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पैट्रोल-डीजल आैर जीएसटी

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पैट्रोल-डीजल की कीमतों को नई शुल्क व्यवस्था ‘जीएसटी’ के दायरे में लाने को लेकर सत्तारूढ़ व विपक्षी दलाें में विवाद कोई नया नहीं है। इसकी असली वजह यह है कि पैट्रोल व डीजल पर शुल्क लगाकर केन्द्र सरकार व राज्य सरकारों के पास राजस्व उगाही का वह सबसे सरल रास्ता है जिसके लिए उन्हें किसी प्रकार की मेहनत नहीं करनी पड़ती। बेशक भारत सरकार की यह घोषित नीति है कि घरेलू बाजार में पैट्रोल व डीजल के भाव सीधे अन्तर्राष्ट्रीय मूल्यों से बन्धे होने चाहिएं और इनका भाव तेल कम्पनियों को ही तय करने की खुली छूट मिलनी चाहिए मगर इसके बावजूद सरकारों के हाथ में वह अस्त्र है जिसके जरिये वे इन्हें महंगा या सस्ता बना सकती हैं। यह औजार इस ईंधन पर उत्पाद व आयात शुल्क के साथ राज्य सरकारों द्वारा लगाया जाने वाला बिक्रीकर है। इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि पैट्रोल व डीजल पर जो कुल शुल्क लगता है उसमें इसका हिस्सा 50 प्रतिशत है अर्थात यदि शुल्कों को हटा दिया जाये तो पैट्रोल व डीजल का बाजार में भाव सीधा आधा रह जायेगा। जीएसटी के दायरे में अगर इसे अधिकतम 28 प्रतिशत के घेरे में भी रखा जाता है तो बाजार में इन दोनों ईंधन के भाव मौजूदा भावों से लगभग तीन चौथाई ही रह जायेंगे।

जाहिर तौर पर इसका सीधा लाभ उन उपभोक्ताओं को होगा जो स्कूटर से लेकर मोटर कार चलाते हैं और उन किसानों को होगा जो खेती-बाड़ी में डीजल का उपयोग अपने इंजन या ट्यूबवैल व ट्रैक्टर आदि चलाने में करते हैं। इसके साथ ही डीजल के दामों में कमी का सबसे बड़ा फायदा रेलवे को भी होगा जिसमें इसका उपयोग सबसे ज्यादा किया जाता है। रेलवे के लिए डीजल सस्ता होने का मतलब होगा कि यात्री किरायों में लगातार वृद्धि का बोझ आम जनता पर कम होगा। बाजार मूलक अर्थव्यवस्था में सरकार आवश्यक वस्तुओं पर यदि सब्सिडी समाप्त करने की वकालत करती है तो दूसरी तरफ उसे एेसी वस्तुओं को संरक्षणात्मक अर्थव्यवस्था के ढांचे में रखने का अधिकार नहीं दिया जा सकता। देश की कुल बजट राशि का एक तिहाई धन केवल पैट्रोलियम आयात पर ही खर्च होता है और इस पर शुल्क लगाकर सरकार अपनी कुल राजस्व उगाही का लगभग एक चौथाई हिस्सा प्राप्त करती है। जाहिर तौर पर यह राजस्व राशि बिना किसी उपक्रम के प्राप्त होती है अतः इसे ‘इजी मनी’ कहा जा सकता है जिसका लोभ संवरण करना आसान काम नहीं है। इसके साथ ही केन्द्र इस धनराशि का 40 प्रतिशत हिस्सा राज्याें को दे देता है मगर इसके बाद राज्य सरकारों के पास भी यह हक होता है कि वे अपनी सुविधानुसार बिक्रीकर लगाकर अपने प्रदेशों में डीजल व पैट्रोल की कीमतें तय करें। यह व्यवस्था उपभोक्ताओं पर अत्याचार के अलावा दूसरी नहीं कही जा सकती क्योंकि अब पैट्रोल केवल रईसों के उपयोग की चीज नहीं रह गई है।

आर्थिक उदारीकरण और बाजारमूलक अर्थव्यवस्था के तहत बैंकिंग क्षेत्र में परिवर्तन व प्रतियोगिता बढ़ने की वजह से पूंजीगत वस्तुओं से लेकर टिकाऊ उपभोक्ता सामग्री की खरीदारी के क्षेत्र में आसान बैंक ऋणों की उपलब्धता बढ़ी है जिसकी वजह से छोटे कस्बों से लेकर शहरों तक में दोपहिया मोटर वाहनों की बाढ़ आ गई है। भारत का जो स्वरूप बदला है उसमें अब साइकिल की जगह मोटरसाइकिल लेती जा रही है और यह औसत व्यक्ति का वाहन बनती जा रही है। अब मोटरसाइकिल सामान्य वाहन का रूप लेती जा रही है अतः पैट्रोल व डीजल के भाव सीधे आम आदमी की जेब पर असर डालते हैं। चूंकि इन्हें चलाने के लिए भारत की निर्भरता 90 प्रतिशत आयातित तेल पर है इसलिए आम आदमी के हितों को ध्यान में रखकर सरकार को अपनी वरीयताएं तय करनी पड़ेंगी।

राज्यसभा में विपक्षी कांग्रेस के नेताओं खासकर पूर्व वित्तमन्त्री पी. चिदम्बरम द्वारा इन ईंधनों को जीएसटी के दायरे में लाने की जरूरत के जवाब में वित्तमन्त्री अरुण जेतली का उत्तर भी सकारात्मक था और उन्होंने कहा कि जीएसटी परिषद में ही इस प्रकार का फैसला इस शुल्क प्रणाली के नियमों के तहत लिया जा सकता है अतः जब भी इस परिषद की अगली बैठक होगी वह इसमें इस मुद्दे को उठायेंगे। इससे यह तो पता चलता है कि वित्तमन्त्री की नीयत इन ईंधनों को सस्ता बनाने की है और तार्किक मूल्य प्रणाली लागू करने की है किन्तु राज्य सरकारों के नजरिये को बदलना उनके हाथ में नहीं है लेकिन इस मामले में भी वित्तमन्त्री अब ज्यादा समय नहीं ले सकते हैं क्योंकि देश के 19 राज्यों में भाजपा की सरकारें काबिज हो चुकी हैं अतः उन्हें अपने नजरिये से सहमत करना अब केन्द्र की जिम्मेदारी है। परिषद में कोई भी फैसला तीन चौथाई बहुमत से लेने का नियम है। इसमें एक तिहाई मत केन्द्र सरकार के होते हैं और दो तिहाई मत राज्य सरकारों के होते हैं।

परिषद में भाजपा की राज्य सरकारों का कर्नाटक, प. बंगाल, पंजाब, केरल व तमिलनाडु, दिल्ली, पुडुचेरी व कुछ उत्तर पूर्वी छोटे राज्यों को छोड़कर दबदबा है। यहां तक कि जम्मू-कश्मीर राज्य सरकार भी अपने यहां जीएसटी को लागू कर चुकी है। अतः राज्य सरकारों के बीच आम सहमति बनाना इसलिए मुश्किल काम नहीं है कि विरोध करना राज्यों की सरकार के सत्तारूढ़ दलों के प्रति जन असन्तोष को जन्म दे सकता है। कोई भी राजनैतिक दल नहीं चाहेगा कि उसकी छवि जन विरोधी बने। यदि एेसा न होता तो क्यों वित्तमन्त्री तुरन्त इस बात पर हामी भर देते कि उनकी सरकार पैट्रोल व डीजल को जीएसटी के दायरे में लाना चाहती है। हमें यह याद रखना होगा कि गुजरात चुनावों में जीएसटी को कांग्रेस अध्यक्ष श्री राहुल गांधी ने ‘गब्बर सिंह टैक्स’ से नवाज कर भाजपा के लिए मुश्किलें खड़ी कर दी थीं मगर यह अरुण जेतली ही थे जिन्होंने वक्त की नब्ज पहचानते हुए जीएसटी के 28 प्रतिशत शुल्क दायरे से अधिसंख्य उत्पादों को निकाल कर 18 प्रतिशत के दायरे में डालकर गुजरात के व्यापार मूलक शहरों में भाजपा की नाक बचाने का काम किया।

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