीविज्म’ अर्थात अति न्याय सक्रियता कह दिया जाता है। परन्तु एेसे मामले तभी होते हैं जब प्रशासन अपने दायित्व के प्रति उदासीनता दिखाते हुए नििष्क्रय दिखाई पड़ता है। स्वतन्त्र भारत में संभवतः यह पहला मामला है जब संसद के भीतर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा संसद के अधिकार क्षेत्र में प्रवेश का मुद्दा अत्यन्त गंभीरता के साथ किसी सदस्य द्वारा संरचनात्मक तरीके से उठाया गया।
लोकसभा में इस आशय का मामला इस सदन के विपक्ष के अति सक्रिय सांसद श्री एन.के. प्रेमचन्द्रन ने उठाते हुए भारत की सुगठित लोकतान्त्रिक प्रणाली में इसे अत्यंत आपत्तिजनक बताया और सवाल खड़ा किया कि यदि संसद के अधिकार क्षेत्र में किसी दूसरे संवैधानिक संस्थान द्वारा अतिक्रमण किया जायेगा तो संसदीय प्रणाली की इस सर्वोच्च संस्था ‘संसद’ का क्या होगा? दरअसल यह प्रश्न बहुत गंभीर है क्योंकि इसके तार देश के उन करोड़ों मतदाताओं के अधिकारों से जुड़े हैं जो अपने एक वोट की ताकत से लोकसभा में बहुमत देकर किसी भी पार्टी या गठबन्धन की सरकार गठित करते हैं और विपक्षी खेमे के सांसदों को भी चुनते हैं। श्री प्रेमचन्द्रन ने किसानों के जारी आन्दोलन को लेकर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी एक विज्ञापन पर घोर आपत्ति जताई जिसमें आम जनता से अपील की गई है कि वह किसानों के हितों की रक्षा करने के लिए अपने सुझाव दे। श्री प्रेमचन्द्रन ने पूछा यदि न्यायपालिका ही यह काम करने लगेगी तो फिर इस सदन की क्या उपयोगिता रह जायेगी? कृषि कानून संसद द्वारा बनाये गये हैं और उनमें जोड़-घटाव करने का पूरा अख्तियार केवल संसद के पास ही है। इस अंतिम सत्य को कोई नहीं बदल सकता है। बेशक सर्वोच्च न्यायालय इन कानूनों को संविधान की कसौटी पर कस कर अपना अंतिम फैसला दे सकता है और इन्हें वैध या अवैध घोषित कर सकता है। ऐसा पहले भी कई बार सर्वोच्च न्यायालय कर चुका है मगर संसद ने अपने अधिकारों का प्रयोग करते हुए संवैधानिक संशोधन करते हुए उन कानूनों को फिर से बनाया। यह संसद का अधिकार है जिसकी वजह से लोकतन्त्र में इसे संप्रभु कहा जाता है। एेसा बैकों के राष्ट्रीयकरण व राजामहाराजाओं के प्रिवीपर्स उन्मूलन मामलों में 1969-70 में हो चुका है। ताजा मामला असम में विदेशी नागरिकता पहचान कानून का था जिसे 2005 में सर्वोच्च न्यायालय ने अवैध घोषित कर दिया था। अतः किसानों के मुतल्लिक कानूनों पर भी संसद का ही सत्वाधिकार निर्विवाद रूप से रहेगा।
किसान आन्दोलनकारी भी संसद में बैठी सरकार से ही इन्हें निरस्त करने की मांग कर रहे हैं जबकि सर्वोच्च न्यायालय में दो सांसदों ने इनकी संवैधानिकता को चुनौती दी हुई है। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने केवल दो महीने के लिए इनके अमल पर रोक लगाई थी जो कि स्वयं में स्वतन्त्र भारत में पहला मामला था क्योंकि संसद द्वारा पारित कानूनों पर न्यायालय ने इससे पूर्व कभी संविधान के संरक्षक राष्ट्रपति द्वारा मुहर लगे कानूनों पर अमल नहीं रोका था। परन्तु इसके साथ यह भी विचारणीय है कि सर्वोच्च न्यायालय ने एेसा फैसला जनहित की गरज से ही लिया होगा बेशक इसके सभी पक्षों की समालोचना विधि विशेषज्ञ कर रहे हैं, परन्तु जहां तक संसद का सवाल है तो भारत के संविधान निर्माता इसे संप्रभुता देकर गये हैं और कह गये हैं कि बाबा साहेब अम्बेडकर का लिखा संविधान केवल एक बेजान पुस्तक नहीं है बल्कि यह भारत की प्रगति और उत्थान का कारगर औजार है जिसके माध्यम से इस देश के लोग अपना सामाजिक व आर्थिक विकास करेंगे। निश्चित रूप से यह कार्य संसद के माध्यम से ही हो सकता है इसीलिए संसद भारत के लोकतन्त्र में सर्वोच्च होती है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com