संसद का बजट अधिवेशन शुरू हो चुका है जिसका श्री गणेश सांसदों की संयुक्त बैठक में राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू के उद्बोधन से हुआ। इसके साथ ही लोकसभा में आगामी वित्त वर्ष का वार्षिक सर्वेक्षण वित्त मन्त्री श्रीमती निर्मला सीतारमण ने रखा। आर्थिक सर्वेक्षण मोटे तौर पर देश की वित्तीय दशा और दिशा बताता है। हम प्रतिवर्ष संसद में यह कार्यक्रम करते हैं मगर संसदीय प्रणाली में बजट सत्र का सर्वाधिक महत्व होता है जिसकी वजह से यह सबसे लम्बा भी और दो चरणों में चलता है। सवाल यह है कि संसद में बजट के हर पहलू पर विशेष चर्चा हो जिससे देशवासियों के सामने सरकार की आर्थिक नीतियों का पूरा लेखा-जोखा हो सके। लोकतन्त्र में यह प्रक्रिया बहुत आवश्यक होती है और इसकी जिम्मेदारी विपक्ष की होती है कि वह किस प्रकार सरकार के आर्थिक कार्यक्रम की लोकहित में समीक्षा करता है और समालोचन के जरिये सरकार को अपनी नीतियां और लोकोन्मुख बनाने के लिए प्रेरित करता है।
भारत को दुनिया में सबसे बड़ा संसदीय लोकतन्त्र कहा जाता है जिसकी वजह यह है कि हमारे संविधान निर्माताओं ने जो नियम इस प्रणाली को जीवन्त बनाये रखने के लिए बनाये वे सभी संसद के माध्यम से भारत के आम आदमी को सशक्त बनाने के थे। उदाहरण के लिए सांसदों को विशेषाधिकार दिये गये। कुछ लोग इसका अर्थ सांसदों को मिलने वाले विशेष लाभों से लगाते हैं जो कि पूर्णतः गलत है। ये अधिकार हर स्तर पर सामान्य कहे जाने वाले मतदाताओं के अधिकारों को ऊंचा रखने के लिए दिये गये थे। मसलन संसद के भीतर किसी भी सांसद को अपना मत बिना किसी डर या भय अथवा लोभ या लालच के रखने का अधिकार है। उसके कथन को देश के किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती। सांसद को अपने सार्वजनिक जीवन में काम करते हुए जो भी सूचना या तथ्य मिलते हैं उनके आधार पर वह संसद में खड़े होकर सरकार से सवाल पूछ सकता है और अपना अभिमत रख सकता है। संसद के भीतर ही उसके मत को चुनौती दी जा सकती है, मगर अपने कथन की तथ्यात्मकता या विश्वसनीयता साबित करने की जिम्मेदारी स्वयं सांसद की ही होती है। संसद सदस्य जब संसद में खड़ा होता है तो वह सत्ता के किसी भी दबाव या भय से मुक्त होता है। अतः उसके अधिकारों की रक्षा करने का भार संसद या चुने हुए सदन के अध्यक्ष या सभापति का होता है और सदन के अध्यक्ष या सभापति जब आसन पर बैठते हैं तो वह सरकार का अंग नहीं होते बल्कि संसद परिसर में उनकी स्वयंभू सत्ता होती है। सदन के भीतर बैठे हुए सभी सत्ता व विपक्ष के चुने हुए सांसदों के अधिकार बराबर होते हैं जबकि सरकार में शामिल सांसदों के लिए सदन की कार्यवाही में सहभागिता हेतु विशिष्ट नियमावली इस प्रकार रहती है कि वह अपने मन्त्री होने का विशेष लाभ न उठा सकें। इसीलिए यह बेवजह परंपरा नहीं है कि संसद पर पहला अधिकार विपक्षी सदस्यों का होता है। इसके मूल में कारण यह है कि विपक्ष में बैठे सांसद और सत्तापक्ष में शामिल सांसद में कोई अन्तर नहीं होता। दोनों का चुनाव आम मतदाता ही करते हैं और दोनों ही अपने-अपने चुनाव क्षेत्र के मतदाताओं के प्रति समान रूप से उत्तरदायी होते हैं। इस तत्व को हमारी संसदीय व्यवस्था में इस प्रकार पिरोया गया है कि सरकार द्वारा रखा गया कोई भी विधेयक या अन्य मसौदा बिना विपक्ष की राय जाने पारित नहीं किया जाता जबकि यह सर्वविदित होता है कि बहुमत में होने की वजह से सरकार अपना विधेयक पारित करा लेगी। इसकी वजह यह है कि संसदीय प्रणाली हर कदम पर सरकार को अपने फैसलों को बेहतर बनाने का अवसर प्रदान करती है जिससे अधिकाधिक जन कल्याण की नीतियां लागू हो सकें।
यही वजह है कि लोकतन्त्र में सत्ता और विपक्ष एक-दूसरे के दुश्मन नहीं बल्कि प्रतियोगी या विरोधी होते हैं। यह विरोध केवल विरोध के लिए नहीं होता बल्कि जनता को अधिकाधिक लोक सेवाएं देने व उनके कल्याण के लिए होता है। अतः संसद में सकारात्मक चर्चा या बहस बहुत जरूरी होती है और इस प्रणाली का प्राण मानी जाती है। मगर हम देख रहे हैं कि लोकतन्त्र की इस स्वस्थ परंपरा में कमी आ रही है। विपक्ष जो विषय सदन में उठाना चाहता है उनकी स्वीकृति में सभापति का आसन हिचकिचाहट में रहता है और विपक्ष उन पर अड़ जाता है जिसकी वजह से सदनों की कार्यवाहियां शोर-शराबों में बदल जाती हैं। इस सन्दर्भ में हमें ऐसी परंपराएं स्थापित करनी होंगी जिनसे संसद की कार्यवाही पूरे सौहार्दपूर्ण माहौल में सम्पन्न होती रहे। वैसे स्थापित परंपराओं व परिपाटियों के अनुसार संसद को चलाने की प्राथमिक जिम्मेदारी सरकार की होती है मगर विपक्ष को भी अपनी जिम्मेदारी से अलग नहीं किया जा सकता है।
बेशक यह भी हो सकता है कि इस कशमकश में पुरानी स्थापित परंपराओं तक को ताक पर रखा जा रहा हो मगर संसद को सुचारू रूप से चलाने के लिए दोनों पक्षों के बीच का गतिरोध तोड़ने हेतु नयी विचार-विमर्श प्रणाली भी स्थापित की जा सकती है जो केवल सदनों के अध्यक्ष या सभापति के संरक्षण में ही संभव है। वैसे तो हम संसद के हर सत्र से पहले देखते हैं कि सरकार की ओर से सर्वदलीय बैठक बुलाई जाती है जिसमें कार्यवाही को गतिरोध मुक्त चलाने की कसमें भी खाई जाती हैं परन्तु नतीजा फिर वही ‘गतिरोध’ निकलता है। जबकि लोकतन्त्र में गतिरोध के लिए कोई स्थान नहीं होता क्योंकि इस प्रणाली का आधार ही ‘सर्व विचार’ का ‘सार’ होता है। अतः भारत के लोग अपेक्षा करते हैं कि उनकी चुनी हुई संसद में उनके ही ज्वलन्त विषयों पर चर्चा होगी और समाधान भी निकलेगा। संसद ने पूर्व में ऐसा कई अवसरों पर किया भी है जब देश के लोगों को यह एहसास हुआ कि उनकी संसद लोकहित व राष्ट्रहित में अपने सभी मतभेद भुलाकर एक मत से लोकतन्त्र की जय-पताका फहराती है।