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देशभक्ति दिखावा नहीं जज्बा

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भारत के राष्ट्रगान और राष्ट्रवाद जैसे गंभीर मुद्दों पर लगातार चिंतन-मंथन होता आया है और इस सम्बन्ध में आये फैसलों में बदलाव भी हुआ है। देशभक्त होना, राष्ट्रवादी होना एक भावना है और राष्ट्रीय चिन्हों और प्रतीकों का सम्मान करना हर भारतीय का कर्तव्य है लेकिन क्या दिखावे की देशभक्ति से किसी में देश प्रेम जगाया जा सकता है ? पिछले वर्ष 30 नवम्बर को दिये अपने आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि पूरे देश के सिनेमाघरों में ​फिल्म शुरू होने से पहले राष्ट्रगान बजाया जाये और इस दौरान वहां मौजूद दर्शकों को राष्ट्रगान के सम्मान के दौरान खड़ा रहना अनिवार्य होगा। स्पष्ट था कि सुप्रीम कोर्ट का आदेश बाध्यकारी था। इस आदेश के बाद गोवा में व्हीलचेयर पर बैठे आदमी का फिल्म के दौरान खड़े न होने पर उत्पीड़न हुआ। राष्ट्रगान के दौरान जो दर्शक कुर्सियों पर बैठे उनकी गिरफ्तारियां भी हुईं। दक्षिणपंथी विचारधारा के कुछ लोगों पर कानून हाथ में लेने और सिने प्रे​मियों को परेशान करने के आरोप भी लगे।

सिनेमा हाल तो मनोरंजन का स्थल होते हैं और लोग केवल मनोरंजन के लिये वहां जाते हैं। कई बार लोग यह भी कहते सुने गये कि फिल्म केवल व्यस्कों के लिये है,जाहिर है इसमें अश्लील दृश्य भी होंगे, ऐसी फिल्मों से पहले राष्ट्रगान बजाना हास्यास्पद लगता है। राष्ट्रगान के वक्त जो गंभीरता होनी चाहिए, वह सिनेमाहालों में नजर नहीं आती। वर्ष 1971 में राष्ट्रीय सम्मान के अपमान को रोकने वाला कानून बना था। इस कानून के मुताबिक राष्ट्रगान को गाने में बाधा पहुंचाने या किसी कार्यक्रम में राष्ट्रगान के दौरान रुकावटें डालने पर तीन वर्ष की जेल या अर्थ दंड का प्रावधान किया गया था। 1960, 1970 के दौर में फिल्मों के बाद राष्ट्रगान बजाया जाता था लेकिन लोग फिल्म खत्म होते ही बाहर जाने काे लालायित हो उठते थे। फिर बाद के दिनों में राष्ट्रगान बजाना बंद कर दिया गया था। बीते वर्ष जब फिर से राष्ट्रगान को अनिवार्य बनाया गया तो दुर्भाग्यपूर्ण परिणाम भी सामने आये। तब इस बाध्यकारी आदेश में बदलाव के लिये याचिका डाली गई। याचिका में कहा गया कि जबरन लोगों को राष्ट्रगान गाने के लिये कहना और खड़ा करना मौलिक अधिकारों का हनन है। याचिका में सम्मान का दिखावा और सम्मान के लिये वास्तविक भाव के फर्क का भी उल्लेख किया गया है। याचिका में यह भी कहा गया है कि मनुष्य जन्मजात स्वतंत्र होता है, उसे बेवजह कानून की जंजीरों में बाधने से उसके नैसर्गिक अधिकारों पर कुठाराघात होता है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि मनुष्य के नैसर्गिक अधिकार असीमित हैं। सभ्य समाज राज्य को उसके अधिकारों को सीमित करने का अधिकार देता है। अलबत्ता राज्य को इतना विवेकशील होना चाहिए कि वह इस बात को देखे कि मनुष्य की स्वतंत्रता के अधिकार को सीमित करने का औचित्य क्या है ?

अब सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सिनेमा हाल में देशभक्ति साबित करने के लिये राष्ट्रगान के समय दर्शकों का खड़े होना जरूरी नहीं है। शीर्ष अदालत ने यह टिप्पणी भी की है कि यदि कोई व्यक्ति राष्ट्रगान के लिये खड़ा नहीं होता है तो ऐसा नहीं माना जा सकता है कि वह कम देशभक्त है। नागरिकों को अपनी आस्तीनों पर देशभक्ति पर चलने के लिये बाध्य नहीं किया जा सकता। प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति ए.एम. खानविलकर और न्यायमूर्ति धनंजय वाई. चंद्रचूड की तीन सदस्यीय खंडपीठ ने कहा कि समाज को नैतिक पहरेदारी की जरूरत नहीं है। पीठ ने टिप्पणी भी की कि अगली बार सरकार चाहेगी कि लोग सिनेमाघरों में टी-शर्ट्स और शार्ट्स में नहीं जायें क्योंकि इससे राष्ट्रगान का अपमान होगा। न्यायालय ने संकेत दिया कि सिनेमाघरों में फिल्म शुरू होने से पहले राष्ट्रगान बजाने को अनिवार्य करने सम्बन्धी अपने पिछले वर्ष के आदेश में सुधार कर सकती है। कोर्ट ने गेंद केन्द्र सरकार के पाले में डालते हुए कहा है कि देशभर के सिनेमाघरों में राष्ट्रगान बजाने को नियंत्रित करने के लिये राष्ट्रीय ध्वज संहिता में संशोधन करने पर विचार करे। यद्यपि केन्द्र की ओर से पेश महाधिवक्ता के.के. वेणुगोपाल का तर्क था कि भारत एक विविधता वाला देश है और एकरूपता लाने के लिये सिनेमाघरों में राष्ट्रगान बजाना आवश्यक है।

सुप्रीम कोर्ट के यह विचार अपने पहले के फैसले से अधिक बुद्धिमतापूर्ण और विवेकशील हैं कि राष्ट्रगान के दौरान खड़े रहना देशभक्ति की परीक्षा नहीं हो सकती। मामले की सुनवाई अब 9 जनवरी को होगी। इस बार सरकार को या तो कुछ कदम उठाने होंगे या फिर कोई फैसला लेना होगा जिससे लोग संतुष्ट हों। देश प्रेम के जज्बे को पैदा करने का काम शिक्षण संस्थानों को प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर करना होगा, यह काम न तो अदालतें कर सकेंगी और न ही कानून। समाज राष्ट्र के प्रति देशभक्ति की भावनाओं का ज्वार पैदा कर सकता है। लोगों में देशभक्ति की कोई कमी नहीं। भारत-पाक युद्ध हो या कारगिल युद्ध, आतंकवादी हमले हों या प्राकृतिक आपदायें, लोग सैनिकों और लोगों की मदद के लिये उमड़ पड़ते हैं। रक्तदान करने वालों की भीड़ लग जाती है। यही है असली देशभक्ति, इसलिये इसे दिखाने की जरूरत नहीं।

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